सियासत में किसी का तीर, किसी और के कमान में रखना ही दूरगामी परिणाम देता है. कई बार ऐसा लगता है कि सियासत भी शतरंज की तरह है. सटीक चाल के बगैर शतरंज और सियासत दोनों में अच्छे-अच्छे नाम नाकाम हो जाते हैं. शतरंज में मोहरों की चाल से अधिक खिलाड़ी के दिमाग को पढ़ना जरूरी है. ठीक उसी तरह चुनावी जंग में उम्मीदवारों की घोषणा के साथ ही सियासी मुखिया की मंशा झलकने लगती है.


करीब एक महीने पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के साथ गहन चर्चा करने के बाद कांग्रेस हाईकमान ने 2019 का चुनाव आक्रामक रूप से लड़ने का फैसला किया. यहां आक्रामक का तात्पर्य अपने सहयोगियों के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए झुकने के बजाए आगे बढ़कर अकेले चुनाव में जाना था. इस विचार के जोरदार समर्थन में कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी भी थीं. कुल मिलाकर यह अनौपचारिक फैसला हुआ कि 2019 का चुनाव पूरे देश में कांग्रेस स्थानीय 'मैनेजरों' को मैनेज करके बीजेपी से जोरदार जंग करने के बजाए इन क्षत्रपों को कमजोर करके खुदके नंबर बढ़ाने पर फोकस करेगी. जिन राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच आमने-सामने लड़ाई नहीं हैं वहां पर कांग्रेस नंबर दो या नंबर तीन आने के लिए प्रयासरत है. सीटें भले ना बढ़ें कम से कम वोट प्रतिशत इतना जरूर बढ़े कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस या तो खुद बीजेपी के सामने विकल्प के तौर पर तैयार हो जाए या जोरदार मोलभाव कर सके. यूपी, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार में यह रूख स्पष्ट दिखा.

खैर... अभी चलिए यूपी का मौका मुआयना करते हैं. कांग्रेस की नई महासचिव प्रियंका गांधी को यूपी के पूर्वांचल की जिम्मेदारी दी गई. कांग्रेस ने जनता के बीच पीएम मोदी के सामने प्रियंका गांधी को उतारकर स्पष्ट मैसेज दे दिया कि कांग्रेस बदल रही है. वह फिर से उठ खड़े होने के लिए तैयार है. 1989 के बाद कांग्रेस को भूल चुकी एक पीढ़ी करीब तीन दशक से यूपी को सपा और बसपा के बीच लुढकता देख रही है. बीच में 91-92 और 97-2002 तक बीजेपी ने भी सत्ता के शिखर तक लड़खड़ाते ही सही अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. 2014 की मोदी लहर के बाद पूरे देश में बढ़ रहा बीजेपी का परचम यूपी में भी 2017 में जोरदार लहराया और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गये. अब कांग्रेस के पास यूपी में खोने के लिए कुछ भी नहीं है.

पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट सात प्रतिशत रह गया है. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस यूपी में करीब 18 प्रतिशत मतों के साथ 21 सीटें जीतकर एक बार फिर उठ खड़े होने का संकेत दे रही थी. लेकिन स्थानीय नेतृत्व ने पूरे राज्य में संगठन को मजबूत करने के बजाए एक बार फिर आपसी गुटबाजी और सड़क से संघर्ष करने की छूट चुकी आदत की वजह से इस बड़े मौके को खो दिया. बेहद ध्यान से जमीनी असर को पढ़ने पर पता चलता है कि जमीन पर कांग्रेस की पकड़ को राम मनोहर लोहिया आंदोलन, मंडल आयोग और बीजेपी के हिन्दुत्व ने कमजोर कर दिया. कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की गुटबाजी और तत्कालीन उभर रहे स्थानीय क्षत्रपों के साथ मिलीभगत ने कांग्रेस की जड़ों पर मट्ठा डाल दिया. अब कांग्रेस इसी निर्भरता से उबरकर अपने पैरों पर खड़े होने की योजना पर काम कर रही है. अर्थात कांग्रेस एक साथ दो मोर्चों पर लड़ रही है. कांग्रेस बीजेपी को घेरने के साथ ही अपने सहयोगियों की तरफ छिटक चुके अपने मतदाताओं में भी अपने प्रति आकर्षण पैदा करने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस की नजर ब्राह्मण, दलित और मुसलमान मतदाताओं पर है. कांग्रेस इस लोकसभा चुनाव में अपने मत प्रतिशत को बढ़ाकर 2022 के विधानसभा चुनाव में मुसलमान मतदाताओं के सामने बीजेपी के विकल्प के रूप में खुद को परोसना चाहती है. इसीलिए कांग्रेस की पहली नजर गैर जाटव दलितों के साथ ब्राह्मण मतदाताओं पर है. इसे मायावती भांप चुकी हैं, जिस वजह से मायावती कांग्रेस पर बेहद आक्रामक हैं. उम्मीदवारों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि कांग्रेस ने सपा उम्मीदवार के सामने ऐसे उम्मीदवार खड़े किये हैं जो बीजेपी के वोट बैंक में सेंधमारी करें.

मायावती की सियासी समझदारी
सपा के साथ गठबंधन करते हुए सीटों की संख्या में भी मायावती ने अपने लिए एक सीट अधिक झटक ली. अब ध्यान से देखिए तो पता चलेगा मायावती ने ना सिर्फ अपने लिए उन सीटों को चुना है जहां उनके जीतने की संभावना अधिक हो. सीटों के बंटवारे में अखिलेश यादव के हिस्से में उन सीटों को थमा दिया जिन पर बीजेपी भारी हैं. यह करीब करीब सर्वविदित है कि शहरी सीटों पर बीजेपी की बढ़त रहती है. अब ध्यान दीजिए लखनऊ, गोरखपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी, गाजियाबाद जैसी शहरी सीटें सपा को थमा दी गई हैं. इन सीटों का तत्कालीन इतिहास खंगाल लीजिए, कानपुर के अलावा सभी सीटों पर बीजेपी की बढ़त रही है. शहरी सीटों में कानपुर सीट पर कांग्रेस मजबूत है. कई ऐसी सीटें जिन पर सपा लगातार मजबूत रही है वह भी बसपा ने छीन ली. उदाहरण के लिए 1996 से लगातार पांच बार सपा का कब्जा कैसरगंज पर रहा है. बसपा ने इसे अपने पाले में ले लिया. इस तरह सीटों के साथ बंटवारे में अखिलेश पर मायावती ने बढ़त बना ली.

मायावती बनाम कांग्रेस की असली सियासी लड़ाई समझिए
जहां कांग्रेस अधिकांश सीटों पर सपा के साथ फ्रेंडली फाइट करके बीजेपी को कमजोर करने की कोशिश में है, वहीं बीएसपी के सिंबल पर लड़ रहे उम्मीदवारों के सामने कांग्रेस एंटी बीजेपी वोट में सेंधमारी कर रही है. शुरुआत देवरिया से करते हैं. बीएसपी में लोकसभा प्रभारी ही मुख्यत: उम्मीदवार बनाया जाता रहा है. देवरिया से बीएसपी के प्रभारी विनोद जायसवाल हैं. इनको उम्मीदवार माना जाए तो एंटी बीजेपी वोट में कांग्रेस उम्मीदवार नियाज अहमद जोरदार सेंधमारी करेंगे. जिससे बीजेपी की राह में आसानी होगी. 2014 में देवरिया से बीजेपी के कलराज मिश्रा ने जीत हासिल की थी. उन्होंने चुनाव में 51.1 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. उन्होंने बीएसपी उम्मीदवार नियाज अहमद को हराया. तीसरे स्थान पर सपा के बलेश्वर यादव रहे. अब वही नियाज अहमद कांग्रेस में चले गये हैं. इस तरह कांग्रेस ने बीएसपी के सामने रोड़ा अटका दिया.

गठबंधन में संतकबीर नगर सीट बीएसपी के खाते में गई है. अब यहां भी कांग्रेस ने मुस्लिम उम्मीदवार परवेज खान को उतारकर एंटी बीजेपी वोट का बंटवारा करने की कोशिश की है. बिजनौर में बीएसपी उम्मीदवार मलूक नागर कांग्रेस उम्मीदवार नसीमुद्दीन सिद्दीकी से भिड़कर बीजेपी की राह आसान करेंगे. सहारनपुर में कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद के खिलाफ हाजी फजलुर्रहमान को बीएसपी ने उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस को कसने की कोशिश की है. ऐसी तमाम सीटें हैं जहां कांग्रेस बीएसपी की राह में रोड़े अटका रही है तो कहीं बीएसपी कांग्रेस को सबक सिखाती दिख रही है.

सपा और कांग्रेस के बीच फ्रेंडली फाइट
देवरिया से सटे पड़रौना पर ध्यान दीजिए तो स्पष्ट दिखेगा कि सपा ने कांग्रेस को वॉक ओवर दिया है. कुशीनगर के मौजूदा सांसद राजेश पांडेय का टिकट काटकर बीजेपी ने पूर्व विधायक विजय दूबे को प्रत्याशी बनाया है. दूसरी तरफ कांग्रेस ने पांचवी बार आरपीएन सिंह को उम्मीदवार बनाया है. बता दें कि आरपीएन सिंह तीन बार विधायक चुने गये हैं. गठबंधन में सपा के खाते में गई इस सीट से पार्टी ने नथुनी कुशवाहा पर भरोसा जताया है. स्थानीय स्तर पर बालेश्वर यादव को टिकट मिलने की उम्मीद थी. ऐसी स्थिति में आरपीएन सिंह को फायदा मिलता दिख रहा है. स्वामी प्रसाद मौर्या की यहां के कुश्वाहा समाज पर जोरदार पकड़ है. अब मौर्या पर बीजेपी के पक्ष में कुश्वाहा समाज के मतों का ट्रांसफर कराने की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी. लेकिन सपा उम्मीदवार कुश्वाहा समाज के जितने मतों को अपने पक्ष में करेंगे कांग्रेस उम्मीदवार आरपीएन सिंह के लिए राह उतनी ही आसान होगी.

यूपी में चल रहा अलिखित सियासी खेल
यूपी में गेस्ट हाउस कांड के बाद सपा और बसपा के बीच ही विवाद नहीं रहा. इस विवाद का असर जातीय द्वंद में दिखता रहा. एक पूरी पीढ़ी इस द्वंद को देखते सुनते बड़ी हुई है. वरिष्ठ नेताओं के बीच गलबहियां से जमीन के कार्यकर्ता तो शायद घुलमिल भी जाएं लेकिन गैर राजनीतिक आम बीएसपी मतदाता और आम सपा मतदाताओं के बीच सुखद संवाद कितना कायम होगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है. कांग्रेस के रणनीतिकारों को उम्मीद है कि इसी द्वंद का फायदा उठाया जा सकता है. जहां सपा का सिंबल है वहां कांग्रेस दलित मतदाताओं की पहली पसंद बनना चाहती है और जहां बसपा का सिंबल है वहां कांग्रेस सपा मतदाताओं की पहली पसंद बनने की जी तोड़ कोशिश में है. कांग्रेस की रणनीति है कि 2022 तक गैर जाटव दलित जो बीजेपी की तरफ छिटक चुके हैं उन्हें कांग्रेस के पाले में लाया जाए. एक बार यदि ये मतदाता वापस कांग्रेस से जुड़ गये तो ब्राह्मण भी भारी संख्या में साथ आ जाएंगे और मुस्लिम बीजेपी के विकल्प के रूप में सपा के बजाए कांग्रेस को अपना लेंगे. दरअसल इन्हीं दलित मतदाताओं पर कांग्रेस की नजर को बीएसपी भांप चुकी है जिस वजह से वह कांग्रेस पर आक्रामक है. 2019 का यह लोकसभा चुनाव 2022 के विधानसभा चुनाव की पटकथा लिख रहा है. 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती भी अखिलेश यादव पर बढ़त बनाकर 2022 में गठबंधन के नेतृत्व की जोरदार दावेदारी करना चाहती हैं.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)