औरत अपना आप बचाए तब भी मुजरिम होती है,
औरत अपना आप गंवाए तब भी मुजरिम होती है।


महिलाओं की दोधारी ज़िंदगी का ये सच नीलमा सरवर ने अपनी कलम से पिरोया है। दरअसल, ये समाज पर कटाक्ष भी है क्योंकि औरतों को लेकर फैसले करते समाज की सख्ती किस तरह उन्हें पीछे हटने पर मजबूर करती है। इसे महसूस करना हो तो लखनऊ प्रशासन के उस फैसले पर गौर करना होगा। जिसमें वो औरतों को सलीकेदार कपड़े पहनने का फरमान सुनाता है। खास कर उन ठिकानों पर जो लखनऊ की पहचान से जुड़े हैं, जैसे इमामबाड़ा, छोटा इमामबड़ा वगैरह।


हद तो ये है कि जयपुर में मोटिवेशनल स्पीकर स्वामी ज्ञान वत्सल ने महिलाओं के आगे बैठने मात्र से स्पीच देने की बजाय जाने का फैसला कर लिया और इसी सख्ती का असर सीधे न होकर जब दिल के कोने में घर कर जाता है तो फिल्म अभिनेत्री जायरा वसीम को करियर छोड़ कर वापसी करने का फैसला करना पड़ता है। क्योंकि जायरा जैसे लोगों को पता है कि अगर ज़ाती मामलों में सियासत जब घुसती है तो ताने कान चीरने वाले होते हैं।


ऐसा ही समाजवादी पार्टी के सांसदों का हाल है। मुरादाबाद और रामपुर के दोनों सपा सांसदों ने जया प्रदा को ताने नहीं बल्कि सीधे-सीधे अपशब्द कहे हैं। ये मामले महिलाओं को लेकर आजादख्याली के दावों की हवा निकालते हैं। हमें अपने अंदर झांकने को मजबूर करते हैं। साथ ही मजहब के नाम पर उन्हें घेरने वालों को बेनकाब करते हैं।


समाजवादी पार्टी के सांसद एसटी हसन ने पूर्व अदाकारा और रामपुर से आजम खान को चुनौती देने वाली जया प्रदा के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया, उन्हें सार्वजनिक रूप से बयां नहीं किया जा सकता। एसटी हसन पहले शख्स नहीं हैं। जिन आजम खां को वो जीत की तहेदिल से बधाई दे रहे हैं, उनके जया प्रदा पर विवादित बोल तो हमेशा सुर्खियों में रहे हैं और मुरादाबाद के एक कार्यक्रम में उनकी तमीज़-तहज़ीब भी एकबार फिर सामने आई। जब महिलाओं को लेकर जनता के नुमाइंदों की ऐसी सोच है तो फिर कुछ धर्मगुरुओं से क्या उम्मीद रखी जाए।


बंदिशें और पाबंदियों की लकीरें कभी भी कोई भी खींच सकता है...ताजा फरमान इमामबाड़ा को लेकर सुनाया गया है...जहां महिलाओं के स्कर्ट पहन कर जाने पर रोक लगा दी गई है। ये फरमान हुसैनाबाद ट्रस्ट के नामित अध्यक्ष जो कि जिलाधिकारी हैं...उनकी तरफ से जारी किया गया है। इसमें भुल भुलैया यानी बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा समेत हुसैनाबाद ट्रस्ट से जुड़े सभी स्मारकों में शालीन कपड़ों को पहन कर ही प्रवेश देने की बात कही गई है । साथ ही इन ठिकानों पर फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी पर भी रोक लगा दी गई है। प्रशासन भले ही खुल कर न कहे पर उसे किसके कपड़ों पर आपत्ति है लेकिन ये समझना मुश्किल नहीं है।


ऐसा लगता है कि महिलाओं के आगे बढ़ने की राह में मजहब एक तरह से रोड़ा बन रहा है। इसकी सबसे हैरान करने वाली औऱ ताजी मिसाल है मशहूर एक्ट्रेस और दंगल गर्ल के नाम से जानी जाने वाली जायरा वसी। लगता है कि उसका पूरा करियर ऐसी कट्टरपंथी सोच की भेंट चढ़ गया।


यकीं नहीं किया जा सकता कि जायरा का ये फैसला खुद का है और खुशी से लिया गया है, बल्कि लगता है कि इसके पीछे कट्टरपंथियों का दबाव और वो खौफ है, जिसका जिक्र जायरा नहीं कर सकीं। और मुस्लिम धर्मगुरु एक उभरती हुई कलाकार के सपनों को चकनाचूर कर फैसला मर्जी से लिया बता रहे हैं। बेटियों और महिलाओं को लेकर ऐसी सोच किसी एक मजहब तक महफूज़ नहीं है। ऐसी दकियानूसी सोच का दायरा 21वीं सदी के भारत में भी बहुत बड़ा है। जयपुर में डॉक्टरों के बीच मोटिवेशनल स्पीच देने पहुंचे धर्मगुरू स्वामी ज्ञान वत्सल ने ऐन मौके पर महिलाओं को आगे की कतार में बैठा देख अपनी स्पीच देने से इनकार कर दिया।


दरअसल, यहां IMA और अखिल राजस्थान सेवारत चिकित्सक संघ की ओर से राजमेडिकॉन कांफ्रेंस हुई। यहां स्वामी ज्ञान वत्सल को स्पीच देनी थी। स्वामी ज्ञानवत्सल बिना स्पीच दिए ये कार्यक्रम छोड़कर चले गए। उन्होंने अनाउंस कराया था कि पहली तीन कतारों में महिलाएं नहीं बैठेंगी। ऐसा हुआ नहीं लिहाजा कार्यक्रम छोड़ने का फैसला किया। तो कभी मजहब के नाम पर..कभी जाति के नाम पर तो कभी प्रथा के नाम पर लगता है कि ये महिलाओं पर पाबंदियां बरकरार रखना चाहता है। तभी तो कभी जायरा तो कभी जया तो कभी गुमनाम चेहरे निशाना बनते हैं।


आज भले बेटियां और महिलाएं हर तरह की बेड़ियां तोडकर आसमान की बुलंदियां छू रही हैं, लेकिन समाज का एक तबका आज भी उनकी तरक्की को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। ऐसे लोग कभी मजहब तो कभी रीति-रिवाज के नाम पर उन्हें रोकने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगों में जब राजनीतिक हस्तियां भी शामिल होती हैं तो शब्दों की मर्यादा तार-तार होने लगती है। जरूरत है राजनीति का स्तर सुधारने और धर्मगुरुओं की सोच को उदार बनाने की।