कबीर सिंह मतलब 172 मिनट की मिसॉजनी. होल्ड इट... सिनेमा में स्त्री विरोधी तेवर कोई नई बात नहीं. वो या तो शोपीस बनती हैं, या पंचिंग बैग. आदमियों की पूर्ति के लिए, आदमियों के सुख के लिए. दर्शक पुरुष है तो उसकी टकटकी लगाकर देखने की ‘चीज़’. जिसे फेमिनिस्ट थ्योरी में मेल गेज कहा गया है, वह सिर्फ पुरुषों के नयन सुख का माध्यम है. कबीर सिंह हर क्षण इसका अहसास कराती रहती है कि स्त्रियां पुरुषों की बपौती हैं- फिल्म का एक डायलॉग कानों में लगातार बजता है- वो मेरी बंदी है.


शाहिद कपूर फिल्म में एक बेचारा जीनियस हैं. दुनिया उन्हें समझती नहीं, वह पगला जाते हैं. लड़की दूर हो जाती है तो सिरफिरे हो जाते हैं. च्च..च्च..च्च.. फिर हर औरत से नाराज हो जाते हैं. औरतों को ‘अनड्रेस’ होने को कहते हैं. अस्पताल में नर्स उनकी दाढ़ी पर कमेंट करती है तो उसे डराने को पैंट को अनजिप करने का नाटक करते हैं. कॉलेज में लड़की को अपनी बंदी कहते रहते हैं. पहली नजर में इश्क करते हैं और लड़की को अपना हक मान बैठते हैं. लड़की चुपचाप उनकी हर बात मानती रहती है. तब तक वह एक गुस्सैल लड़के हैं. लड़की के छोड़कर जाने के बाद उनके सिर पर मानो खून सवार हो जाता है. वह जब-तब अपनी आक्रामकता का प्रदर्शन करते रहते हैं.


त्रासदी यह है कि वह नायक है, खलनायक नहीं. कबीर सिंह उनके हीरोइक होने को सेलिब्रेट करती रहती है. उससे भी त्रासद यह है कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल कर रही है. लोगों को कबीर सिंह में नायक ही दिख रहा है. फिल्म जिस तेलुगू फिल्म अर्जुन रेड्डी की रीमेक है, उसे बेस्ट एक्टर के दो अवार्ड और क्रिटिक्स की तालियां मिल चुकी हैं.


कबीर सिंह दर्शकों का हीरो है. ऐसे हीरो हमारे आस-पास बहुत से हैं. दुनिया ने समझा नहीं तो पियक्कड़ बन जाते हैं. हिंसक होने पर सब कहते हैं- क्या करेगा बेचारा. ऐसा नहीं था, परिस्थितियों ने उसे बुरा बना दिया. करियर नहीं बना पाए, डिप्रेस हो गए. नौकरी में अच्छी कमाई नहीं कर पाए, डिप्रेस होकर अग्रेसिव हो गए. सारे साथी जीवन की दौड़ में आगे निकल गए, अग्रेसिव होकर दारूबाज बन गए. घर वालों ने आपत्ति जताई तो दारूबाज से हिंसक हो गए.


एनसीआरबी के आंकड़े कहते हैं कि महिलाओं के खिलाफ 70 से 85% अपराध शराब की लत के कारण होते हैं. पंजाब और हरियाणा में पीजीआई के साइकाइट्री विभाग के 2016 के सर्वेक्षण में पता चला था कि 63 प्रतिशत से अधिक औरतें, जिनके पति शराब के लती हैं, घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं. कबीर सिंह में हीरोईन को उसकी कोई बात बेजा नहीं लगती.. वह अपने हीरो के माचोइज्म पर गर्व करती है और उससे प्रेम भी, जोकि सीन दर सीन अपने मर्दवादी रवैये की ठसक से भरा रहता है.


सिनेमा में ऐसा दृष्टिकोण कोई नया नहीं है... मर्दवादी सोच पूरी तरह से हावी है..दरअसल फिल्में बनाने वाले अधिकतर मर्द हैं, इसलिए वे सिर्फ अपने लिहाज से ही सिनेमा तैयार करते हैं. यह सिर्फ हिंदुस्तान की हकीकत नहीं- पूरी दुनिया की है. सभी जगह बहुतायत फिल्मकार मर्द हैं- औरतों का रिप्रेजेंटेशन लगभग नदारद है. 2018 में रेशल मॉरिसन को बेस्ट सिनेमैटोग्राफी के लिए अकादमी अवार्ड के लिए नामांकित किया गया. वह 90 सालों में इस कैटेगरी में नामांकित होने वाली पहली महिला थीं. ग्रेटा गरविक बेस्ट डायरेक्टर की कैटेगरी में नामांकित होने वाली पांचवीं महिला थीं.


हॉलिवुड में भी हर 22 मेल डायेक्टर पर फीमेल महिला डायरेक्टर है. अपने देश में ऐसी कोई स्टडी भी नहीं हुई कि महिला बनाम पुरुष फिल्मकारों के बीच तुलना की जा सके. हां, अमेरिका के सेंट डियागो स्टेट यूनिवर्सिटी की सेल्युलाइड स्क्रीनिंग स्टडी बताती है कि 2017 की सिर्फ 1% टॉप फिल्मों में दस या उससे अधिक महिलाओं ने काम किया था. बाकी 70% में दस या उससे अधिक पुरुषों ने काम किया. अगर औरतें, फिल्म क्रू की सदस्य होती हैं, तो बात कुछ और होती है.


भले यह विषयांतर आभासित हो, लेकिन विषय जस का तस है. कबीर सिंह और उसकी जैसी दूसरी फिल्मों में औरतें ऑब्जेक्ट हैं. लेकिन कबीर सिंह जैसी फिल्में औरतों के ऑब्जेक्टिफिकेशन को जायज भी ठहराती हैं. वह ऐसी दुनिया में विचरण करती हैं जहां औरतों के प्रति मर्दों की कोई जवाबदेही नहीं.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)