उद्धव ठाकरे के हाथ से शिव सेना का नाम और पार्टी का चुनाव चिन्ह छिन जाने के बाद इस वक्त ये सवाल उठ रहा है कि क्या महाराष्ट्र में उनकी राजनीति यहीं खत्म हो जाएगी? क्या उद्धव ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ जाकर और महाविकास अघाड़ी सरकार बनाकर शिवसेना के हिन्दुत्व के एजेंडा को कमजोर किया है? ऐसे कई सवाल हैं जो इस वक्त लोगों के मन में तैर रहे हैं. एकनाथ शिंदे के बागी तेवर होने और उसके बाद पार्टी तोड़कर बीजेपी के सहारे महाराष्ट्र की सत्ता में आने के बाद जरूर उद्धव ठाकरे के कैडर निराश और हताश हैं. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उद्धव काफी कमजोर हो गए हों. दरअसल, महाराष्ट्र की राजनीति कुछ ऐसी है कि बाला साहेब के जाने के बाद राज ठाकरे भी अपने आपको उनके वारिस के तौर पर खुद को प्रोजेक्ट करने की कोशिश की. लेकिन वे पूरी तरह से नाकाम रहे. कई शिवसेना के बड़े नेता, जिन्होंने पार्टी छोड़ी, वे महाराष्ट्र की राजनीति में बहुत कुछ बड़ा नहीं कर पाए. जबकि उद्धव को महाराष्ट्र की जनता ने अपने सिर-आंखों पर उठाया.


इसलिए, मैं महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले कुछ दिनों से ये देख पा रहा हूं कि वैसे जिलों में जहां पर शिवसेना का कोई सैनिक नहीं था, उन जिलों में भी लोगों की आम बोल चाल में उद्धव ठाकरे को लेकर सहानुभूति है. इससे यह लगता है कि कहीं न कहीं वहां तक शिवसेना की पहुचं हो रही है. जितना उद्धव को साइडलाइन करेंगे उतना ही वे ऊपर उठते जाएंगे. जितना उद्धव को नाकारा जाएगा उतना ही उद्धव के कैडर में भी उत्साह कम होता जाएगा लेकिन जब-जब उद्धव पर हमाला होता है कैडर फिर इकट्ठा होता है. 


उद्धव को महाविकास अघाड़ी के साथ चुनाव लड़ना मजबूरी


महाराष्ट्र की राजनीति बड़ी बटी हुई है. महाराष्ट्र अपने आप में एक संयुक्त महाराष्ट्र है. मुंबई प्रांत हुआ करता था जिससे मुंबई व पश्चिम एरिया में पूना हुआ करता था वो महाराष्ट्र से जुड़ा. निजाम से मराठवाड़ा जुड़ा, विदर्भ और खांदेड़ सीपी बैराज का हिस्सा हुआ करता था वो जुड़ा..तो राजनीति भी वैसी ही बटी हुई है. पश्चिम महाराष्ट्र में कोल्हापुर, सतारा सांगली तक एनसीपी का जोर है. मुंबई में शिवसेना अपने आप को किंग समझती है. मराठवाड़ा में बीजेपी मजबूत है और विदर्भ में कांग्रेस है. ये कुल मिलाजुला कर बंटा हुआ है. 


लेकिन कांग्रेस और एनसीपी साथ में लड़ते हैं और शिवसेना बीजेपी साथ में लड़ती थी तो सीटों के बंटवारा में दो चार सीटें इधर-उधर हो जाती थी. लेकिन महाराष्ट्र में हर जगह पर शरद पवार सबसे बड़े नेता माने जाते हैं. लेकिन उनकी पार्टी ने 65 सीटों से ज्यादा सीटें अबतक विधानसभा में ली नहीं क्योंकि उनका वर्चस्व उन्हीं एरिया में है जहां से वो वोट लाते हैं.


उद्धव अब बीजेपी के साथ गए तो कैडर साथ नहीं देगा 


सिंबल चले जाने के बाद अगर उद्धव बीजेपी के साथ जाते हैं तो कैडर उनका साथ नहीं देगा. अब ये उद्धव की मजबूरी हो गई है कि वे महाविकास अघाड़ी के साथ चुनाव लड़ें बीडीपी जैसी पार्टी जो आतंकवाद का समर्थन करती थी उसके साथ अगर बीजेपी सरकार बना सकती है तो अपना हिंदुत्व को बचाते हुए तो मुझे लगता है कि वो लिवरेज जनता उद्धव को भी देगी. वो भी कांग्रेस और एनसीपी के साथ जाकर अपना हिंदुत्व बचा सकती है. एकनाथ शिंदे राज ठाकरे-बाल ठाकरे की लिगेसी नहीं ले जा पाए. बाल ठाकरे का प्रोडक्ट था.


बाल ठकारे ने राज ठाकरे को अपने हाथों से बनाया था. वो राज ठाकरे उनकी लिगेसी लेकर नहीं जा पाए..तो एकनाथ शिंदे कैसे लेकर जा पाएंगे. देखिये, मुझे लगता है कि अगले विधानसभा के चुनाव में एकनाथ शिंदे इतिहास हो जाएंगे. अभी जिन 41 लोगों के साथ में लेकर वो गए हैं उनमें से 5 से 6 लोग चुनाव जितने के काबिल हैं बाकी सब कैडर के भरोसे हैं. देखिये मुझे लगता है कि अगर उद्धव नई पार्टी बनाकर नए सिंबल पर चुनाव लड़ते हैं तो उनको गेन हो रहा है कोई नुकसान नहीं होने जा रहा है.


गुजरात-महाराष्ट्र के बीच अदावत पुरानी 


मुंबई महाराष्ट्र में रहे या मुंबई गुजरात में जाए इसके लिए भयानक संघर्ष हुआ. 107 लोग शहीद हुए. तब जाकर मुंबई महाराष्ट्र के हिस्से में आया. महाराष्ट्र और गुजरात के बीच बहुत पुरानी अदावत है. बीजेपी का केन्द्रीय नेतृत्व गुजरात से आता है. महाराष्ट्र के लोगों के मन में ये फीलिंग है कि इसलिए हमारे प्रोजेक्ट्स गुजरात जा रहे हैं. हमारे मुंबई के कई ऑफिस गुजरात शिफ्ट हो रहे हैं. इसलिए वहां पर लोग आंदोलित हैं.


जो एकनाथ शिंदे हिन्दुत्व के नाम पर अलग हो गए वो इसी सरकार में ढाई साल तक सत्ता भोग रहे थे. उस वक्त उनका हिन्दुत्व कहां गया था? जब शिंदे महाविकास अघाड़ी सरकार में थे, उस वक्त तो उन्होंने ये एक बार भी नहीं कहा कि ये हिन्दुत्व की लड़ाई है और वे सरकार में नहीं आना चाहते हैं. हम सरकार नहीं बनाना चाहते. तो एकनाथ शिंद मुख्यमंत्री पद के लिए गए हैं. हिन्दुत्व की लड़ाई ये सब बोलने की बात है. महाराष्ट्र में हिन्दुत्व के नाम पर वोट पड़ रहे होते तो अभी विधान परिषद के चुनाव हुए और उसमें बीजेपी और एकनाथ शिंदे गुट का सूपड़ा साफ हुआ है.


अभी उप-चुनाव हुआ, जिसमे वॉकओवर कर दिया, अभी दो उपचुनाव पुणे में हैं, इसके क्या नतीजे आते हैं ये बताएँगे कि असली शिवेसना कौन है. चुनाव चिन्ह तो जाते रहते हैं. कांग्रेस के चुनाव चिन्ह तो दो-दो बार गए. कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैल की जोड़ी थी वो चला गया, गाय-बछड़ा था वो चला गया. चुनाव आयोग ने संगठन नहीं देखा, उसने विधानसभा सदस्य कितने हैं और उनको मिला हुआ मत प्रतिशत कितने हैं, ये देखा है और इस पर ही चुनाव आयोग ने ये फैसला किया है. 


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल अशोक वानखेड़े से बातचीत पर आधारित है.)