कांग्रेस नेता सैम पित्रोदा किसी जनआंदोलन की उपज नहीं हैं. लेकिन "विरासत कर" वाली उनकी टिप्पणी ने देश की सियासत को गरमा जरूर दिया. श्री पित्रोदा इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. इसलिए स्वाभाविक है कि अन्य देशों में प्रचलित कानूनों एवं परम्पराओं की उन्हें बेहतर जानकारी होगी. आर्थिक-सामाजिक विसंगतियों से जूझते हुए देश में लोक-कल्याणकारी योजनाओं की प्रासंगिकता संदेह से परे है. समतामूलक समाज की स्थापना का वादा नया नहीं है, लेकिन पित्रोदा के बयान से कांग्रेस ही असहमत है. माना जा रहा है कि उनकी टिप्पणी से पार्टी को चुनावी नुकसान हो सकता है. 


यह सच है कि भारत में अमेरिका की तर्ज पर "विरासत कर" लगाना संभव नहीं है. भाजपा इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर हमलावर है. तर्क दिया जा रहा है कि कांग्रेस की नजर पुरखों की संपत्ति पर है. बहुदलीय लोकतंत्र में नीतियों का निर्माण सार्वजनिक जीवन की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर ही किया जाता है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का उद्देश्य सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्त होना ही नहीं था बल्कि हाशिए पर मौजूद लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरना भी था.


समाजवादी ढांचा, कांग्रेस की सोच


पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस समाजवादी ढांचे को मूर्त रूप देने के लिए प्रतिबद्ध थी. जमींदारी प्रथा के उन्मूलन को इसकी ही एक कड़ी माना जा सकता है. नेहरू सोवियत संघ की योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था से प्रभावित तो थे, लेकिन स्टालिनवाद की क्रूरता से असहमत थे. सरदार वल्लभभाई पटेल की कुशल रणनीति के कारण ही राजे-महाराजाओं ने अपनी रियासतों का भारतीय संघ में विलय किया था. तब कांग्रेस को देश की फिक्र थी. उसके इरादों को संदेह की नजरों से देखना मुमकिन नहीं था. मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना के कारण पूंजीपतियों को खुली छूट नहीं मिली.



अनुदारवादी विचारधारा के पैरोकार तो पंडितजी के आलोचक थे ही, लेकिन तत्त्ववादी वामपंथी भी उनसे खुश नहीं थे. मार्क्सवादी विचारधारा की प्रेरणा से रूस में बदलाव आ सका. इस बदलाव की रूमानी कहानियां युवा पीढ़ी को आंदोलित तो कर रही थीं. किंतु भारत का सहिष्णु समाज हिंसा के बलबूते किसी की संपत्ति को हड़प लेना न्यायसंगत नहीं मानता. चारु मजूमदार की रक्तरंजित विचारधारा से अशांति ही फैली. पश्चिम बंगाल के एक पहाड़ी इलाके नक्सलबाड़ी से शुरू हुए हिंसक आंदोलन को मध्यवर्गीय समाज का समर्थन कभी नहीं मिला. चीन के नेता माओ को अपना आदर्श मानने वाला यह आंदोलन अब अपनी अंतिम सांसें ले रहा है.


गरीबी उन्मूलन, निर्धनता का अभिशाप 


गरीबी-उन्मूलन से संबंधित कई योजनाओं के होने के बावजूद ग्रामीण भारतवासी निर्धनता के अभिशाप से मुक्त नहीं हो सके हैं. किसानों के खेत जब सूखते हैं तो भुखमरी का डर उन्हें सताने लगता है और तब पलायन ही एकमात्र विकल्प रह जाता है. महानगरों में झुग्गीवासियों की संख्या में बढ़ोत्तरी संतुलित विकास के दावों की पोल खोल रही है. देश में अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है. कमी है तो बस दृढ़ इच्छाशक्ति की. जब 1950 के दशक में संपदा शुल्क लागू किया गया था तो देशवासियों को बताया गया कि इसका उद्देश्य समतावादी समाज की स्थापना करना है.


संपत्ति के अधिकार को 44 वें संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया क्योंकि इसे जनहित के विरुद्ध माना जाने लगा था. आय के पुनर्वितरण का मसला भारत की सियासत में हमेशा गूंजता रहा है. लेकिन मुल्क का मिजाज पूंजीवादी है. राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था की अवधारणा किसी को रास नहीं आई. इसलिए भारत में रूस एवं चीन जैसी साम्यवादी क्रांति नहीं हुई. राजनीतिक दल अगर "आय-पुनर्वितरण" को गंभीर विमर्श मानने लगें तो गरीबी उन्मूलन के लिए नए रास्ते ढूंढे जा सकते हैं.


वर्ष 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं निजीकरण पर आधारित नीतियों को अपनाया गया, तब सिर्फ वामपंथी दलों की ओर से विरोध के स्वर मुखरित हुए थे. शेष अन्य दलों ने नई आर्थिक नीतियों को अपना समर्थन दिया था. किंतु ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन और महानगरों में मलिन बस्तियों के विस्तार ने वैश्वीकरण को पूंजीवाद का आक्रामक संस्करण साबित किया है.


राजा-महाराजा, सामंती शोषण


भारतीय समाज में राजाओं एवं जमींदारों की चर्चा प्राचीन साम्राज्यवादी एवं सामंती व्यवस्था के अवशेष के रूप में होती है. जब इंदिरा सरकार के द्वारा प्रिवीपर्स के अंत की घोषणा हुई तो इस आदेश को समाजवाद के पक्ष में एक महान कदम माना गया. संविधान में वर्णित राज्य-नीति के निदेशक तत्व शांतिपूर्ण तरीके से सामाजिक-आर्थिक क्रांति का पथ प्रशस्त करते हैं. इनके समुचित क्रियान्वयन से लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना की संकल्पना पूरी हो सकेगी. 1971 के लोकसभा के चुनावों के दौरान इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था. इस चुनाव में मिली जीत के बाद देश की सामाजिक-आर्थिक प्रगति के लिए संविधान में व्यापक परिवर्तन किए गए थे. 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवादी" शब्द जोड़े गए. उन दिनों केंद्र सरकार समाज के कमजोर वर्ग के कल्याणार्थ कई कदम उठा रही थी. हालांकि इंदिरा सरकार द्वारा किए गए संविधान संशोधन की व्यापक आलोचना भी हुई. माना गया कि सरकार के निर्णयों के कारण विधायिका एवं न्यायपालिका के मध्य टकराव की नौबत आ गयी है, किंतु तत्कालीन सत्ताधारी दल के नेता समाजवादी कार्यक्रमों को मूर्त रूप देने के लिए इन संशोधनों को आवश्यक मान रहे थे.


भारतीय संविधान एक जीवंत और परिवर्तनशील दस्तावेज है. इसमें बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन जरूरी है. भूमि सुधार, शहरी भूमि सीमाबंदी एवं बंधुआ मजदूरी की समाप्ति से संबंधित कानूनों के निर्माण के माध्यम से समाज में समानता स्थापित करने की कोशिश हुई.


कांग्रेस, लोकसभा चुनाव व सहयोगी दल


18 वीं लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस अपने सहयोगी दलों पर निर्भर है. भारत में संसदीय लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती प्रदान करने में कांग्रेस की भूमिका अन्य दलों की तुलना में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. इस पार्टी के प्रयासों से ही विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोगों के विशेषाधिकार छीने गए, सामंतवाद और जमींदारी पर आधारित प्रथाओं का उन्मूलन हो सका, किंतु अब कांग्रेस के नेता लापरवाही का परिचय दे रहे हैं. उनके वक्तव्यों में राजनीतिक परिपक्वता नहीं दिखाई देती है. सैम पित्रोदा अगर प्रचलित राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में बदलाव के इच्छुक हैं तो उन्हें जनजातीय क्षेत्रों की यात्रा करनी चाहिए. गरीबी-उन्मूलन से संबंधित योजनाओं के वित्त पोषण के लिए "विरासत कर" ही एकमात्र उपाय नहीं है. देश के सभी नागरिकों को संपत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन की स्वतंत्रता है.


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