इलाहाबाद में एक अमीर बैरिस्टर मोती लाल नेहरू और लाहौर की कश्मीरी ब्राह्मण स्वरूपरानी थुस्सू के घर 14 नवंबर 1889 में पैदा हुए नन्हे जवाहर कब चाचा नेहरू और नए नवेले देश की कमान संभालने वाले पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू में तब्दील हो गए ये शायद वो खुद भी न जान पाए हों.


यहां तक का पहुंचने का उनका ये सफर इतना आसान भी नहीं रहा. रोमांचक लेकिन मुश्किल और असामान्य हालातों में नेहरू ने भारत के पहले प्रधानमंत्री का पद संभाला और सबसे अधिक वक्त तक देश के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी सेवाएं दीं.


1947 में 14 और 15 अगस्त की मध्यरात्रि को संविधान सभा में देश के चुने हुए नेता के तौर पर उनके मशहूर भाषण में भारत के "नियति के साथ साक्षात्कार" की बात की गई थी. ये 20 वीं सदी के महान भाषणों में से एक रहा था. इसमें उन्होंने साफ कहा कि भारत का भविष्य सुस्ताने और आराम करने का नहीं है.


वतन की आजादी का पल एक लंबे वक्त की ख्वाहिश थी, लेकिन नेहरू ने माना कि जिस शख्स को वे आजादी की जंग के मास्टरमाइंड मोहनदास गांधी के तौर पर जानते थे, वो भारत की आजादी का जश्न मनाने के लिए वहां नहीं था. गांधी ने दंगाग्रस्त शहर में अमन-चैन लाने की कोशिशों में खुद को कलकत्ता (अब कोलकाता) में टिका रखा था.


तब शायद किसी ने सोचा भी न हो कि भारत और पाकिस्तान के बीच खूनी लड़ाई अपने पीछे मरने वालों और घायलों के गहरे निशान छोड़ जाएगी, जिसका असर इतना गहरा होगा कि वो दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थियों का बहाव पैदा करेगा, जो लाखों लोगों को तोड़ कर रख देगा.


सदमे में पहुंचा देगा और यहां तक कि दोनों देशों को जंग के मुहाने पर ला खड़ा कर देगा, और आखिरकार 6 महीने से भी कम वक्त के बाद, महात्मा एक हत्यारे की गोलियों का शिकार हो जाएंगे, और देश मातम में डूब जाएगा.


यदि एक नए नवेले देश के नए ढले या नए बने नेता के सामने मुश्किल हालात हो तो उसे इससे निपटना ही होता है. नेहरू के सामने कुछ ऐसे ही हालात थे. एक तरफ नेहरू के सामने देश को एकजुट रखने की चुनौती थी तो दूसरी तरफ पीड़ितों को धीरज देने की कोशिशों की जवाबदेही थी. 


इतना ही नहीं अब उनके पास एक ऐसे शख्स के अंत्येष्टि की जिम्मेदारी करने का अकल्पनीय काम भी था जो दुनिया में एक ऐतिहासिक शख्स बन चुका था, जिसे आधुनिक वक्त के बुद्ध और क्राइस्ट के तौर पर पूजा जा रहा था, इज्जत दी जा रही थी.


ऐसा कहा जाता है कि गांधी को चिरनिद्रा में सुलाने के लिए अंतिम संस्कार की  पेचीदगियों और मुश्किल तैयारियों के बीच, नेहरू, जो मुश्किल पलों में गांधी की सलाह लेने के आदी थे, अपने आसपास के कुछ लोगों की ओर मुड़े और उन्होंने आदतन कहा, “चलो हम बापू के पास जाते हैं और उनकी सलाह लेते हैं.” 


नेहरू के सामने काम बहुत बड़ा था. उस वक्त में अन्य उपनिवेशित राष्ट्रों के नेताओं की निःसंदेह अपनी चुनौतियां थीं, लेकिन नेहरू के अधीन भारत के सामने चुनौतियां अधिक बड़ी थीं. 5 लाख से अधिक गांवों, कस्बों और शहरों में रहने वाले 30 करोड़ से अधिक भारतीयों  की एक चौंका देने वाली विविधता से घिरे देश को फिर चाहे वो धर्म, जाति, मातृभाषा, सांस्कृतिक विरासत या सामाजिक-आर्थिक स्थिति के संबंध में ही क्यों न हो, को एक सूत्र में बांधना कोई मामूली चुनौती नहीं थी. 


इसके अलावा, अधिकांश भारतीय बेहद गरीब थे. ये अपने आप में ही भारत के 200 वर्षों के निरंतर शोषणकारी शासन का एक अभिशाप और कलंक था. वहीं उस वक्त के साक्षी रहे अधिकांश लोगों और समीक्षकों के मुताबिक भारत को औपनिवेशिक शासकों से विरासत में मिली राजनीतिक संस्थाएं बेहद अलग हालातों के लिए डिज़ाइन की गई थीं.


इस तरह के हालातों वाले देश को अचानक एक अहम और मजबूत स्थिति में लाने की वास्तव में इतिहास में कोई मिसाल नहीं थी. देश का संविधान खुद संविधान सभा में एक साल की लंबी गहन और कभी-कभी शानदार बहस में तैयार किया गया था, जिसमें देश को एक आधुनिक "संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य" कहा जाता है.


और भी बहुत कुछ था जो भारत के लिए अनोखा था: अविभाजित ब्रिटिश भारत के साथ वंशानुगत शासकों की अध्यक्षता में 565 देशी रियासते थीं, और इनमें से अधिकांश रियासतों को उनकी मर्जी से भारत में 'समाहित' किया जाना था यानी मिलाना था. ऐसी रियासतें 562 थीं.


भारतीय इतिहास के छात्रों को इस प्रक्रिया को 'भारतीय राज्यों के एकीकरण' के तौर पर बताया गया है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि नेहरू और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के सामने अभी भी इससे बड़ा काम था, क्योंकि एक आधुनिक राष्ट्र के तौर पर भारत को सशक्त और ताकतवर बनाने के विचार पर काम करना अभी बाकी जो था. 


अगर कोई भी लगभग 17 वर्षों के उस वक्त का पूरी तरह से सर्वे करे जिस दौरान नेहरू ने भारत को आधुनिकता और वैश्विक मंच पर पहुंचाया, वो देख सकता है कि ये वक्त उनकी जीत और नाकामियों की एक फेहरिस्त पेश करता है और इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है. कम नहीं आंका जा सकता है. उदाहरण के लिए, 25 अक्टूबर, 1951 और 21 फरवरी, 1952 के बीच भारत में हुए पहले आम चुनाव में नेहरू की बड़ी उपलब्धियों को कम करके नहीं आंका जा सकता.


सार्वभौमिक मताधिकार में एक लोकतांत्रिक प्रयोग के तौर पर दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं था जो इन आम चुनावों के हमेशा याद रखे जाने वाले पैमाने के करीब पहुंच पाया. इससे भी अधिक असाधारण यह था कि उस वक्त बंटवारे के सदमे और घाव  हर जगह हरे थे बावजूद इसके लोगों ने अपनी लोकतांत्रिक सरकार चुनने में बढ़-चढ़ कर भागीदारी की. लगभग 10 करोड़ 60 लाख लोगों यानी 45 फीसदी मतदाताओं ने अपना वोट डाला था. तब ये वोटिंग ऐसे देश में हुई थी, जहां 1951 में साक्षरता दर केवल 18 फीसदी से अधिक थी.


यही कवायद 1957, 1962 में और मई 1964 में नेहरू की मौत से पहले के आखिरी आम चुनाव में की गई थी. इस तरह की असाधारण और अनूठी बात पक्के तौर पर अन्य किसी देश के बारे में नहीं कही जा सकती है जो कि उपनिवेशीकरण (Decolonisation) की प्रक्रिया से गुजरा हो, जिसने औपनिवेशीकरण से मुक्ति पाई हो. सीधे शब्दों में कहें तो गुलामी की बेड़ियां तोड़ी हों.


यदि इस अकेले तथ्य को नेहरू के लोकतांत्रिक मानदंडों का पालन करने के झुकाव के उदाहरण के तौर पर लिया जाए तो फिर भी यह सच है कि उन्होंने आठ मौकों पर राष्ट्रपति शासन लगाया, यही नहीं 1959 में केरल की ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व वाली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी का हवाला अक्सर नेहरू के असंतोष को सहन करने की असमर्थता के एक उदाहरण के तौर पर लिया जाता है. 


नेहरू ने अंग्रेजों से विरासत में मिली संसदीय संस्थाओं को पाला पोसा


कोई इस दिशा में आगे बढ़ सकता है कि नेहरू में असंतोष सहने करने की ताकत नहीं थी, लेकिन यहां नेहरूवादी व्यवस्था के तहत भारत के विचार और लोकाचार को फिर चाहे वो कितना भी संक्षिप्त तरीके से क्यों न हो चित्रित करना कहीं अधिक उत्पादक होगा. भारत को अंग्रेजों से संसदीय संस्थान विरासत में मिले थे और नेहरू की छत्रछाया में इन संस्थानों को आगे बढ़ाया गया. कभी उन्हें भारत के हालातों के मुताबिक अधिक जवाबदेह बनाने और यहां तक ​​कि भारतीय लोकाचार या भारत में सामाजिक संस्थानों के इतिहास के प्रति संवेदनशीलता को प्रतिबिंबित करने के इरादे से बदला गया.


कुल मिलाकर लोकतांत्रिक संस्थाओं ने स्थिरता और परिपक्वता दिखाई, उच्च भारतीय अदालतों ने आजादी से फैसले लेने की क्षमता दिखाई तो प्रेस ने बड़े पैमाने पर बगैर किसी रुकावट के अपनी आजादी का इस्तेमाल किया.


हालांकि कांग्रेस ने संसद में भारी बहुमत का इस्तेमाल किया था,लेकिन उस दौर की लोकसभा की बहसों से पता चलता है कि विपक्ष ने फिर भी कोई वाक-ओवर नहीं किया था और संसद में अक्सर नेहरू और उनके मंत्रियों की परीक्षा होती थी. पहले आम चुनाव से पहले ही चुनावों के निष्पक्ष संचालन की निगरानी के लिए चुनाव आयुक्त का कार्यालय बनाया गया. 


भारत में उस दौर में राजनीतिक संस्थानों की स्थिरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पड़ोसी देश पाकिस्तान और डच शासन से अपनी आजादी हासिल करने वाले इंडोनेशिया के उलट देश में सेना को जनता की चुनी सरकार पर किसी भी तरह के प्रभाव का इस्तेमाल करने से रोका गया था. इस संबंध में नेहरू ने कड़ाई से सुनिश्चित किया था जैसा कि किसी भी लोकतंत्र को करना चाहिए कि सेना सिविल प्राधिकरण का पालन करेगी.


सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की कोशिश में नेहरू का योगदान


नेहरू के अधीन 1948 में जो भारत आया था वो शुरुआती दौर में बंटवारे के बाद हुई हत्याओं की वजह से पूरी तरह से सांप्रदायिक अशांति से मुक्त नहीं था. इस दौर में नेहरू की खुद की ये सोच थी कि अल्पसंख्यकों को भारत में सुरक्षित महसूस करना चाहिए और उनकी इस सोच पर संदेह नहीं किया जा सकता है. अधिकांश साम्प्रदायिक घटनाएं मामूली थीं, जब-तक की साल 1961 में मध्य प्रदेश के जबलपुर में साम्प्रदायिक हिंसा नहीं हुई थी. ये 1947 के बाद हुआ पहला सांप्रदायिक दंगा था. तब एक सफल मुस्लिम उद्यमी वर्ग के उदय ने हिंदू समुदाय में कुछ चिंता पैदा की थी.


सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की कोशिशों में नेहरू के खुद के साहस का बड़े स्तर पर दस्तावेजों में जिक्र किया गया है. मशहूर अमेरिकी लेखक नॉर्मन कजिन्स उन लोगों में से थे, जिन्होंने नेहरू को दिलेरी से सांप्रदायिक विवाद को रोकने के लिए निजी तौर पर दखल देते देखा था. नेहरू ने कभी -कभी तो खुद नेहरू सड़क पर दंगाइयों के बीच जा खड़े होते थे. यह तर्क दिया जा सकता है कि नेहरू मूल रूप से जाति, धर्म, लिंग, सामाजिक आर्थिक हालातों के इतर हर शख्स की गरिमा और सम्मान के विचार के प्रति प्रतिबद्ध थे. इसमें, मैं ये कहने की हिम्मत करता हूं कि उन्होंने न केवल उदार परंपरा से, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात, भारत की कई संत परंपराओं और गांधी के उदाहरण से ये सीखा था.  


निंदक और आलोचक यह तर्क दे सकते हैं कि अछूतों के अधिकार जैसा कि वे उस वक्त जाने जाते थे, नेहरू के तहत बमुश्किल आगे बढ़े, लेकिन इस तरह के नजरिए की कोई स्टडी सामने नहीं आई है. हालांकि ये पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि दलितों को दिए गए संवैधानिक सुरक्षा उपायों के बावजूद पूर्ण सदस्यों के तौर पर उन्हें  स्वीकार किए जाने की प्रगति बी आर अम्बेडकर की कल्पना और उम्मीद की तुलना में बहुत धीमी थी. वास्तव में, भारत इस मामले में इतनी प्रगति करने से बहुत दूर है जिसे आज भी कम से कम ही स्वीकारा गया माना जा सकता है.


पिछली घटनाओं या हालातों को देखते हुए कहा जाए तो ये भी निर्विवाद तौर से सच लगता है कि हर शख्स की अहमियत समझने वाले नेहरू के खुद के यकीन के अलावा नेहरू के अधीन भारत उनके उत्तराधिकारियों की तुलना में अधिक मेहमाननवाज जगह थी. नेहरू असहिष्णु और अधिनायकवादी हो सकते हैं, जैसा कि मैंने पहले लिखा है कि उनका केरल सरकार की बर्खास्तगी का फैसला मतभेदों को न सहन कर सकने की वजह से लिया गया था, लेकिन एक तरफ हर किसी को उनके चुने गए राजनीतिक विकल्पों और दूसरी तरफ नेहरूवादी भारत में सहनशीलता और बहस की संस्कृति के पनपने और बढ़ने के बीच अंतर करना चाहिए.


ये नेहरू का सांस्कृतिक क्षेत्र में एक अहम निवेश था. नेहरू के दौर में कला, संगीत, नृत्य और साहित्य की विभिन्न राष्ट्रीय अकादमियों के निर्माण से ये साफ तौर पर जाहिर होता है. ऐसे ही नेहरू ने उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने की कोशिशें की थीं. नेहरू के लगभग हर काम और नजरिए में भारत को आधुनिक बनाने और यहां तक ​​कि भारत को एक वैज्ञानिक महाशक्ति में बदलने का उनका दृढ़ संकल्प साफ झलकता था.   भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों खड़गपुर (1951), बॉम्बे (1958), मद्रास (1959), कानपुर (1959) और दिल्ली (1961) को अक्सर उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जाता है.


निश्चित रूप से ये मूल आईआईटी (IIT) आज भी उच्च शिक्षा की दुनिया में भारत की सांस्कृतिक पूंजी के सबसे जाने-माने रूप हैं. इनके अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे मुट्ठी भर विश्वविद्यालयों के कुछ विभागों और भारतीय विज्ञान संस्थान (1909 में स्थापित) जैसे कई अन्य संस्थानों को नेहरू के भारत को मॉडर्न बनाने की सोच को साकार करने की कवायद की तरह देखा जा सकता है.


नेहरूवादी की धर्मनिरपेक्षता ने धर्म को नकारा नहीं 


हालांकि,अतिथि सत्कार की संस्कृति और लोकाचार जिसका मैं जिक्र  करता हूं वो नेहरू की शख्सियत के अन्य आयाम थे, लेकिन नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की धारणा की मजबूती और उसके दृढ़ पालन से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं था. बढ़-चढ़ कर ये भी कहा जाता रहा है कि आम भारतीय की धर्म के लिए कथित रूप से न बुझने वाली प्यास को समझने के लिए नेहरू बहुत अधिक अंग्रेजीदां और जनता के साथ संपर्क से बाहर थे, लेकिन यह तर्क उतना ही हास्यास्पद है जितना कि यह इस तथ्य के लिए असंवेदनशील है कि नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता बिल्कुल भी ऐसी नहीं थी जो भारतीय सार्वजनिक जीवन में धर्म की अहमियत को नकारे.


जिस धर्मनिरपेक्षता को नेहरू ने अपनाया था उसकी जड़ें धर्म के परित्याग में नहीं, बल्कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र-राज्य में बदलने की स्पष्ट अस्वीकृति में या इस धारणा को व्यक्त करती दिखाई देती हैं कि हिंदुओं को अन्य धर्म के अनुयायियों के मुकाबले नौकरियों, विश्वविद्यालय की सीटों आदि में वरीयता दी जाएगी. यही वजह है कि 1951 में नवनिर्मित सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के मौके पर नेहरू यह सुनकर चकित रह गए कि राजेंद्र प्रसाद ने इस समारोह की अध्यक्षता के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया था जो भारत के राष्ट्रपति के तौर पर केवल हिंदुओं का ही नहीं बल्कि सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते थे. 


नेहरू के अधीन भारत के किसी भी विचार में दुनिया में भारत को लेकर उनके नजरिए से किसी को बेखबर नहीं होना चाहिए. यहां भी, भारत में इस सवाल का एक समकालीन मूल्यांकन मध्य वर्ग के बड़े हिस्से के बीच नेहरू के लिए लगातार दुश्मनी के भाव की वजह से लगभग मुश्किल हो गया है. जो इस धारणा से उत्तेजित है कि ये एक हिंदू के विशेषाधिकार के दावे करने का वक्त है. यह भी बढ़-चढ़ कर कहा जा रहा है कि नेहरू के अधीन भारत दुनिया की राजनीति में 'अप्रासंगिक' था और भारतीय प्रधानमंत्री की मूर्खतापूर्ण कहानियां हैं जो चीनियों के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की एक वादा की गई सीट को मूर्खतापूर्ण तरीके से छोड़ देते हैं और उसी चीन ने नेहरू की इस भलमनसाहत को नवंबर 1962 में भारत पर एक अकारण हमले के तौर पर वापस किया. इसी घटना का नेहरू के दिल का दौरा पड़ने में अहम योगदान रहा जिससे सोलह महीने बाद उनकी मौत हो गई.