फरवरी 2015 को जब आम आदमी पार्टी को दिल्ली के वोटर ने गद्दी पर बिठाया तो किसी पार्टी के लिए कोई भ्रम की गुंजाईश नही छोड़ी. 67 सीटें देकर दिल्ली ने दिल खोलकर अरविंद केजरीवाल को अपना नेता माना. दिल्ली की जनता ने एक बार फिर अपना मत दिया है. 2015 में 54 फीसदी वोट देने वाली दिल्ली ने एमसीडी चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पार्टी को महज 26 फीसदी पर समेट दिया. तब विधानसभा की 70 सीटों में से दिल्ली की जनता ने 67 सीटें केजरीवाल के नाम कर दी लेकिन दो साल दो महीने बाद एमसीडी चुनाव में 270 सीटों में से 67 सीटें भी अपने मुख्यमंत्री को नही दी. जाहिर है इन नतीजों के बाद कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं. सवाल सब तरफ से उठेंगे. इसे अरविंद केजरीवाल की हार के तौर पर देखा जाएगा. इसे दिल्ली वालों की नाराजगी माना जाएगी, उन दिल्ली वालों की जिन्होंने अरविंद केजरीवाल को एक झटके में राष्ट्रीय राजनीति का चमकता सितारा बना दिया था.



क्या हार से सबक लेंगे केजरीवाल?

तो क्या अरविंद केजरीवाल इन नतीजों से सबक लेंगे, क्या अपने काम काज के तरीके की खुद विवेचना करेंगे, क्या अपनी पार्टी की कार्यशैली पर आत्मचिंतन करेंगे, पार्टी के काम काज पर उठे उन सवालों का इमानदारी से जवाब देंगे जो आपके पुराने सहयोगियों ने उठाए थे. दिल्ली की जनता ने जब आम आदमी पार्टी को वोट दिया था तो उस समय वो पार्टी नही अरविंद केजरीवाल को जिता रही थी. उस अरविंद केजरीवाल को जो भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन के नायक थे. जिसने दिल्ली के लोगों को उम्मीद दी थी कि उनकी पार्टी दूसरी पार्टियों से अलग है. दिल्ली की जनता अपने लिए एक नेता चुन रही थी औऱ अब इस चुनाव में वो अपने उसी नेता को आत्मावलोकन का सीधा संदेश दे रही है.


2015 में जनता ने दिल्ली की कमान अरविंद केजरीवाल के हाथों में सौंपी. वो अरविंद केजरीवाल को फैसले लेते, दिल्ली को संवारते, संभालते उनकी समस्याओं को सुलझाते देखना चाहती थी. लेकिन उन्होंने एक मंत्रालय तक की जिम्मेदारी नहीं ली. उन्होंने सारे काम का जिम्मा मनीष सिसोदिया को सौंप अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली औऱ खुद देश विजय करने निकल पड़े. आज मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से ज्यादा उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया दिल्ली में सक्रिय नज़र आते हैं. लेकिन उससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या अरविंद केजरीवाल इन सवालों के जवाब देंगे, ढूंढ़ेंगे या एक बार फिर इन सवालों को पार्टी में तारीफों के कार्पेट के नीचे दबा दिया जाएगा. ईवीएम पर सवाल उठाकर पार्टी ने साफ कर दिया है कि इन बुनियादी सवालों के जवाब वो अपने अंदर से लेने की कोशिश तक करते नहीं दिखना चाहती.


जनादेश का माखौल क्यों?


एमसीडी मे हार के बाद दो तस्वीरें देखी हमने. एक जब आम आदमी पार्टी के नेता सामने आए औऱ दूसरे जब स्वराज पार्टी के योगेन्द्र यादव सामने आए. वहीं योगेन्द्र यादव जो आंदोलन में अरविंद केजरीवाल के साथी थे और बाद में जिन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया. आप के नेता ईवीएम पर ठीकरा फोड़ जनादेश का माखौल उड़ाते दिखे तो वहीं योगेन्द्र यादव ने लोकतंत्र का मान रखते हुए जनादेश को सम्मान दिया. सवाल ये उठ रहा है कि लोकतंत्र में जीत को अपनी कामयाबी औऱ हार की वजह ईवीएम को मानना जनादेश का माखौल नहीं है. कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अपने वोटर से ही इतने दूर हो गए हैं कि उनकी नब्ज टटोल नही पा रहे. क्या उन्हें सिर्फ उतना ही दिख रहा है जितना उन्हें उनकी पार्टी के कुछ चुनींदा लोग दिखा रहे हैं. क्या आम आदमी के साथ उनका संवाद इतना कम हो गया है.


सरकार के शुरूआती दिनों से ही पार्टी औऱ सरकार के कामकाज को लेकर पार्टी के अंदर से सवाल उठने शुरू हुए. अरविंद केजरीवाल उन्हीं मुद्दों पर अपने लोगों को बचाते नज़र आए जिनके खिलाफ आवाज उठाकर उन्होंने दिल्ली का दिल जीता था. भ्रष्टाचार के आरोप, अपनों को मलाई बांटने, रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाने, फर्जीवाड़ा करने, पार्टी के अंदर चौकड़ी बनाकर काम करने, महिला विरोधी होने से लेकर संदीप कुमार पर लगे यौन शोषण के आरोपों तक आम आदमी पार्टी पर उठने वाले सवालों की लिस्ट लंबी है. पार्टी के अंदर जिन लोगों ने कार्यशैली पर सवाल उठाए उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया गया. खुद अरविंद केजरीवाल को लेकर पार्टी के अंदर से सवाल उठे कि उनतक पहुंचना, बात करना मुश्किल है. बहुमत और सरकार का अहंकार उन लोगों के सर चढ़कर बोलने लगा जिनसे इतने समर्थन के बाद नम्रता की उम्मीद थी. पार्टी बदल रही थी.


जिन मुद्दों से केजरीवाल दूर होते चले गए


अरविंद केजरीवाल के पुराने साथी मयंक गांधी ने उन्हें एक पत्र लिखा है. पार्टी के हाईकमान सिस्टम, पारदर्शिता, सत्ता के विकेन्द्रीकरण समेत उन मुद्दों का जिक्र है जो केजरीवाल के मुद्दे थे और जिनसे वो दूर होते चले गए. उसे पढ़ते हुए योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार समेत उन कई लोगों के बयान याद आते चले गए जो अरविंद केजरीवाल के साथी थे. सबकी एक जैसी शिकायत रही कि पार्टी भटक गयी है, अऱविंद केजरीवाल सिर्फ कुछ लोगों की बात सुनते हैं. जिसने सवाल उठाया उसे बाहर का रास्ता दिखाया जाता रहा, उन्हें हाशिये पर ढकेला जाता रहा...दिल्ली..पंजाब सब जगह यही होता रहा.. तब वो नेता कमजोर नही हो रहे थे दरअसल पार्टी की नींव भी कमजोर हो रही थी. पार्टी का करिश्माई चेहरा एक अवसरवादी नेता का चेहरा बनता जा रहा था. नतीजे सामने हैं.


रणनीति में मात खा गए केजरीवाल


पार्टी के अंदर एक बार फिर सवालों की सुगबुगाहट है. इस बार सवाल सीधे अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व औऱ ऱणनीति पर उठेगा. पार्टी में टूट का खतरा मंडरा रहा है. नेतृत्व औऱ रणनीति की नाकामी के कई सबूत हैं. एमसीडी में बीजेपी की नाकामयाबी को मुद्दा बनाने में नाकाम रहे. राष्ट्रीय नेता बनने की महत्वाकांक्षा में सिर्फ नरेन्द्र मोदी से ही सीधी टक्कर लेने की रणनीति फेल रही. क्योंकि रणनीति के स्तर पर मोदी को प्रचार के केन्द्र में लाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी. एमसीडी की नाकामी पर किसी ने ध्यान नहीं नही दिया और वोटर नरेन्द्र मोदी को जिताने के लिए निकल पड़ा. हर चुनाव में मोदी को सामने लाकर चेहरों की लड़ाई में अरविंद केजरीवाल मात खा गये. दिल्ली में एलजी से जंग और खुद को विक्टिम प्रोजेक्ट करने की उनकी रणनीति भी पूरी तरह नाकामयाब रही. उनके इस रवैये से जनता को ये संदेश गया कि वो समन्वय के साथ शासन नहीं चला सकते. यहां बीजेपी की रणनीति ज्यादा कामयाब रही. वो अरविंद केजरीवाल की छवि एक ऐसे नेता की बनाने में कामयाब रही जो अपनी जिम्मेदारी से भागता है, जो अपनी नाकामी की जिम्मेदारी नहीं लेता, जो अपनी आलोचना सुनना बर्दाश्त नहीं करता. गोवा से लेकर पंजाब औऱ फिर दिल्ली के उपचुनाव औऱ फिर एमसीडी के नतीजे सामने हैं. अरविंद केजरीवाल अब भी जनता की नब्ज टटोलने की बजाय सिर्फ ईवीएम का रोना रोते रहे तो फिर पार्टी को बचाना मुश्किल हो जाएगा.


आम आदमी से अपनी दूरी कम करनी होगी


2013 में भी अरविंद केजरीवाल ने गलती की थी लेकिन तब वो फिर जनता के पास वापस गए. उनसे माफी मांगी, उनसे सीधा संवाद किया औऱ नतीजा 67 सीटों के साथ सामने था. हालांकि तब भावनाओं का उभार था, छवि और तौर तरीकों को लेकर इतने सवाल नहीं थे. दिल्ली की जनता अरविंद केजरीवाल को इन नतीजों से चेतावनी दे रही है उसे समझा रही है कि वो आत्मचिंतन करें, उन ढीले कल पुर्जों को कसे जो पार्टी को कमजोर कर रही है. उन गलतियों को दुरूस्त करें जिनकी वजह से उनकी छवि पर असर पड़ा है. अभी तीन साल का समय बचा हुआ है. अब भी वक्त है कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली की अपनी खिसकती जमीन को मजबूत किले में तब्दील कर सकते हैं. जिन लोगों के हाशिये पर जाने या बाहर होने से पार्टी को नुकसान हुआ उन्हें मनाएं. जो सदस्य या फैसले आम आदमी पार्टी की बुनियादी बातों के उलट है उनसे दूरी बनाएं. राजनीति में महत्वाकांक्षा रखना रणनीति नहीं होती है उसपर अमल का सही समय चुनना रणनीति होती है. लड़ाई में उतरने से पहले अपने किले को अभेद करना होता है. इसके लिए जरूरी है पार्टी औऱ आम आदमी के बीच की दूरी को पाटे क्योंकि ये नतीजे साफ कह रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल के पास पार्टी तो है लेकिन आम आदमी से दूरी बढ़ गयी है.