हमास और इजरायल के बीच संघर्ष विराम जारी है, जिसे दो दिनों के लिए और बढ़ा दिया गया है. हालांकि, इस बीच टू नेशन थियरी की बहुत चर्चा होती है. इस पेचीदा मामले में कई लोग फिलिस्तीन तो कई इजरायल के पाले में नजर आते हैं, लेकिन मूल सवाल वहीं रह जाता है कि चारों तरफ से दुश्मनों से घिरा इजरायल, जो लगातार अपने सेटलमेंट बढ़ा रहा है, क्या इस पर आसानी से मान जाएगा या फिर फिलिस्तीन जो अपनी जमीन का दावा पिछले कई दशकों से कर रहा है, वह इस पर आसानी से राजी हो जाएगा?


आसान है समझना द्विराष्ट्र सिद्धांत


इजरायल और फिलिस्तीन के बीच जारी जंग के बीच एक सवाल बार-बार उठता है. वह सवाल 'टू नेशन थियरी' का है. इसे समझना बहुत आसान है. इसका सीधा सा मतलब है कि 1967 के युद्ध में इजरायल ने जिन टेरिटरी पर कब्जा कर लिया था, उसको उसे छोड़ना पड़ेगा. यह संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव 242 में भी उल्लिखित है, जो उस वक्त पारित हुआ था. अंतरराष्ट्रीय कानून ये है कि जो भी कब्जा किया हुआ इलाका या ऑक्युपाइड टेरिटरी है, उस पर आक्रांता देश काबिज नहीं रह सकता, उसे छोड़ना ही होगा. जैसे, पाकिस्तान हमारे पीओके पर कब्जा जमाए बैठा है, तो वो उसे छोड़ना ही पड़ेगा. 1990 के दशक की शुरुआत में अमेरिका में यह तय हुआ था. यह समझौता यिज्ताक रॉबिन और यासर अराफात के बीच यह तय हुआ था और अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन इसके मेजबान थे.



पूरा समारोह ह्वाइट हाउस में हुआ था. इसमें तय हुआ था कि ये लोग आपस में बात करेंगे, मेन मुद्दों के ऊपर, जैसे बॉर्डर का मुद्दा था, शरणार्थियों का मसला था, जो लाखों शरणार्थी फिलिस्तीन बनने पर वापस चले गए थे, उनको वापस लाने का मसला था, पानी की शेयरिंग का मुद्दा था. ये समझौता होने के तुरंत बाद ही यिज्ताक रॉबिन की एक इजरायली आतंकी ने हत्या कर दी थी. उसके बाद से इजरायल हमेशा कोई न कोई ईशू बनाकर हमेशा बचता रहा, उसके बाद अराफात को तो वर्चुअली उनके मकान में ही जेल कर दिया गया. बाद में उनका देहांत हुआ, महमूद अब्बास उनकी जगह आए, फिर कोशिशें हुईं, इंग्लैंड ने भी कोशिश की. 



हमास है एक बड़ी समस्या


बड़ी समस्या तब आयी जब हमास ने 2007 में गाजा में चुनाव जीत लिया. हमास चूंकि इजरायल को रिकॉग्नाइज भी नहीं करती और उसका मुख्य लक्ष्य हथियार के माध्यम से पूरे फिलिस्तीन को आजाद करने का है, तो उसके आने के बाद से इजरायल की लीडरशिप हमेशा कहती रही है कि उनके पास कोई ऐसा पार्टनर नहीं है, जिससे शांति की बात कर सकें. तो, वे कोई न कोई बहाना बनाकर टालते रहे. दूसरी समस्या ये है कि इजरायल के सेटलमेंट का मसला भी बढ़ता जा रहा है. गाजा में भी पहले इनके सेटलमेंट थे, लेकिन वो उन्होंने तोड़ दिए, विड्रा कर दिए. ईस्ट जेरूशलम और वेस्ट बैंक में ये मामला बना हुआ है. ईस्ट जेरूशलम को तो इजरायल संयुक्त राजधानी कहता है, तो वह वहां से विड्रा नहीं करेगा.


वेस्ट बैंक के लोगों और लगातार सरकारों का मानना है कि वह पैगंबरों और नबियों की जमीन है, बाइबल की उल्लिखित जमीन है, तो वहां से विड्रा नहीं करेंगे. गाजा को वे कहते हैं कि ये बिब्लिकल जमीन नहीं है, लेकिन इजरायल की सुरक्षा के लिए जरूरी है. तो, सेटलमेंट की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है. अभी इजरायल की जो गवर्नमेंट है, उसके वित्त मंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि वे जल्द ही वेस्ट बैंक पर भी कब्जा कर लेंगे और फिर वहां के रहनेवालों को भी एनेक्स कर लेंगे. इससे तनाव और बढ़ा. फिलिस्तीन हमेशा से इजरायल को सस्ता श्रम देता रहा है, इजरायल की वह जरूरत है, तो लोगों को लगता है कि अब तक तो वे सेकेंड-थर्ड क्लास ट्रीटमेंट इजरायल से पा रहे थे, अब गुलाम ही हो जाएंगे. 


इजरायल का पुराना सपना 


ग्रेटर इजरायल बनाने का उनका पुराना सपना है औऱ अमेरिका कितना भी कह दे, लेकिन वह चाहता तो टू नेशन थियरी कब की प्रैक्टिकल हो चुकी होती. फेवर में रहना काफी नहीं है. इजरायल एक ऐसा देश है, जो पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर है. उसके चारों तरफ तो दुश्मन हैं. तो, उसे अमेरिका से इकोनॉमिक और सामरिक दोनों मदद चाहिए. एक्सपोर्ट से लेकर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर तक होता है. यूं तो अमेरिका तीन से चार बिलियन डॉलर सालाना इजरायल को देता है, लेकिन फिर बैंक गारंटी है और तकनीकें हैं, सामरिक सहयोग है. उनको जितना एक्सेस तकनीक पर है, वह किसी और देश पर नहीं है.


अमेरिका के अंदर दरअसल इजरायली लॉबी बहुत मजबूत है, यहूदी बड़े-बडे बिजनेसमैन हैं, मीडिया और बैंकिंग में उनका वर्चस्व है, वह चुनाव में फंडिंग भी करते हैं, और अमेरिका एक वजह से और नहीं बोल पाता, क्योंकि वेस्ट एशिया में अमेरिका और सहयोगियों का जो उस क्षेत्र में हित है, इजरायल उसकी रक्षा करता है, खासकर तेल के मामले में. अमेरिका इसीलिए इजरायल की तरफ से लडता भी है. 1967 में अरब राष्ट्रवाद के नाम पर जब युद्ध हुआ, तो अमेरिका ने भी इजरायल का साथ दिया था. इजरायल लगातार अमेरिका को इंटेलिजेंस भी देता है. 


फिलिस्तीन मांगे अपना देश 


फिलिस्तीन हमेशा से टू नेशन थियरी के फेवर में है. ऐसा प्रस्ताव अरब लीग ने भी पारित किया है. इजरायल की इतनी शर्तें रहती हैं, कि लगता है उनकी मंशा नहीं है. वहां का अतिवादी दक्षिणपंथी समूह काफी हावी रहता है. उनकी राजनीतिक व्यवस्था भी ऐसी ही है कि अगर कोई सही बात करे तो सरकार ही गिर जाती है. उनकी असली मंशा ग्रेटर इजरायल बनाने की है. अब तो दोनों के बीच इतनी दरार आ चुकी है, इतना खून-खराबा हो चुका है कि यह बहुत मुश्किल काम दिखता है कि फिलिस्तीन और इजरायल में मुकम्मल शांति हो.


हां, पहले सीबीएम (कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर) हो, सेटलमेंट बनना बंद हो और तब फिलिस्तीन बने, जो वाएबल हो, जो जी सके, जो व्यावहारिक हो. कनेक्टिविटी एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि वेस्ट बैंक और गाजा में कोई आवागमन नहीं है, बीच में तो इजरायली आबादी है. बंटवारा ही अंग्रेजों ने ऐसे किया था कि झमेला बढ़ता रहे. हां, जरूरी है कि एक लिबरल नेतृत्व आए, तो बात बने. मुश्किल ये है कि इजरायल जो बार-बार ऑफर करता है, वह तो लगभग बंदूस्तान की तरह का है, जहां न फौज होगी, न बाकी चीजें होंगी. वह स्वीकारना तो बहुत मुश्किल दिखता है. 


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