तमाम कोशिशों के बावजूद उस पुरानी पीढ़ी के महज़ दो -तीन बुजुर्गों को ही तलाश पाया,जिनकी उम्र तकरीबन 87 से 91 बरस के बीच होगी लेकिन उन्होंने अपने पूरे  होशोहवास में न सिर्फ देश के बंटवारे को देखा, बल्कि इंसान के हैवान बन जाने वाले उस ख़ौफ़ज़दा माहौल में अपने माँ-बाप के साथ लाहौर-रावलपिंडी के गांवों से निकलकर दिल्ली आने तक के सफर को और उस मंज़र को भी देखा-झेला है.


वे ये भी जानते हैं कि विभाजन होने से पहले और उसके  बाद देश के धार्मिक स्थलों का क्या हाल था और कहां से हर सुबह लाउड स्पीकर से आने वाली आवाज़ उन्हें कैसे नींद से एक झटके में उठा देती थी.उन्हें जब बताया गया कि अब देश में कुछ नेता मस्जिदों से लाउड स्पीकर हटवाने की जिद पर अड़े हुए हैं,तो अव्वल तो उन्हें इस पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन फिर साथ ही ये भी बोल पड़े कि "क्या इनकी मत्त मारी गई है,यानी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है?" अलबत्ता मेरे पास उनके इस सवाल का कोई माकूल जवाब नहीं था,लिहाज़ा उन्हें दूसरी बातों की तरफ उलझाने की कोशिश की.लेकिन कहते हैं कि  उम्र के साथ आये हर खट्टे-मीठे अनुभव को भोगने वाले इंसान को दुनिया का कोई भी ज्ञान कभी मात नहीं दे सकता.ठीक वैसा ही हुआ.


उनके मुताबिक हमारे देश का जब बंटवारा नहीं हुआ था,उससे सालों पहले से ही हर अल सुबह मंदिर में लगे स्पीकर से आने वाले भजनों की स्वर लहरियां,मस्जिदों से निकलने वाली अज़ान की आवाज़ और गुरुद्वारे में हो रहे कीर्तन के शबद की मिठास पूरे शहर को ये अहसास करा देती थी कि सवेरा हो चुका है,लिहाज़ा आप भी अपना बिस्तर छोड़ दीजिये.तब मोटे तौर पर आज के ऐसे बुजुर्गों की उम्र 12 से 16 साल के बीच ही रही होगी.


यानी,धार्मिक स्थलों पर लगे ये लाउड स्पीकर पिछले 75 से भी कई ज्यादा सालों से अपने धर्म-मज़हब का प्रचार करने के साथ ही लोगों को सुबह जल्दी उठाने का नेक काम भी करते आ रहे हैं.लेकिन अचानक ये क्या हुआ कि इस लाउड स्पीकर को किसी खास समुदाय से जोड़ते हुए महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने ये ऐलान करते हुए महाराष्ट्र सरकार को धमकी दे डाली कि सभी मस्जिदों से लाउड स्पीकर हटा दिये जायें? देश में राजनीति करने का हर नागरिक को लोकतांत्रिक अधिकार मिला हुआ है और इसमें कानून कहीं भी आड़े नहीं आता.कानून का रोल तब शुरु होता है,जब कोई भी नेता अपनी मनमानी को पूरा करने के लिए उसे सेलेक्टिव तरीके से लागू करने की शुरुआत करता है या फिर उसके जरिये समाज के दो वर्गों में नफ़रत और हिंसा फैलाने को बढ़ावा देता है.


सब जानते हैं कि राज ठाकरे अपने विवादास्पद बयानों के कारण अक्सर मीडिया की सुर्खियों में रहते हैं.लेकिन दुर्भाग्य से उनके इस भड़काऊ बयान को महाराष्ट्र से बाहर भी बेहद तेजी से लपक लिया गया.आने वाले दिनों में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी और देश की बहुसंख्यक अमन पसंद जनता को किस तरह के माहौल में अपनी जिंदगी जीने की तरफ धकेला जा रहा है,ये कोई भी नहीं जानता.


सवाल ये है कि सुबह पांच बजे किसी मस्जिद के लाउड स्पीकर के जरिये आने वाली अज़ान की आवाज़ अगर मेरी नींद में खलल डालती है,तो फिर ठीक उसी वक्त पर किसी मंदिर से आने वाले भजन और गुरुद्वारे से आ रही गुरबाणी के शबद की वही आवाज़ मेरी नींद में खलल क्यों नही डाल पाती? एक ही वक़्त पर तीन तरह की आवाजें मेरे कानों  में गूंजती हैं लेकिन उनमें से मुझे एक नापसंद है,लिहाज़ा उसे बंद करने का फरमान मैं सुना देता हूँ,जबकि मैं तो  किसी संवैधानिक पद पर भी नहीं बैठा हूं. इसलिये तय आप ही कीजिये कि इस देश में कानून का राज है या फिर इसे 'जंगल राज' बनाने की तरफ ले जाने की ये विध्वंसक कवायद हो रही है?


अब जरा ये भी जान लीजिए कि देश में लाउड स्पीकर के इस्तेमाल को लेकर क्या कानून है और अगर उस पर कड़ाई से पालन नहीं होता, तो उसके लिए किसी भी जिले का प्रशासन जिम्मेदार है या फिर वहां के धार्मिक स्थल? लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को लेकर साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि किसी भी सार्वजनिक स्थल पर रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक शोर करने वाले तमाम उपकरणों का प्रयोग गैरकानूनी माना जाएगा. इस आदेश के तहत लाउडस्पीकर से लेकर तेज आवाज वाले म्यूजिक बजाना, पटाखे चलाने से लेकर तेज हॉर्न बजाने पर भी रोक लगा दी गई थी.तत्कालीन चीफ जस्टिस आरसी लाहोटी और जस्टिस अशोक भान की खंडपीठ ने ये आदेश जारी करते हुए केंद्र समेत सभी राज्यों को निर्देश दिया था कि इसे सख्ती से लागू करने की जिम्मेदारी जिला पुलिस-प्रशासन की होगी और अगर कोई इसमें कोताही बरतने का दोषी पाया जाता है,तो संबंधित राज्य के मुख्य सचिव वहां के ज़िम्मेदार अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र होंगे.


सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का दो-तीन साल तक तो कड़ाई से पालन होता रहा लेकिन उसके बाद न स्थानीय प्रशासन ने कोई परवाह की और न ही लोगों में ही उस कानून का कोई डर रहा.पर, वह कानून आज भी वजूद में है लेकिन उसे देश की राजधानी तक में हर रात बिकते हुए देखा जा सकता है. सार्वजनिक स्थलों पर देर रात होने वाले जागरण या पार्टियों में कानफोड़ू आवाज में बज रहे म्यूजिक की अगर कोई शिकायत करता है,तो पुलिसवाले नाराज़ नहीं बल्कि खुश होते हैं क्योंकि वे घटनास्थल पर आकर आयोजकों से अपनी जेब गरम करवाते हैं और ये हिदायत देकर चले जाते हैं कि आवाज थोड़ी धीमी करके अपना प्रोग्राम चलने दो.


इसलिये सवाल ये उठता है कि राज ठाकरे या उन जैसे देश के और सम्मानीय नेताओं को पिछले इतने बरसों से हर सुबह किसी मस्जिद,मंदिर या गुरुद्वारे से आने वाली आवाज़ में कोई फर्क महसूस नहीं हो रहा था,तो अचानक ऐसा क्या हुआ कि अज़ान की आवाज़ ही एक बड़ा खतरा बन गई? बेशक अगर एक समुदाय को पांच वक़्त की नमाज़ पढ़ने का हक़ है, तो दूसरे समुदाय को दिन में पांच बार हनुमान चालीसा का पाठ करने का भी उतना ही अधिकार है.लेकिन ये सब कानून के दायरे में रहते हुए ही.अब अगर कानून लागू करने वाले ही किसी सरकार से डरे हुए हों, तो इसमें आम मुसलमान, हिन्दू या सिख भला कैसे कसूरवार हो सकता है?



(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)