कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार और घाटी से उनके पलायन को लेकर बनी फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' क्या सचमुच देश के मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैला रही है? क्या फिल्म के एक दृश्य को बढ़ा-चढ़ाकर सिर्फ इसलिए पेश किया गया कि ये फिल्म देखने के बाद हर हिंदू के मन में मुसलमानों के खिलाफ नफरत का जहर घोला जाये? बड़ा सवाल ये भी कि क्या सेंसर बोर्ड ने ये जानते हुए भी उस दृश्य को मंजूरी दी जिससे एक खास समुदाय के खिलाफ गुस्सा पनपेगा. जो देश में एक बड़ी हिंसा को भी जन्म दे सकता है? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका माकूल जवाब देने से फिल्म के निर्देशक बचते रहे हैं.


हालांकि मोटे तौर पर पूरी फिल्म कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म और उनके दर्द की हकीकत को ही बयां करती है लेकिन कुछेक जगह पर कहानी के साथ जो खतरनाक खेल खेला गया है, उसमें छुपा संदेश यही है कि मानो देश का हर मुसलमान आतंकवादी है. इसमें भी कोई शक नहीं कि फिल्म इस संदेश को फैलाने में काफी हद तक कामयाब भी हुई है क्योंकि इसे देखने के बाद  एक आम हिन्दू के दिलो-दिमाग में आतंकवाद से ज्यादा एक आम मुसलमान के खिलाफ बढ़ती हुई नफरत को समाज में आसानी से देखा जा सकता है. जबकि दुनिया में भी किसी आतंकवादी का न कोई मजहब होता है और न ही धर्म. सिर्फ आतंक फैलाना ही उसका मजहब और मकसद होता है.


शायद इसीलिए फिल्म की जितनी तारीफ हो रही है उतनी ही आलोचना भी हो रही है. फिल्म का सारा जोर तस्वीर का सिर्फ एक पहलू दिखाने पर ही रहा है. फिल्म के निर्देशक ने उस सच्चाई को ईमानदारी से दिखाने की कोशिश नहीं है कि आतंक के उस दौर में भी किस तरह से कुछ मुस्लिम परिवार कश्मीरी पंडितों की रक्षा के लिए न सिर्फ आगे आये थे, बल्कि उन्हें घाटी न छोड़ने और वहीं रहने के लिए मनाया भी. बेशक ऐसे मुस्लिम परिवारों की संख्या कम थी लेकिन जब इतिहास की किसी घटना का फिल्मांकन किया जाता है, तो उसमें Unbiased होकर सारे तथ्यों को सामने रखते हुए फैसला लेने का हक दर्शकों की अदालत पर छोड़ दिया जाता है. अगर घाटी का हर मुसलमान आतंकी ही होता तो कश्मीरी पंडितों के 808 परिवारों के तकरीबन 36 सौ लोग आज घाटी में न रह रहे होते.


वैसे घाटी के मुस्लिम नेता पहले दिन से ही इस फिल्म का विरोध कर रहे हैं और उनके विरोध की बड़ी वजह भी यही है कि इससे देश में यही संदेश जा रहा है कि घाटी का हर मुस्लिम आतंकी है. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने सोमवार को फिर से इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग दोहराते हुए कहा कि इस फिल्म ने मुल्क ही नहीं हमारे देश के जवानों में भी नफरत पैदा की है. इसको बंद करना चाहिए. इससे पहले भी उन्होंने हमला बोलते हुए कहा था कि सरकार इस फिल्म के जरिए मुसलमानों के प्रति लोगों में नफरत फैलाना चाहती है. फारुख का कहना है कि इस फिल्म को केवल इसलिए टैक्स फ्री किया जा रहा है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इस फिल्म को देखें और हम से नफरत करें.


फिल्म पर बैन लगाने को लेकर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से मुलाकात भी की है. दरअसल घाटी के तमाम मुस्लिम नेताओं को फिल्म एक दृश्य पर सबसे ज्यादा एतराज है. उसका जिक्र फारूक ने एलजी के साथ हुई अपनी मीटिंग में भी किया. उनके मुताबिक मैंने उनसे यह भी कहा कि ये जो कश्मीर फाइल्स आपने फिल्म बनवाई है...क्या यह सच है कि एक मुसलमान एक हिंदू को मारेगा और उसके बाद उसका खून जो है वो चावल में डालकर उसकी बीवी से कहेगा कि तुम यह खाओ, क्या ऐसा हो सकता है, क्या हम इतने गिरे हुए हैं?


इस दृश्य को लेकर फिल्म निर्देशक की अपनी दलील हो सकती है लेकिन इससे भला कौन इनकार करेगा कि ये एक खास समुदाय के प्रति नफरत की भावना पैदा करने के लिए उकसाता है. किसी भी फिल्म का मकसद समाज की कड़वी सच्चाई को उजागर करने के साथ ही एक सार्थक संदेश देना भी होता है तो जरा सोचिये कि उस कसौटी पर ये फिल्म क्या खरी उतरती है?


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