हमास और इजरायल के बीच युद्ध अब 11वें दिन में प्रवेश कर चुका है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के भी बुधवार 18 सितंबर को इजरायल पहुंचने की संभावना है. उससे पहले उन्होंने इजरायल को चेताते हुए यह भी कह दिया था कि गाजा पट्टी पर इजरायल का कब्जा एक भूल होगी. उधर ईरान भी लगातार धमकियां दे रहा है. पूरी दुनिया में इस बात को लेकर चिंता है कि युद्ध में नागरिकों का काफी मात्रा में नुकसान हो रहा है. मिस्र ने अपना बॉर्डर खोलकर विदेशी नागरिकों को निकलने का मौका तो दिया है, लेकिन फिलीस्तीनी नागरिकों को वह भी नहीं ले रहा है. मानवीय त्रासदी बढ़ती जा रही है. इस बीच पूरी दुनिया में इस युद्ध को तत्काल रोकने की मांग शुरू हो गयी है.


युद्ध रुकेगा नहीं, युद्धविराम हो सकता है


ऐसा लग रहा है कि यह युद्ध थमेगा नहीं, लेकिन उस इलाके का जो समीकरण है, उसमें कुछ दिनों के बाद जाकर एक युद्धविराम, एक ट्रूस हो सकता है. ऐसा भी हो सकता है कि अगले दो-चार दिनों में इजरायली सेना गाजा के अंदर जाए, कुछ खास इलाकों में, जहाँ उनका कमांड सेंटर है, या फिर हमास ने जहां गोला-बारूद रखा है, या जो टनल्स हैं, उन पर हमला करे. अभी जो मानवीय त्रासदी हुई है गाजा में, वह इजरायल के प्रति सहानुभूति को धीरे-धीरे खत्म करेगा. यह मैंने पहले भी कहा था. गाजा एक छोटी सी जगह है. इजरायल की जो बमबारी है, जो क्षति होगी, उसका प्रभाव सभी पड़ोसी मुस्लिम देशों में, यूरोप में भी दिखेगा. लोग जिस तरह सड़कों पर उतर रहे हैं और युद्ध रोकने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, वह भी देखने की बात है.



कई अरब देश हैं जो हमास को पसंद नहीं करते. जैसे सऊदी अरब है, बहरीन है, इजिप्ट है, ये चाहते हैं कि हमास जो वहां बहुत प्रभावशाली है, वह हालत बदले. यहां तक कि फिलीस्तीन के अंदर भी जो पीएलओ है, अल-फतह है, वह भी नहीं चाहता है कि हमास का वहां बहुत प्रभाव रहे. ये सभी अपनी घरेलू राजनीति के कारण कुछ और बयान देते हैं क्योंकि पॉपुलर सेंटिमेंट की कदर करनी होती है. युद्ध को लंबा खींचना इजरायल के लिए पॉृलिटिकल फायदा है, अमेरिका को भी, सैन्य तौर पर हालांकि दूसरे लोग भी इससे जुड़ने लगेंगे. हिजबुल्ला और ईरान सीधे तौर पर इससे हालांकि जुड़ेंगे नहीं, ये छोटी-मोटी झड़पें जो हैं, चलती रहेंगी, लेकिन फुल-फ्लेजेड वॉर तो मुश्किल दिख रहा है. कोई भी देश यह नहीं चाहता कि युद्ध का आकार बढ़े. अमेरिका का पहले से एक युद्धपोत वहां है, दूसरा आ रहा है, तो कहीं न कहीं लग रहा है कि कुछ दिनों बाद एक युद्धविराम हो जाएगा. 



मध्य पूर्व की राजनीति जटिल


आपको पहले तो पश्चिम एशिया की जो राजनीति है, उसकी जटिलता को समझना होगा. ईरान एक शिया बहुत देश है. हिजबुल्ला भी एक शिया समूह है. हमास पूरी तरह से सुन्नी बहुत समूह है. जो सुन्नी देश हैं जैसे सऊदी अरब, इजिप्ट वगैरह, वो उसको सपोर्ट करते हैं. ईरान दरअसल हमास को इजरायल के खिलाफ लड़ा रहा है, जैसे उसने लेबनान में हिजबुल्ला ग्रुप को लड़वाया. सीरिया में जो सिविल वॉर हुआ, वहां ईरान और हिजबुल्ला किससे लड़े...जो सऊदी समर्थित ग्रुप था, उसी से तो लड़े. वहाँ की क्षेत्रीय राजनीति अलग है. ईरान वहां अपना आधिपत्य चाहता है. पहले सीरिया में किया, फिर लेबनान में, फिर यमन में उसने सऊदी प्रभुत्व को खत्म किया. अभी वह फिलीस्तीन-इजरायल युद्ध में संलग्न है. हालांकि, दूसरे सुन्नी देश नहीं चाहेंगे कि ईरान इसका फायदा उठा ले जाए. तो, युद्ध का अगर आकार या अवधि बढ़ी तो फिर वहां के समीकरण भी बदल जाएंगे. बहुत ही जटिल है वहां की राजनीति. धीरे-धीरे वहां विभाजन भी हो जाएगा. हां, जितने सुन्नी बहुल देश हैं, वे खुले तौर पर भले इजरायल का सपोर्ट नहीं करेंगे, लेकिन वे चाहेंगे कि इजरायल ईरान पर आक्रमण कर उसको कमजोर करे. यह दिखता भी है, जैसे आई2यू2 हुआ था. इजरायल ने पड़ोसी देश जॉर्डन, इजिप्ट, बहरीन और यूएई के साथ शांति-समझौता किया था.


ईरान का आधिपत्य बढ़ेगा तो इस प्रक्रिया को ही ठेस पहुंचेगी. तो, जितने प्लेयर हैं, वे ऐसी स्थिति नहीं चाहेंगे. दूसरी बात, ईरान जितनी भी धमकी दे ले, वह सीधे तौर पर लड़ेगा नहीं. जिस देश के अंदर खुद ही लेजिटेमिसी का क्राइसिस हो, अर्थव्यवस्था इतनी खराब हो, वह युद्ध नहीं कर सकता. तो, ये केवल धमकी की बात है. सीरिया कैसे लड़ेगा? वहां तो सिविल वॉर से देश पहले ही तबाह है. लेबनान में कोई प्रेसिडेंट नहीं है, वहां राजनीतिक अस्थिरता है.  वहां के लोग तो हिजबुल्ला को चाहते ही नहीं है. इसलिए, वहां बहुत जटिल स्थित है. वह बिल्कुल सीधा नहीं चलते हैं. वहां मल्टीपोलर हैं. वहां ईरान है, तुर्की है, इजिप्ट है, सऊदी अरब है, इजरायल है, तो वहां बहुत मुश्किल है और इसीलिए वहां अराजकता भी रहती है. 


भू-राजनीति में कथन एक होता है, मायने अनेक


बाइडेन के एक स्टेटमेंट से यह समझना गलत होगा कि वह इजरायल के समर्थन से पीछे हट रहे हैं. उन्होंने इजरायल को यह संकेत दिया है कि अब इस युद्ध को बहुत लंबा नहीं खींचना है. जैसे, 1971 में भारत-पाक युद्ध में सोवियत संघ ने भारत को समर्थन देते हुए भी कहा था श्रीमती गांधी को कि जल्दी से जल्दी खत्म कीजिए. ये सब जगह होता ही है. युद्ध में जो मानवीय त्रासदी होती है, उससे उसका तर्क खत्म हो जाता है. पहले लोग इजरायल को समर्थन दे रहे थे कि उस पर आतंकी हमला हुआ और 1500 नागरिक मारे गए, लेकिन धीरे-धीरे गाजा की तस्वीरें देखकर वो सहानुभूति खत्म होगी.


इजरायल अपनी क्रेडिबिलिटी बचाने के लिए युद्ध को वैसे भी जल्दी खत्म करना चाहेगा. इसीलिए, अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह कहा कि गाजा पट्टी पर इजरायल का कब्जा भूल होगी, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वह इजरायल से अपना सपोर्ट खींच लेंगे. अमेरिका के बिना इजरायल कुछ है नहीं, लेकिन बाइडेन की अपनी मजबूरी है. वहां की घरेलू राजनीति ऐसी है कि इजरायल को कभी भी अमेरिका नहीं छोड़ेगा. जहां तक सऊदी और इजरायल की बातचीत बंद करने की बात है, तो वह भी नहीं होता है. बैकडोर से बातचीत चलती रहती है. महमूद अब्बास जो फिलीस्तीन अथॉरिटी के राष्ट्रपति हैं, वह भी चाहते हैं कि अल-फतह के साथ इजरायल की बातचीत हो और फिर मुद्दा सुलझने की ओर बढ़े. 


हमास ने जो हमला किया है, उसने फिलीस्तीन के मसले को फिर जगा दिया है, जो पिछले कई वर्षों से भुला सा दिया गया था. इराक पर अमेरिका का आक्रमण होता है, अरब स्प्रिंग होता है, किसी ने चर्चा ही नहीं की. हमास ने पश्चिम एशिया के कोर ईशू को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ला दिया. यह उसकी सबसे बड़ी सफलता है, उसका चाहे जो कुछ भी हो. जहां तक भौगोलिक मैप की बात है, तो गाजा स्ट्रिप तो रहेगा ही. वहां इजरायल सरकार को बदल सकता है, कुछ डेमोग्राफी में चेंज कर सकता है और इजरायल का इस युद्ध में बड़ा संदेश है कि अगर आप हमास को सपोर्ट करेंगे तो ये भोगना होगा, तो ऐसी सरकार बनाएं जो वेस्ट बैंक की तरह हो, जो इजरायल की सरकार से बात करे. तो, इजरायल इस तरह के काम कर सकता है. वह वहां सेटलमेंट तय कर सकता है, डेमोग्राफी बदल सकता है और टनल्स जो उसकी सबसे बड़ी चिंता हैं, उस पर काम कर सकता है. 



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