भारतीय गेंदबाज़ मोहम्मद शमी पिछले कई दिन से सोशल मीडिया पर मुस्लिम नौजवानों के निशाने पर हैं. शमी ने अपनी पत्नी के साथ एक फोटो फेसबुक पर क्या शेयर डाल दी, सोशल मीडिया पर मौजूद इन मुस्लिम नौजवानों को इस्लाम खतरे में नजर आने लगा. शमी पर जमकर लानते भेजी जा रही है. उन्हें हिदायत दी जा रही है कि मुसलमान होने के नाते उन्हें अपनी पत्नी को कैसे रखना चाहिए. उनकी इस फोटो पर मुस्लिम नौजवानों के कमेंट्स पढ़कर ऐसा लग रह है मानो इन्हें अभी-अभी अल्लाह की तरफ से हुक्म मिला है शमी को सबक सिखाने का. ऐसा लग रहा है कि इन्हें अल्लाह ने शमी पर दरोगा बना कर भेज दिया है. हालांकि शमी के समर्थन में भी कुछ मुस्लिम नौजवान इन स्वघोषित अल्लाह की फौज से भिड़े हुअए हैं लेकिन इनकी तादाद बहुत कम है.


शमी की अपनी पत्नी की के फोटो और उसपर आए मुस्लिमम नौजवानों के कमेंट्स ने मीडिया को एक बार फिर मौका दे दिया है इस्लामी कट्टरपंथ और मुस्लिम कट्टरवाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके मुस्लिम समाज को निशाना बनाने का. कई टीवी चैनलों पर बहस हो रही है तो कई चैनल सर्वे करा हैं कि क्या शमी की पत्नी को निशाना बनाकर इसे सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है. सवाल ये पैदा होता है कि शमी और उनकी पत्नी को इस्लाम के दायरे में रहने की सीख देने वाले ये मुस्लिम नौजवान होते कौन हैं. किस हैसियत से ये शमी को हिदायत दे रहे हैं.


इन्हें ये अधिकार किसने दे दिया. ये क्यों तय करेंगे कि शमी की पत्नी कैसे कपड़े पहने. ये क्यों तय करेंगे कि शमी अपनी पत्नी को कैसे कपड़े पहनाए या कैसे रखे. क्या ये शमी के अब्बा हैं? क्या ये शमी के बड़े भाई हैं? अगर हैं भी तो भी इन्हें ये सब बातें तय करने का अधिकार नहीं है.


शमी के मां-बाप या फिर सास-ससुर उसे ताक़ीद कर सकते हैं. नसीहत कर सकते हैं. अपनी मर्जी उन पर वो भी थोप नहीं सकते है.


देश का संविधान देश के हर नागरिक को अपनी मर्जी से जिंदगी गुजारने का अधिकार देता है. शमी और उनकी पत्नी दोनों भारतीय हैं. लिहाज़ा उन्हें ये तय करने का पूरा संवैधानिक अधिकार है कि वो क्या पहनें, कैसे रहें. शमी अपनी पत्नी को बुर्का पहनाए या बगैर बुर्क के रखे. वो उसे बुर्कोनी पहनाए या बिकनी पहनाए. वो उसे पूरी आस्तीनों की कमीज पहनाए, आधा आस्तीनों की पहनाए या फिर बगैर आस्तीनों की पहनाए. ये उसका और उसकी पत्नी का निजी मामला है. इस पर मुझे या किसी और को कोई हिदायत देने की अधिकार नहीं हैं. जो लोग फेसबुक पर दारोग़ा बन बैठे हैं वो शमी की निजीं जिंदगी में सीधे-सीधे दखल दे रहे है.


शमी को हिदायत दी जा रही है कि मुसलमान होने के नाते उन्हें अपनी बीवी को पर्दें में रखना चाहिए. ठीक है. मान लेते हैं. शमी को ऐसा करना चाहिए. अगर वो नहीं करता तो...? इसमें आपका क्या जाता है...? आपको क्या परेशानी है...? बल्कि ज्यादा अहम सवाला ये है कि आपको क्यों परेशानी है...?


जो मुस्लिम नौजवान इस्लाम की दुहाई देकर शमी को लानते भेज रहे हैं वे बताएं कि क्या शमी के आमाल का हिसाब अल्लाह उनसे पूछेगा...? शमी को अपना हिसाब खुद देना है. उसकी बीवी को अपना हिसाब देना है. मुझे अपना हिसाब देना है. शमी को निशाना बनाने वालों को अपना हिसाब देना है. भाई लोगों जब सबको अपना-अपना हिसाब खुद ही देना है तो फिर आप लोग क्यों एक क्रिकेटर के पीछे पड़े हो. उसे अपने हिसाब से जीने दो. आप अपने हिसाब से जियो.


आप क्यों शमी की पत्नी पर इस्लामी ड्रेस कोड के नाम पर अपनी मर्जी की ड्रेस थोंप रहे हो. आप होते कौन हो नौतिकता का पैमाना तय करने वाले. आप होते कौन हो नैतिक पुलिस की तरह बर्ताव करने वाले. पहली बात तो ये है कि पहनावे का ताल्लुक कतई तौर पर धर्म से नहीं हैं. लोगों का पहनावा देशकाल और विशेष भौगोलिक क्षेत्रों में पनपने वाली तहज़ीब पर निर्भर करता है.


ये बात सही है कि इस्लाम पर्दे का हुक्म देता है. इससे किसी को इंकार नहीं है. लेकिन पर्दा कैसा हो, कितना हो इस पर आलिम-ए- दीन में मतभेद हैं. कोई कहता है कि इस्लाम में नक़ाब यानि चेहरा ढकने का हुक्म है लेकिन कुछ का कहना है कि इस्लाम चेहरा ढकने का हुक्म नहीं देता. दुनिया भर में मुस्लिम पहनावे की पहचान माने जाने वाले हिजाब में चेहरा खुला हेता. कुछ मुस्लिम देशो में हिजाब चलता है कुछ मे नक़ाब. लेकिन हम भारत में रहते हैं. शमी और उसकी पत्नी भी भारत में रहते हैं. किसी ऐसे मुस्लिम देश में नहीं जहां हिजाब या नकाब पहनना जरूरी हो. भारत में कोई कैसा भी लिबास पहन सकता है. यहां सरकार की तरफ से किसी खास मजहब के लोगों के लिए केई खास ड्रेस कोड नहीं है. यही देश की संस्कृति है. यही ताकत है. यहां पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शेरवानी पहनते थे, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद भी और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भी.


पंजाब की औरतों का पहनावा एक जैसा है. दूर से देख कर आप बता नहीं सकते कि सामने वाली औरत हिंदू है, सिख है या फिर मुसलमान है.


मुस्लिम महिलाओं के पर्दे को लेकर देश में अक्सर सवाल उठते हैं. बहस होती है. लेकिन हरियाणा और राजस्थान में हिंदू औरतें भी लांबा-लांबा घूंघट ही निकालती है.


शमी और उनकी पत्नी पर हल्ला बोलने वालों, आप लोगों ने कभी गौर किया है कि जिस अल्लाह और रसूल के नाम पर नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हो वो क्या कहते हैं. अल्लाह ने अपने नबी पर पूरी दुनिया को हिदायत देने के लिए एक किताब उतारी है. इसका नाम है कुरआन. इसी कुरआन में अल्लाह ने साफ कहा है, ‘दीन में कोई ज़ोर जबर्दस्ती नहीं है.’ (सूराः बकरा, आयत न. 256)


इसी किताब में अल्लाह ने अपने नबी से कई बार कहा कि हमने तुम्हें किसी पर निगरानी करने वाला नहीं बनाया न ही किसी पर दरोगा तैनात नहीं किया है. तुम्हारा काम सिर्फ हमारा पैगाम पहुंचा देना है. हिदायत देना हमारा काम है. तुम से नहीं पूछा जाएगा किसी के बारे में. सूराः ग़ाशिया की आयत न. 21-26 में साफ-साफ कहा गया है, ‘बस तुम नसीहत करते रहो. तुम तो बस नसीहत करने वाले हो. तुम उन पर दरोगा तो हो नहीं. जिसने नाफरमानी की और इंकार किया तो अल्लाह उसे बड़ा अज़ाब देगा. हमारी ही तरफ है उनकी वापसी. फिर हमारे ही ज़िम्मे है हिसाब लेना.’


जब अल्लाह ने अपने नबी को किसी पर निगरानी रखने वाला, या दरोगा तैनात नहीं किया तो भाई आप लोग क्यों शमी और उसकी बीवी पर अपना दरोगाई दिखा रहे हो.


अल्लाह ने तो अपने नबी तक को ये अधिकार नहीं दिया. तो आप लोगों को ये अधिकार किसने दे दिया...?


सवाल पैदा होता है अगर अल्लाह ने ये अधिकार नहीं दिया तो फिर ये लोग किसके हुक्म से शमी को धमका रहे है. कौन है इनका आक़ा...? किसका हुक्म बजा रहे हैं ये लोग...? दरअसल ये लोग अल्लाह और उसके रसूल के नाम पर मजहब और मसलकों की दुकाने चला रहे चंद फतवेबाज मुल्ला के शैदाई हैं. अगर ये अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करने वाले होते तो अल्लाह की किताब और रसूल की ज़िंदगी पर अमल कर रहे होते. ये तो हिसाब लेने पर तुले हुए हैं. भाई लोगों आप ज़मीन पर ही अल्लाह के बंदों का हिसाब ले लोगे तो क़यामत के दिन अल्लाह किसका हिसाब लेगा.


दरअलस फतवेबाज मुल्लाओं ने अल्लाह की किताब के असली संदेश को कहीं छिपा दिया है. पता नहीं किन-किन किताबों से कैसे-कैसे संदेश सुनाकर इन्होंने मुसलमानों की बड़ी आबादी को अपना ग़ुलाम बना रखा है. इन्होंने गुमराही के ऐसे अंधेरों में धकेल दिया है जहां से इन्हें कुरआन की रोशनी भी दिखाई नहीं दे रही. ऐसे लोगों ने मुल्लाओं के पास अपना दिमाग़, अक्ल और ज़मीर तक गिरवी रख दिया है. ऐसे लोग कुछ भी सोचने समझने को तैयार नहीं हैं. अगर 70 और 80 के दशक में फेसबुक होता तो ज़ीनत अमान सत्यम शिवम सुंदरम में मंदाकिनी राम तेरी गंगा मैली और सोनम बख्तियार विजय फिल्म में अपने जिस्म की नुमाइश के लिए इनके गुस्से का कैसे शिकार होती इसका अंदाज़ा शमी की फोटो पर आए कमेंट्स देख कर लगाया जा सकता है.