कुछ ही दिनों पहले मालदीव में चुनाव हुए और वहां की सत्ता अब चीन समर्थित और समर्थक मोइज्जु के हाथ में आ गयी है. हालांकि, उनका शपथ-ग्रहण नवंबर में होगा, लेकिन उन्होंने अपनी तुर्श बयानबाजी से यह साफ कर दिया है कि उनके पूर्ववर्ती के उलट वह चीन की सत्ता को ही अपना समर्थन देंगे. चीन भारत को घेरने के लिए दक्षिण एशिया में एक के बाद एक देशों पर अपना प्रभाव बढ़ाता जा रहा है, ताकि भारत को यहीं उलझा कर रख सके और बाकी जगहों पर अपनी मनमानी कर सके. भारत की पूरे घटनाक्रम पर नजर है और चीन को काउंटर करने के लिए वह कौन से और कैसे कदम उठाता है, देखने की यही बात है. 


मालदीव में भारतीय सैनिक 


मालदीव में अगर भारतीय सैनिकों की मौजूदगी की बात की जाए, तो थोड़ा इतिहास में भी झांकना पड़ेगा. हिंद महासागर का यह द्वीपीय देश वैसे तो बहुत छोटा है, लेकिन उसकी रणनीतिक और सामरिक स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है. वह भारत के लक्षद्वीप से केवल 700 किलोमीटर की दूरी पर है. यह दूरी कम है, क्योंकि सामुद्रिक रास्ते में दूरी और कम हो जाती है. हिंद महासागर के महत्वपूर्ण देश होंने के नाते, भारत के इतना करीब होने के नाते और हिंद महासागर में रणनीतिक उपस्थिति की वजह से ही मालदीव इतना अहम है. चीन बारहां कहता है कि हिंद महासागर नाम होने से वह हिंदुस्तान का महासागर नहीं हो जाता. हालांकि, सच तो यह भी है कि विश्व का 90 फीसदी व्यापार अब भी हिंद महासागर से ही होकर होता है. उसमें भारत के द्वीपों का अलग महत्व है और उसी वजह से मालदीव की भूमिका भी बढ़ जाती है. वहां भारतीय सैनिकों की मौजूदगी से फ्री-ट्रेड को सुनिश्चित किया जाता है. भारतीय नौसेना जहां कहीं है, वह हिंद महासागर में मुक्त व्यापार को सुनिश्चित करती है, चाहे वह मालदीव में हो या फिर जो छोटे-छोटे द्वीपीय देश हैं, वहां पर भी फ्री ट्रेड को बचाए रखने के साथ ही मैरीटाइम पाइरेसी यानी समुद्री डकैतियों को भी रोकता है. भारत की उपस्थिति यह तय करती है कि पूरे विश्व का व्यापार और माल की आवाजाही स्वतंत्र तौर पर चलती रहे. 



चीन काफी समय से इस जगह पर अपनी धमक और बढ़त बनाना चाहता है. जिस रणनीति को हम स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स के नाम से जानते हैं, उसी के तरहत मालदीव, श्रीलंका, म्यांमार और कई छोटे-मोटे द्वीपों में भी खासा निवेश कर चुका है. पाकिस्तान में भी उसने खासी रकम निवेश के नाम पर खर्च की है, जिसमें ग्वादर पोर्ट भी शामिल है. भारत नहीं चाहता है कि चीन के कोई भी मंसूबे पूरे हो सकें, इसलिए भारत भी द डायमंड नेकलेस नामक रणनीति बना रहा है, कार्यान्वित कर रहा है. हमारे रणनीतिक, व्यापारिक हित वहां हैं, हमने मालदीव में अच्छा खासा निवेश किया है, इसलिए उसकी सुरक्षा के लिए बस दो हेलिकॉप्टर, एक डॉर्नियर एयरक्राफ्ट दिया है. हम कोई साम्राज्यवादी देश नहीं हैं, हम बस अपने हितों की सुरक्षा कर रहे हैं. 


भारत की मौजूदगी अलग


मालदीव में भारत की मौजूदगी इसलिए अलग है, क्योंकि अमेरिका का जिन भी देशों में बेस है, सैनिक अड्डा है, वहां प्रॉपर मिलिटरी प्रजेंस है. भारत के तो केवल 60-70 सैनिक हैं मालदीव में. कोई सैनिक तामझाम नहीं है. अगर थोड़ा सा इतिहास में देखें तो पता चलेगा कि मालदीव के नए चुने गए नेता मोइज्जु क्यों इंडिया आउट का नारा दे रहे हैं? मालदीव में नवंबर 1988 में एक सैन्य विद्रोह हुआ था और उस समय पीएलओटीई (पीपल लिबरेशन ऑफ तमिल ईलम) ने अब्दुल्ला लुफ्ती की इस विद्रोह में मदद की थी और उन्होंने मालदीव की राजधानी माले पर कब्जा कर लिया था. भारत से जब उन्होंने रिक्वेस्ट किया था, तो भारत ने वहां हस्तक्षेप किया था और मदद मांगने पर ही वहां गया था. भारत ने नेवी के वेसल्स और पैराट्रूपर्स भेज कर माले को मुक्त कराया और वहां की सरकार को ही उन्हें सौंप दिया. इसलिए, भारत का हस्तक्षेप या मौजूदगी अलग है. हम बिना बुलाए नहीं गए, गए तो मुक्त करवाकर हमने वापस उसी देश को सौंप दिया, वहां कब्जा नहीं किया. इसलिए, क्योंकि हम साम्राज्यवादी देश नहीं हैं. कुछ समय पहले नसीर के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था. 2018 में उनको भी भारत ने शरण दी थी, लेकिन सैन्य हस्तक्षेप से साफ इन्कार कर दिया था. भारत और अमेरिका इसीलिए अलग हैं. भारत के वैसे भी 70 सैनिक ही हैं. डोकलाम में भी भारत ने भूटान के कहने पर ही हस्तक्षेप किया था, लेकिन वहां भी हम जमे नहीं, परमानेंट बेसेज कभी नहीं बनाए, भूटान को ही सौंप कर उसे आए. 


भारत की विदेश नीति बदल रही है


पड़ोसियों को लेकर भारत की नीति बदलती रही है, लेकिन वह मुख्यतः 'पड़ोसी पहले' की ही नीति पर चल रहा है. जहां तक श्रीलंका में शांति सेना भेजने की बात है तो उस समय श्रीलंका ने भी हमसे मदद मांगी थी. वहां बाकायदा सेना भेजी गयी थी, तमिल ईलम के उग्रवादियों से श्रीलंका की सेना का बाकायदा युद्ध चल रहा था और उसमें भारत ने हस्तक्षेप किया. दरअसल, राजीव गांधी की जो श्रीलंका नीति थी, वह असल में पॉलिटिकल एडवेंचर था. इसीलिए उन्होंने वहां शांति सेना को भेजा और मुंह की खाई. लिट्टों को यह लगता था कि भारत की कहीं न कहीं सहानुभूति उनके साथ है, लेकिन जब राजीव गांधी ने सेना भेज दी, तो लिट्टे और भी उग्र हो गए और भारत को वहां से वापस आना पड़ा एवं लिट्टे के एक आतंकवादी हमले में उनको अपनी जान भी गंवानी पड़ी. फिलहाल, मालदीव की स्थिति अलग है. हम मालदीव में बहुत छोटी टुकड़ी को रखे हुए हैं, वह भी अपने सामरिक-व्यापारिक हितों के लिए. मोइज्जु के चुने जाने के बाद इस पर काफी चर्चा हो रही है, क्योंकि उनका झुकाव चीन की तरफ है. भारत की थोड़ी सी भी दखलंदाजी वहां नहीं होनी चाहिए, यह घोषित तौर पर मोइज्जु का एजेंडा है. जबकि भारत का मानना है कि जब तक पड़ोस में शांति एवं राजनीतिक स्थिरता नहीं होगी, तब तक भारत का भी निर्बाध विकास नहीं हो सकता है. इसलिए, भारत चाहता है कि उसके पड़ोस में भी शांति रहे और वहां भी विकास हो एवं पूरे क्षेत्र में शान्ति व्याप्त हो ताकि वसुधैव कुटुम्बकम् का हमारा आदर्श पूरा हो सके.




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