ठीक दस साल पहले कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने क्रिकेट के मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में मनोनीत करके उच्च सदन में किसी खिलाड़ी को सदस्य बनाने की पहली शुरुआत की थी. उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने पूर्व क्रिकेटर हरभजन सिंह को हाल ही में पंजाब से राज्यसभा का सदस्य बनाया है. लगता है कि मोदी सरकार भी अब इस परम्परा को और आगे बढ़ाने के मूड में है.


'बंगाल टाइगर' के नाम से मशहूर पूर्व क्रिकेट कप्तान सौरव गांगुली को खेल कोटे से राज्यसभा में नामित किये जाने की अटकलों का सियासी बाजार गरम हो गया है. इसकी वजह भी गांगुली का वह ट्वीट है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन की एक नई पारी शुरू करने का इशारा दिया है. इसलिये कयास यही हैं कि वे बीजेपी की सक्रिय राजनीति में न सही लेकिन पिछले दरवाजे से उच्च सदन में बैठने का मूड बना चुके हैं.


गांगुली फिलहाल बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं,लिहाजा राज्यसभा में मनोनीत किये जाने की घोषणा होते ही उन्हें अध्यक्ष पद से तत्काल इस्तीफा देना होगा क्योंकि एक साथ लाभ के दो पदों पर नहीं रहा जा सकता. इसलिये गांगुली के ट्वीट करते ही ये ख़बर हवा में तैरने लगी कि उन्होंने क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से इस्तीफा दे दिया है. लेकिन बीसीसीआई के सचिव जय शाह ने फौरन ही इस ख़बर को ख़ारिज कर दिया. शायद इसलिए कि जब तक सरकार की तरफ से उनके मनोनयन का ऐलान नहीं होता,उससे पहले इस तरह की खबर आने से गलत संदेश जायेगा.
 
लेकिन गांगुली के ट्वीट के बाद पश्चिम बंगाल बीजेपी के सूत्रों ने ही सबसे पहले ये कहा कि गांगुली को राज्यसभा में खेल कोटे से नामांकित किया जा सकता है.हालांकि सौरव गांगुली की बीजेपी से नजदीकियां किसी से छुपी नहीं हैं. पिछले साल बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले भी बीजेपी ने कोशिश की थी कि उन्हें पार्टी में शामिल करके इस बड़े चेहरे के जरिये ममता बनर्जी को टक्कर दी जाये.


बताते हैं कि तब गांगुली ने ममता बनर्जी से अपने मधुर संबंधों का हवाला देते हुए इस प्रस्ताव को इसलिये ठुकरा दिया था कि वे चुनावी राजनीति में कूदकर ममता दीदी से सीधी दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते. हालांकि बीजेपी से पहले ममता की तरफ से भी गांगुली को टीएमसी में शामिल होने का प्रस्ताव दिया गया था लेकिन उन्होंने वहां भी इनकार कर दिया था. हो सकता है कि इसके पीछे सोच यही रही हो कि किसी भी पार्टी का दामन थामकर दूसरे दलों की आंखों की किरकिरी बनने से बेहतर है कि उच्च सदन में मनोनीत होने का सम्मान हासिल किया जाये.



उस लिहाज से देखें तो बंगाली दादा ने हरभजन सिंह का रास्ता अपनाने की बजाय सचिन तेंदुलकर की राह पर चलना अधिक उचित व सम्मानजनक समझा है. बीती छह मई को गृह मंत्री अमित शाह, गांगुली से मुलाकात करने कोलकाता स्थित उनके आवास पहुंचे थे. खाने की मेज पर दोनों के बीच चर्चा तो कई मुद्दों पर हुई होगी लेकिन मकसद एक ही रहा होगा कि गांगुली को उच्च सदन में भेजने के लिए राजी किया जाये. हालांकि तब भी गांगुली ने सफाई दी थी कि इस डिनर के राजनीतिक मायने नहीं निकाले जाने चाहिए. लेकिन हर नेता के ऐसे किसी डिनर का कोई खास मकसद होता है, जो अक्सर सियासत से ही जुड़ा होता है.


हैरानी की बात है कि 10 साल पहले 27 अप्रैल 2012 को तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने जब सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा के लिये मनोनीत किया था,तब बीजेपी-शिवसेना ने सवाल उठाए थे. दोनों दलों के नेताओं का कहना था कि तेंदुलकर को सांसद बनाने से पहले भारत रत्न दिया जाए. तब सीपीआई नेता गुरुदास दास गुप्ता अकेले ऐसा नेता थे, जिन्होंने सरकार पर सवाल उठाया था कि सौरव गांगुली को राज्यसभा में नामित करने का सम्मान क्यों नहीं दिया गया? लगता है कि दस साल बाद ही सही लेकिन मोदी सरकार उनकी ये मुराद पूरी करती दिख रही है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)