देश अब पूरी तरह से चुनावी माहौल में तैर रहा है. आगामी लोक सभा चुनाव को देखते हुए हर राजनीतिक दल अब अपनी-अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप दे रहे हैं और पार्टी हितों के हिसाब से उनका ख़ुलासा भी कर रहे हैं. इस बीच तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बयान और रुख़ से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा हो गया है.


दरअसल आगामी आम चुनाव को लेकर ममता बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया है कि पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का कांग्रेस के साथ किसी तरह का गठबंधन नहीं होगा. तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल की सभी 42 लोक सभा सीट पर अकेले चुनाव लड़ेगी. ममता बनर्जी ने एक क़दम और आगे जाते हुए कहा है कि तृणमूल कांग्रेस का कांग्रेस के साथ कोई रिश्ता नहीं है. ममता बनर्जी ने इससे पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पार्टी का कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) या'नी सीपीआई (एम) के साथ किसी तरह का कोई तालमेल हो ही नहीं सकता है.


आम चुनाव, 2024 को लेकर ममता का फ़ैसला


अब कांग्रेस से भी दूरी बनाने का एलान कर ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के लोगों को स्पष्ट संदेश देने का काम किया है. इसके ज़रिये ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को आगामी लोक सभा चुनाव में होने वाले नुक़सान की आशंका से उबारने की कोशिश की है. कांग्रेस से तृणमूल कांग्रेस का रिश्ता होने से आगामी चुनाव में ममता बनर्जी को प्रदेश में नुक़सान हो सकता था. इसका कारण प्रदेश के लोगों में कांग्रेस को लेकर नकारात्मक छवि है.


इसके साथ ही ममता बनर्जी को प्रदेश के मतदाताओं को यह भी संदेश देना था कि उनकी प्राथमिकता पश्चिम बंगाल है, न कि केंद्रीय राजनीति या केंद्र की सत्ता में हिस्सेदार बनना. यही कारण है कि कांग्रेस से दूरी बनाने का एलान करते समय ममता बनर्जी ने साफ तौर से कहा कि देश का क्या होगा, उसके बारे में उन्हें फ़िलहाल किसी तरह की फ़िक्र नहीं है. वो सिर्फ़ पश्चिम बंगाल को लेकर चिंतित हैं और उनकी चुनावी रणनीति में एकमात्र प्राथमिकता यही है.



कांग्रेस से दूरी का फ़ैसला ममता की दूरदर्शिता


केंद्र की राजनीति में बीजेपी लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल करने जा रही है या नहीं, ममता बनर्जी के लिए प्रमुख चिंता यह नहीं है. ममता बनर्जी की चिंता यह है कि 2024 के लोक सभा चुनाव में और उसके बाद 2026 के विधान सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की बादशाहत को बीजेपी से कोई ख़तरा पैदा न हो. इसके लिए ज़रूरी है कि पश्चिम बंगाल के लोगों में तृणमूल कांग्रेस को लेकर किसी तरह की ग़लत-फ़हमी पैदा नहीं हो या बीजेपी को ऐसा करने का कोई मौक़ा न मिल जाए.  करे.


ऐसी ख़बर पहले आई थी कि आगामी लोक सभा चुनाव में  विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के हिस्सेदार के तौर पर ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को 42 में से दो सीट चुनाव लड़ने के लिए देने को तैयार थी. कांग्रेस ना-नुकुर कर रही थी. कांग्रेस गठबंधन के तहत पश्चिम बंगाल में अधिक सीट की माँग पर अड़ी थी. वहीं ममता बनर्जी 2019 के प्रदर्शन को आधार बनाकर बहरामपुर और मालदा दक्षिण लोक सभा सीट कांग्रेस को देने को राज़ी थीं.


राम मंदिर समारोह के बाद नज़रिया बदला


हालाँकि 22 जनवरी को अयोध्या राम मंदिर के उद्घाटन के बाद ममता बनर्जी के रवैये में बदलाव आया. जैसे-जैसे चुनाव की तारीख़ नज़दीक आ रही है, ममता बनर्जी की चिंता पश्चिम बंगाल को लेकर बढ़ रही है. राम मंदिर के उद्घाटन के बाद जिस तरह से देश में ख़ासकर..उत्तर भारत के राज्यों में राजनीतिक माहौल बीजेपी के पक्ष में और मुखर हुआ है, उसके मद्द-ए-नज़र ममता बनर्जी के रुख़ में भी बदलाव हुआ है. ऐसे तो शुरू से ममता बनर्जी सीपीआई (एम) और कांग्रेस से दूरी बनाने को लेकर अडिग रही हैं. हालाँकि 'इंडिया' गठबंधन में शामिल होने के बाद सीपीएम (आई) को लेकर तो उनका रवैया पहले जैसा ही रहा, लेकिन गठबंधन धर्म के नाते कांग्रेस को दो सीट देने का मन बना चुकी थीं.


कांग्रेस से रिश्ता मतलब टीएमसी को नुक़सान


हालाँकि राम मंदिर के उद्घाटन के बाद बने राजनीतिक माहौल से ममता बनर्जी को डर है कि कहीं पश्चिम बंगाल में भी कुछ हद तक वोट का ध्रुवीकरण हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर न हो जाए. अगर ऐसा होता है, तो बीजेपी को इसका लाभ मिल जाएगा और पश्चिम बंगाल में टीएमसी को बड़ा नुक़सान झेलना पड़ सकता है. ऐसे में ममता बनर्जी के लिए प्रदेश के लोगों को यह संदेश देना ज़रूरी था कि उनका फोकस पश्चिम बंगाल की लड़ाई है, न कि कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र की लड़ाई.


पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की स्थिति बेहद दयनीय है. पिछले एक दशक में पश्चिम बंगाल में न सिर्फ़ कांग्रेस का जनाधार ही कम हुआ है, बल्कि कांग्रेस की छवि को लेकर भी प्रदेश के लोगों में दुविधा है. कांग्रेस के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ने का साफ मतलब है कि राज्य के एक बड़े वर्ग में कांग्रेस को लेकर जो नकारात्मक छवि पिछले कुछ सालो में बनी है, उससे तृणमूल कांग्रेस को भी आगामी चुनाव में ख़म्याज़ा भुगतना पड़ सकता है.


पश्चिम बंगाल में ऐसे मतदाताओं की एक बड़ी संख्या है, जो ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ नहीं है, लेकिन वे कांग्रेस को वोट देने के लिए कतई तैयार नहीं हैं. अगर ममता बनर्जी कांग्रेस से दूरी नहीं बनातीं, तो ऐसे मतदाताओं में से एक बड़े तबक़े का समर्थन बीजेपी को मिल सकता था. इससे स्पष्ट तौर से पूरे राज्य में तृणमूल कांग्रेस को नुक़सान की संभावना बन सकती थी.


बीजेपी को पश्चिम बंगाल में न मिला जाए बढ़त!


ऐसे भी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ बीजेपी बड़ी चुनौती बन चुकी है. बीजेपी ने तो 2019 के लोक सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में मुक़ाबला एक तरह से बराबरी का बना दिया था. उस चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी को महज़ 22 सीट जीत मिली थी, जबकि बीजेपी का आँकड़ा 18 पर जाकर रुका था. इसके विपरीत 2014 में ममता बनर्जी की पार्टी को 34 सीट पर जीत मिली थी और बीजेपी का आँकड़ा महज़ दो था.


इस चुनाव के बाद विधान सभा चुनाव, 2021 में  बड़ी मुश्किल से ममता बनर्जी को बीजेपी के प्रभाव पर अंकुश लगाने में कामयाबी मिली थी. तब सभी आकलन को ग़लत साबित करते हुए तृणमूल कांग्रेस ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 215 सीट पर जीत हासिल कर लिया था और बीजेपी की गाड़ी 77 सीट पर रुक गयी थी. हालाँकि बीजेपी के लिए यह प्रदर्शन भा क़ाबिल-ए-तारीफ़ ही था क्योंकि बीजेपी 2016 के मुक़ाबले 2021 में सीधे तीन से 77 विधान सभा सीट पर पहुँच गयी थी.


पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की छवि से नुक़सान


लोक सभा चुनाव, 2019 और विधान सभा चुनाव, 2021 में  प्रदर्शन और पिछले दो साल से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से दिन-रात की मेहनत को देखते हुए ममता बनर्जी के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस से रिश्ते का असर उनकी पार्टी पर न पड़े. राम मंदिर के उद्घाटन के बाद ही ममता बनर्जी ने मन बना लिया था कि कांग्रेस से कोई संबंध नहीं रखना है.


हालाँकि बीजेपी से ख़तरा के बजाए ममता बनर्जी ने इसके लिए बहाना राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के बारे में जानकारी नहीं देने को बनाया. इससे भी ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में उन मतदाताओं को एक संदेश देने की कोशिश की है, जो बीजेपी के कोर वोटर तो नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस से नफ़रत की वज्ह से बीजेपी का समर्थन कर सकते हैं.


कांग्रेस के साथ से टीएमसी को लाभ नहीं


ऐसे भी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के लिए बहुत कुछ शेष नहीं बचा है. 2019 में भले ही कांग्रेस बहरामपुर और मालदा दक्षिण लोक सभा सीट जीतने में सफल रही थी, लेकिन उसके बाद से प्रदेश में उसकी स्थिति सुधरी नहीं है, बल्कि और बिगड़ी ही है. हमने 2021 के विधान सभा चुनाव में देखा था कि कैसे पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का सफाया हो गया था.


2021 में सीपीआई (एम) के साथ गठबंधन में 91 सीट पर विधान सभा चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था. कांग्रेस को वोट शेयर भी महज़ 2.93% था. कांग्रेस के वोट शेयर में 9 फ़ीसदी से अधिक की गिरावट हुई थी. उसी तरह से सीपीआई (एम) भी 138 सीट पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन खाता तक नहीं खुला था. सीपीआई (एम) के वोट शेयर में 15 फ़ीसदी से ज़ियादा की गिरावट हुई थी.


सीपीआई (एम) और कांग्रेस विरोध ही है आधार


कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) और कांग्रेस दोनों के लिए ही कुछ ख़ास बचा नहीं है. ऐसे में ममता बनर्जी का इन दोनों से ही दूरी बनाना कोई रहस्यात्मक चीज़ नहीं है. बीजेपी तो हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल की राजनीति में उभरी है, लेकिन वास्तविकता यही है कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की राजनीति के उत्कर्ष का मुख्य आधार सीपीआई (एम) और कांग्रेस का विरोध ही रहा है. इस नज़रिये से इन दोनों ही दलों के साथ किसी भी तरह की नज़दीकी से तृणमूल कांग्रेस की सेहत पर नकारात्मक असर ही पड़ेगा और ममता बनर्जी का रुख़ भी यही इशारा करता है.


कहा जा रहा है कि कांग्रेस बहरामपुर और मालदा के साथ ही मुर्शिदाबाद सीट पर भी दावेदारी कर रही थी. मुर्शिदाबाद कांग्रेस का पुराना गढ़ रहा है और 2019 में यहाँ कांग्रेस दूसरे पायदान पर रही थी. आम चुनाव, 2019 में मालदा दक्षिण लोक सभा सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार अबु हसीम खान चौधरी को महज़ 8 हज़ार के आस-पास वोट से जीत मिली थी. वहीं मुर्शिदाबाद सीट पर भले ही कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी, लेकिन इस सीट पर टीएमसी उम्मीदवार अबु ताहिर खान की जीत का मार्जिन सवा दो लाख वोट से अधिक था. इससे समझा जा सकता है कि मुर्शिदाबाद सीट पर कांग्रेस की दावेदारी का कोई ख़ास मायने नहीं रह जाता है.


जीतने की संभावना कांग्रेस के पक्ष में नहीं


ऐसे भी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की जो स्थिति है, उसको देखते हुए विनिंग पॉसिबिलिटी या जीतने की संभावना कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में बहुत ही क्षीण है और टीएमसी उम्मीदवार के पक्ष में सर्वाधिक है. इस स्थिति में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को अधिक सीट देने का मतलब ही है...बीजेपी के जीतने की संभावना को बढ़ा देना. ममता बनर्जी ऐसा कतई नहीं चाहेंगी. फ़िलहाल पश्चिम बंगाल की राजनीतिक वास्तविकता है कि जितनी अधिक सीट पर तृणमूल कांग्रेस लड़ेगी, बीजेपी के लिए जीत उतनी ही मुश्किल होगी.


इसके साथ ही ममता बनर्जी चाहती हैं कि प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक बिल्कुल नहीं बिखरे. बीजेपी के ख़िलाफ़ रहने वाला यह वोट बैंक शत-प्रतिशत टीएमसी के खाते में जाए, इसके लिए भी ममता बनर्जी के लिए कांग्रेस से दूरी ज़रूरी हो गया था. ममता बनर्जी इन मतदाताओं को संदेश देना चाहती हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी को हराने के लिए वो कुछ भी कर सकती हैं और तृणमूल कांग्रेस में ही वो दमख़म है कि जिससे बीजेपी उम्मीदवार की हार सुनिश्चित हो सके.


'इंडिया' गठबंधन की प्रासंगिकता ही दाँव पर


ममता बनर्जी की कांग्रेस से दूरी का एक और असर हुआ है. नरेंद्र मोदी सरकार को लगातार तीसरी बार सत्ता में आने से रोकने के लिए विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' अस्तित्व में आया. हालाँकि अलग-अलग राज्यों में सीट बँटवारे पर सहयोगियों में जारी खींचतान और उठा-पटक से गठबंधन की मज़बूती को लेकर सवाल पहले से ही उठ रहे थे. अब ममता बनर्जी के रुख़ से 'इंडिया' गठबंधन की प्रासंगिकता ही दाँव पर है. चुनाव में अभी दो से तीन महीने का वक़्त बचा है, लेकिन उससे पहले ही विपक्षी गठबंधन इंडिया के हाथ से सबसे महत्वपूर्ण राज्य या'नी पश्चिम बंगाल निकल गया है.


विपक्षी गठबंधन के लिए पश्चिम बंगाल महत्वपूर्ण


विपक्षी गठबंधन में शामिल दलों की ताक़त और वास्तविक राजनीतिक हक़ीक़त को देखते हुए आगामी लोक सभा चुनाव में तीन राज्य बेहद महत्वपूर्ण हैं. पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल..यह तीन राज्य ऐसे हैं, जहाँ से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के खाते में सबसे अधिक सीट आने की संभावना थी.


उसमें भी पश्चिम बंगाल की अहमियत इसलिए अधिक है कि बाक़ी दोनों राज्यों तमिलनाडु और केरल से फ़िलहाल बीजेपी को कुछ ख़ास मिलने वाला नहीं है. यह बीजेपी को भी पता है और विपक्ष के तमाम दल भी इस तथ्य से ब-ख़ूबी वाक़िफ़ हैं. तमिलनाडु और केरल में  2019 में बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा था. अभी भी बीजेपी उस स्थिति में नहीं है कि इन दोनों ही राज्यों में कुछ ख़ास हासिल कर पाए. तमिलनाडु और केरल ऐसे राज्य हैं, जहाँ बीजेपी को नुक़सान का कोई ख़तरा नहीं है क्योंकि पहले से कुछ मिला ही नहीं है, जिसे गंवाने का डर हो.


इस कसौटी पर पश्चिम बंगाल ही एकमात्र राज्य है, जहाँ से बीजेपी को नुक़सान के साथ अच्छी-ख़ासी सीट विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के साथ जुड़ सकती थी. पश्चिम बंगाल में बीजेपी को नुक़सान की संभावना ख़त्म नहीं हुई है, लेकिन चुनाव से पहले ही 'इंडिया' गठबंधन को सीटों का भारी नुक़सान हो चुका है.


ममता से रुख़ से 'इंडिया' गठबंधन पर असर


ऐसे भी ममता बनर्जी के कांग्रेस से तालमेल के इंकार के बाद पश्चिम बंगाल को छोड़कर ऐसा कोई राज्य नहीं बचा है, जहाँ बीजेपी का जनाधार हो और उसे विपक्षी गठबंधन से कोई बड़ा ख़तरा पैदा हो सके. राम मंदिर के उद्घाटन और विपक्षी गठबंधन से मायावती की दूरी ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल के गठजोड़ की धार को वैसे ही कम कर दिया है. उसी तरह से महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ एकनाथ शिंदे और अजित पवार के होने से 'इंडिया' गठबंधन कोई बड़ा धमाका कर पाएगा, इसकी संभावना बेहद कम है.


राज्यों में राम मंदिर के बाद का राजनीतिक माहौल


उसी तरह से उत्तर भारत के जिन राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुक़ाबला होना है और जो शत-प्रतिशत सीट जीतने वाले राज्यों के तौर पर बीजेपी के लक्ष्य में शामिल हैं, राम मंदिर के उद्घाटन के बाद उन राज्यों में राजनीतिक माहौल पूरी तरह से बदल चुका है. इनमें गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य आते हैं. ये तमाम राज्य पहले से ही बीजेपी की बड़ी ताक़त वाले राज्य माने जाते हैं. अब राम मंदिर के कार्यक्रम के बाद इन राज्यों में बीजेपी की राह जहाँ सुगम होती दिख रही है, वहीं कांग्रेस की राह और भी काँटेदार हो गयी है. कर्नाटक में भी बीजेपी और एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडी (एस) के एक साथ आ जाने से कांग्रेस की उम्मीदों को झटका लगा है.


बिहार की राजनीतिक हवा में भी तूफ़ान


बिहार की राजनीतिक हवा भी 22 जनवरी के बाद तेज़ी से बदलती दिख रही है. सीट बँटवारे पर आरजेडी के साथ रस्साकशी के बीच नीतीश के एक बार फिर से पाला बदलने की अटकलें तेज़ है. नीतीश के साथ ही बीजेपी नेताओं की ओर से भी आ रहे बयानों से लगने लगा है कि बिहार का राजनीतिक समीकरण जल्द ही बदलने वाला है. उसी तरह से पंजाब में भी मुख्यमंत्री भगवंत मान ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रदेश की सभी 13 सीटों पर आम आदमी पार्टी चुनाव लड़ेगी और किसी भी सीट पर कांग्रेस के साथ तालमेल नहीं होगा.


पहले से ही विपक्षी गठबंधन की धार कमज़ोर


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और केंद्रीय राजनीति के लिहाज़ से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' पहले से ही कमज़ोर थी. उत्तर प्रदेश से मायावती, ओडिशा से नवीन पटनायक, तेलंगाना से के. चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश से वाईएस जगन मोहन रेड्डी ने शुरू से ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से दूरी बनाकर रखी. ये चार नेता ऐसे हैं, जो अगर विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का हिस्सा बनते तो सही मायने में आम चुनाव, 2024 में बीजेपी के सामने एक मज़बूत चुनौती होती. ऐसा होने से विपक्षी गठबंधन की सीटों की संख्या भी बढ़ती और बीजेपी के लिए अपनी चुनावी रणनीतियों को अंजाम देना उस तरह से आसान नहीं रह जाता है, जैसा फ़िलहाल है.


विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की सार्थकता पर सवाल


अब ममता बनर्जी के कांग्रेस या सरल शब्दों में कहें तो विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से दूरी ने बीजेपी के लिए 2024 की राह को और आसान बना दिया है. इसके साथ ही ममता बनर्जी के रुख़ ने विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की सार्थकता और साख पर चुनाव से पहले ही बड़ा सवाल पैदा कर दिया है. ममता बनर्जी ने विपक्षी गठबंधन के मुक़ाबले तृणमूल कांग्रेस के हितों का ख़याल रखते हुए ही चुनाव से पूर्व कांग्रेस से कोई रिश्ता नहीं रखने का फ़ैसला किया है. इससे भले ही पश्चिम बंगाल में बीजेपी की राह मुश्किल हो जाएगी, लेकिन देशव्यापी स्तर पर बीजेपी के लिए एक तरह से फ़ाइदा ही है. ममता बनर्जी के अलग होने के बाद विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में चुनाव तक एकजुटता बरक़रार रहने की संभावना भी एक तरह से ख़त्म हो गयी है.


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