लेबनान में जन्मे मशहूर दार्शनिक ख़लील जिब्रान ने तकरीबन एक सदी पहले ही ये कह दिया था कि, ”दुनिया में अमीर और ग़रीब में कितना फर्क है, इसकी हकीकत उस दिन देख लीजियेगा, जब एक ही दिन की भूख और एक ही घंटे की प्यास दोनों को एक समान बना देती है." फिलहाल तो अपने देश में ऐसा कोई वाकया देखने को नहीं मिला है, पर आगे की न तो हम जानते हैं और न ही आप...


लेकिन सरकार ने आपकी रुआंसी सूरत पर मुस्कान लाने के लिए एक बड़ा दावा किया है लेकिन ये अलग बात है कि इससे आपका चेहरा किस हद तक मुस्कराके ये बोलेगा कि जी, हुजूर, आप सही बोल रहे हैं क्योंकि अब हमें न तो महंगाई से दिक्कत है और न ही बढ़ती हुई बेरोजगारी से! सच हमेशा कड़वा होता है और वे ये है कि सरकार कोई भी हो, उसका पहला काम होता है कि जमीनी हकीकत को जानने के बावजूद देश के लोगों के सामने अपनी उपलब्धि का ढिंढोरा पीटना. इसे सरकारी तंत्र की सबसे बड़ी खामी कहें या उसकी महारथ कि वो हुक्म मिलने के बाद हर नाकामी को कामयाबी में बदलने की कला जानती है. शायद इसीलिए दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उस जमाने में खुलकर ये कहती थीं कि "देश की सरकार मैं नहीं बल्कि हमारी ब्यूरोक्रेसी का एक डेस्क ऑफिसर चलाता है."


लेकिन सरकार ने देश के लोगों को कल ये ख़ुशख़बरी दी है कि कोरोना महामारी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अब पटरी पर लौटने लगी है. सरकार ने दावा किया है कि वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही अप्रैल से जून के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था ने 13.5 फीसदी के दर से विकास किया है. अब आपको इसका अहसास न हो पाए, तो इसके लिए सरकार को कसूरवार मत ठहराएं. क्योंकि सरकार का एक सिस्टम है, जो बताता है कि अर्थव्यवस्था पहले से कितनी बेहतर हुई है. लेकिन आज़ादी के 75 साल बाद भी इसे स्वतंत्र व निष्पक्ष तरीके से जांच करवाने का कोई तरीका आज तक किसी भी सरकार ने न तो ईजाद किया और न ही उसने कोई जरुरत ही महसूस की.


बता दें कि सरकार भी अपने द्वारा तैयार किए गए किसी भी तरह के आंकड़ों को जारी करने के  लिए अपने सरकारी  मीडिया के अलावा निजी मीडिया पर भी इसलिये भरोसा करती है कि उसकी पहुंच भी बहुत ज्यादा दूर तक हो गई है. इसलिये अगर  देश की जनता को ये अहसास ही न हो पाये कि सरकार ने आफ़त की इस घड़ी में भी उनका साथ नहीं दिया, तो इस सारी क़वायद करने का भला क्या फायदा. 


दरअसल, ऐसे मामलों को लेकर हर सरकार आंकड़ों  की जादूगरी करके हमें उस भूलभुलैया में ले जाती है, जिसमें उलझकर हम आटे-दाल-चावल समेत अपने रसोई गैस के सिलेंडर तक की कीमत का भी दाम भूल जाते हैं कि पिछले साल हमने इसके लिए कितना भुगतान किया था. पिछले साल की कोई रसीद हो, तो उसे निकालकर खुद ही देख लीजिएगा कि हमारी इकोनॉमी कितनी मजबूत हुई है,जिसका सीधा फायदा आपको मिलेगा.


लेबनान में पैदा होकर अमेरिका में बसे और उसकी नीतियों की पुरजोर ख़िलाफ़त करने वाले उसी ख़लील जिब्रान ने ये भी कहा था कि, "आने वाली पीढ़ी गरीबी से समानता और संकट से प्रेम सीखेगी".हम नहीं जानते कि कितने लोगों ने उनकी इस बात को पढ़ा है और कितने उस पर अमल करेंगे. लेकिन सरकार द्वारा जारी किये गए चांदी के इस सिक्के के दूसरे पहलू पर भी नजर डालना जरूरी है. सरकार ने कहा है कि वित्त वर्ष 2022-23 के पहले चार महीने यानी अप्रैल से जुलाई के दौरान वित्तीय घाटा (Fiscal Deficit) 3.41 लाख करोड़ रुपये रहा है जो मौजूदा वित्त वर्ष के कुल लक्ष्य का 20.5 फीसदी है. कंट्रोलर जनरल ऑफ अकाउंट्स ने ये आंकड़े जारी किए हैं. 


जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक 2022-23 के पहले चार महीने अप्रैल से जुलाई के बीच सरकार को 7.86 लाख करोड़ रुपये का राजस्व हासिल हुआ है. वहीं कुल खर्च 11.27 लाख करोड़ रुपये रहा है. अब जरा दोनों आंकड़ों पर गौर कीजिये और फिर अपने पुराने बुजुर्गों की उस नसीहत को भी याद कीजये कि जहां आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपय्या हो, तो भला वह घर खुशहाल कैसे रहेगा. घर की यही बात देश पर भी लागू होती है. इसलिये सवाल ये नहीं कि विकास दर कितनी हासिल हुई, बल्कि ये है कि एक आम इंसान की तकलीफें कितनी कम हुईं कि वो दिवाली आने से पहले ही उसका जश्न मनाने लगे?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)