आठ दिसंबर को किसानों ने देश व्यापी हड़ताल का आह्वान किया है. जिसका बीस से ज्यादा राजनीतिक दलों ने समर्थन किया है. किसान संगठन पहले राजनीतिक दलों को अपने मंच से दूर रखते थे लेकिन अब समर्थन से कोई एतराज नहीं है. इसका एक फायदा तो यही है कि जहां जिस दल की सरकार है वहां सरकार बंद को सफल बनाने की अपनी तरफ से कोशिश करेगी.


इसके आलावा यह बात पूरे देश को बताने की कोशिश हो रही है कि किसान आंदोलन सिर्फ पंजाब और हरियाणा तक सीमित नहीं है जैसा कि दावा बीजेपी का मीडिया सेल कर रहा है. कुल मिलाकर किसान लंबी लड़ाई के लिए तैयार हैं तो उधर सरकार भी लड़ाई के लंबे खिंचने पर उसका तोड़ निकालने में लग गई है.


पता चला है कि सरकार किसी भी कीमत पर कानूनों को वापस नहीं लेगी. कुछ संशोधन उसने मंजूर किये हैं. कुछ अन्य 9 दिसंबर की बैठक में मंजूर करने का आश्वासन दे सकती है. कुछ का कहना है कि जब तक किसानों से सहमति नहीं बनती तब तक कानूनों के अमल पर रोक लगा दी जाए. लेकिन यह सब किसानों के रुख पर निर्भर करेगा. जानकार बताते हैं कि सरकार ने अगर किसानों के आगे झुकते हुए कानूनों को वापस लिया तो मोदी कमजोर पीएम कहलाएंगे. ऐसा संदेश जाएगा कि इतना बहुमत लाने के बावजूद सरकार के पास राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है. इसके आलाव किसानों के लिए आर्थिक सुधार कभी भी सरकार नहीं कर पाएगी. लेकिन सरकार ने एक अच्छा काम किया है कि उसने साफ कर दिया है कि वह एमएसपी को लीगल राइट बनाने का कोई इरादा नहीं रखती है. वैसे सरकार अगर मौका नहीं चूकती तो इस दौर से उसे गुजरना नहीं पड़ता.


हम जिस मौके के चूकने की बात कर रहे हैं वह मौका था राज्यसभा का. जब तीन बिल राज्यसभा में रखे गये थे तब विपक्ष ने इन्हें प्रवर समिति को भेजने की बात कही थी. प्रवर समिति में सभी दलों के नेता होते हैं और सब दलगत राजनीति से उपर उठकर अपनी राय रखते हैं. माना जाता है कि विवादास्पद बिल लोकसभा में स्थाई समिति और राज्य सभा में प्रवर समिति को भेजने के फायदे भी होते हैं. बिल छन्न जाता है. उसकी सारी कानूनी खामियां दूर हो जाती है. अभी जिन संशोधनों  की बात किसान नेता कर रहे हैं यह सारे संशोधन राज्यसभा में भी विपक्ष ने सुझाए थे. अगर सरकार ने बिल प्रवर समिति को सौंप दिया होता तो सारे संशोधन उसके पास होते. संशोधन वह मंजूर कर लेती तो किसानों के पास सड़क पर उतरने का बहाना नहीं रहता.


इससे भी बड़ी बात है कि एमएसपी पर सरकार को बैकफुट पर नहीं आने का दबाव नहीं पड़ता. ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल एमएसपी को लीगल राइट बनाने की बात तक नहीं कर रहा था. यूपीए सरकार के समय भी ऐसी ही मांग उठी थी लेकिन मनमोहन सिंह ने पीएम रहते हुए मांग ठुकरा दी थी. तो राज्यसभा में अगर प्रवर समिति के पास बिल जाता और वहां लीगल राइट की कोई बात ही नहीं उठती तो किसान अकेले पड़ जाते. ऐसे में सरकार किसानों से कह सकती थी कि कोई भी दल एमएसपी को लीगल राइट बनाने के लिए तैयार नहीं है. लेकिन होता यही है कि बहुमत के नशे में सरकारें स्थाई समितियों और प्रवर समितियों को भूल जाती हैं और बाद में खामियाजा उठाना पड़ता है. जैसा कि बीजेपी सरकार के साथ इस समय हो रहा है. वैसे ऐसा भी नहीं है कि केवल मोदी सरकार इन समितियों को हाशिए पर रखती रही हो मनमोहन सिंह सरकार के समय भी बहुत से बिल सीधे पास करवाए गये. हो हल्ले के बीच पास करवाए गये. लेकिन जानकार बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में बिल सीधे पास कराने का चलन बढ़ा है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)