साल 2014 में दिल्ली के अशोक रोड स्थित बीजेपी मुख्यालय में जब नरेंद्र मोदी के पीएम चुने जाने पर उनका अभिनंदन हो रहा था, तब पार्टी के एक वरिष्ठ व बुजुर्ग नेता हमारे साथ प्रेस दीर्घा में बैठे हुए थे. उनसे पूछा गया था कि कैसा लग रहा है, तो उनका जवाब था कि बहुत अच्छा लग रहा है कि अटल जी के बाद संघ का एक और स्वयंसेवक आज इस सर्वोच्च पद तक पहुंच गया है लेकिन आशंका ये सता रही है कि अब ये पार्टी अटल-आडवाणी के पद चिन्हों पर चलेगी या फिर इसका चेहरा ही बदल दिया जायेगा. हालांकि हमारे पास भी उनकी उस शंका का कोई जवाब नहीं था.


पीएम बनने के बाद मोदी ने बीजेपी के इकलौते व बड़े मुस्लिम चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी को तरक्की देकर उन्हें अल्पसंख्यक मंत्रालय का कैबिनेट मंत्री बना दिया. मुस्लिम समुदाय में इसका सकारात्मक संदेश भी गया और नकवी ने सरकार की नीतियों को जमीनी स्तर पर अंजाम देने में जरा भी कंजूसी नहीं बरती. सियासी हलकों में माना जाता है कि नकवी बीजेपी के लिए आज भी एक ऐसा बड़ा चेहरा हैं, जो मंत्री रहते हुए जिस अंदाज में विपक्ष पर हमालावर होते थे, आज भी उन्हीं तेवरों से वे सरकार और अपनी पार्टी का बचाव करते हुए नजर आते हैं. हालांकि बीजेपी के पास शाहनवाज हुसैन के रूप में एक और मुस्लिम चेहरा भी है. पार्टी के ही कई नेता मानते हैं कि विभिन्न मुद्दों पर न तो उनकी इतनी पकड़ है और न ही ऐसी भाषा-शैली है, जिसमें नकवी काफी हद तक खरे उतरते हैं.


पिछली जुलाई महीने में नकवी की राज्यसभा सदस्यता खत्म हो गई और पार्टी ने उन्हें दोबारा संसद में आने का मौका ही नहीं दिया, तो जाहिर है कि उन्हें मंत्रीपद से इस्तीफ़ा तो देना ही था. तब बीजेपी से लेकर समूचे विपक्ष में ये कयास लगाये जा रहे थे कि मोदी सरकार शायद अब नकवी को उप राष्ट्रपति बनाकर कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए को मुंहतोड़ जवाब दे सकती है. इसलिये कि कांग्रेस ने लगातार दो बार हामिद अंसारी को उप राष्ट्रपति बनाकर अपनी धर्म निरपेक्ष होने की इमेज को जमीनी हक़ीक़त में अंजाम दिया था.


ये सारे कयास तब फ़ैल हो गये, जब मोदी सरकार ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ को उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर सबको चौंका दिया. धनखड़ के उप राष्ट्रपति बन जाने के बाद बीजेपी में लगभग सारे नेताओं को ये यकीन हो गया था कि अब नकवी को बंगाल का गवर्नर बनाया जा सकता है, जो वहां की सीएम ममता बनर्जी से हर मोर्चे पर लड़ने की कुव्वत रखते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ.


मोदी सरकार ने एक पूर्व नौकरशाह डॉ आनंद बोस को पश्चिम बंगाल का गवर्नर बनाकर सारी अटकलों को खत्म करने के साथ ही शायद नकवी की उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया. ये मसला थोड़ा इसलिए अहम है कि एक तरफ तो पीएम मोदी मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने के लिए पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं को नसीहत देते हैं, लेकिन वहीं पार्टी के एक बड़े मुस्लिम चेहरे को इस कदर बेआबरु कर दिया जाता है. संसद के दोनों सदनों में आज बीजेपी का एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है और यही स्थिति उत्तर प्रदेश विधानसभा की भी है.


लिहाजा, ये सवाल उठना वाजिब भी बनता है कि क्या सिर्फ चुनाव के वक़्त ही बीजेपी का ये मुस्लिम-प्रेम इतनी हिलोरें मारने लगता है कि पूरी कौम को ये अहसास कराया जाता है कि उनका खैरख्वाह शायद हमसे बड़ा कोई और नहीं है. हकीकत ये भी है कि यूपी के आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में पसमांदा मुस्लिमों के समर्थन से ही बीजेपी ने समाजवादी पार्टी के बरसों पुराने गढ़ को तोड़कर वहां अपना कब्जा जमाया है. इसी बीजेपी ने उन्हीं पसमांदा मुस्लिमों पर अपना भरोसा जताते हुए दिल्ली नगर निगम के चुनाव में चार लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया है, जिनमें से तीन महिलाएं हैं.


बेशक मुख्तार अब्बास नकवी उन पसमांदा मुस्लिम वर्ग से नहीं आते हैं लेकिन उनकी ऐसी उपेक्षा पार्टी के ही कुछ नेताओं को भी खल रही है कि आखिर उन्हें हाशिये पर क्यों ला दिया गया है. हम भी नहीं जानते कि पीएम मोदी ने उनके लिए आगे की कोई ऐसी रणनीति बना रखी हो, जो सबको चौंकाने वाली हो.


अगले साल आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और इनमें तीन हिंदीभाषी राज्य बीजेपी के लिए बेहद अहम हैं. मध्य प्रदेश तो बीजेपी के हाथ में है लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ को कांग्रेस से छीनना उसका सबसे बड़ा मकसद है. इसलिये इन तीनों में से किसी एक राज्य में गवर्नर के बतौर अगर नकवी की ताजपोशी होती है, तो वो मोदी सरकार के लिए किसी मास्टरस्ट्रोक से कम नहीं हो. लिहाज़ा, सियासत का सफ़र ही कुछ ऐसा है, जो न दिखाई देने वाले मोड़ के बाद भी खत्म नहीं होता. इसलिये नकवी को नाउम्मीद होकर खामोश नहीं रहना चाहिए बल्कि मुस्लिमों की भलाई से जुड़े हर मसले पर अपनी जुबान को और भी तेज धार देनी होगी.


नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.


ये भी पढ़ें-
आदिवासियों को किस हद तक अपने साथ जोड़ पायेगी बीजेपी?