राजस्थान में इस बार सियासी घमासान के नतीजे भले कुछ दिनों बाद निकलें, लेकिन फिलहाल तो अशोक गहलोत को बढ़त मिली दिखती है. भाजपा ने बिना किसी प्रत्याशी के ही चुनाव में जाने का फैसला किया है और वसुंधरा राजे उस तरह सब जगह नहीं दिखाई पड़ रही हैं, जैसा पिछली बार तक करती थीं. अशोक गहलोत ने एंटी-इनकम्बेन्सी से निबटने के लिए लोकलुभावन योजनाएं भी चलायी हैं, आलाकमान को भी अपने साथ रखा है और सचिन पायलट के विद्रोह को भी साध लिया है. 


गहलोत हैं मजबूत और मुस्तैद 


अशोक गहलोत अकेले पड़ गए हैं, यह एक खबर है जिसमें कोई दम नहीं है. वह पूरी तरह से मुस्तैद हैं. वह प्रियंका वाड्रा के साथ दिल्ली से लौटे हैं. उनका जो मतभेद किसी एक ग्रुप से था, वह दूर हो गया है. टिकट वाले मामले को लेकर भी बातें तय हो गयी हैं. तो, इस वक्त गहलोत जितने मजबूत नजर आ रहे हैं, वह तो कभी भी नहीं रहा. उनके अकेले पड़ने की खबरें दिल्ली में ही अधिक होंगी, जमीन पर उसका कोई लेना-देना नहीं है. इसका कोई आधार नहीं है. राजस्थान का सामाजिक समीकरण बहुत अलग किस्म का है. हर संभाग के अंदर यहां बड़ी बिरादरियां हैं, जैसे जाट हैं, गूजर हैं, मीणा हैं, ठाकुर हैं. उनकी अपनी-अपनी खापें हैं, अपना सिलसिला है. हरेक के पास दूसरे का तोड़ भी है.



जाटों में भी अगर एक खाप उधर चली गयी, तो दूसरी खाप को साध लिया जाता है. दूसरी जातियों को साध कर, अपनी लोकप्रियता के आधार पर, आपने जो कार्यक्रम चलाए हैं, उनका अगर असर है तो फिर दिक्कत नहीं होती है. यह बहुत स्वाभाविक रहा है. 1952 से लेकर आज तक राजस्थान में यही हुआ है. सामाजिक समीकरण को जिसने साध लिया, वो जीत गया. जयनारायण व्यास नहीं हुए, लेकिन मोहनलाल सुखाड़िया हो गए, उनके बाद हरदेव जोशी हो गए, फिर भैरोसिंह शेखावत देख लीजिए. उनके बाद अशोक गहलोत को देख लीजिए, वसुंधरा राजे को देख लीजिए. तो, ये सिलसिला चला आ रहा है. अब अगर मीडिया के सहारे कोई बात हो रही है, तो फिर उसका अभी तो कोई आधार नहीं दिखता है.  



वसुंधरा और गहलोत का नया सलीका


जो कुछ भी गहलोत ने वसुंधरा के बारे में कहा है, या मंच पर जिस तरह बातें की हैं, वह राजनीति का नया सलीका है. जिस तरह 2014 में आकर और प्रतिपक्ष को, शत्रु पार्टी के रूप में चित्रित करना, जिसको नष्ट होना जाना चाहिए और जिस तरह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने उत्तेजक बयान दिए, हालांकि गृहमंत्री ने बाद में कहा कि ये तो जुमले हैं. हालांकि, ये हकीकत है. जिस तरह से सेंट्रल एजेंसियों का इस्तेमाल हो रहा है, वह तो शत्रु भाव से ही हो रहा है. वह वसुंधरा के साथ भी हो रहा है, क्योंकि वह शीर्ष नेतृत्व से नाइत्तफाकी रखती हैं. वह जवाब देना जानती हैं. उन्होंन 2014 से मोदी और शाह को जवाब भी दिया है और उनकी फॉलोइंग भी भाजपा के अंदर ही स्पष्ट है. वह जो काम कर गयीं, वो भैरोसिंह शेखावल भी नहीं कर पाए.


पहली बार भाजपा को 200 विधानसभा सीटों में 120 सीटें भी वसुंधरा की वजह से मिलीं और फिर रिकॉर्डतोड़ विजय भी जो 160 से अधिक सीटों के साथ मिली. तो, जिन्होंने ये पाया है, जो उनकी उपलब्धि है, जो उन्होंने जनमानस से जुड़ना सीखा है, चाहे वह वसुंधरा राजे हों या गहलोत हों, उनका तो सम्मान करना होगा. आप अगर सम्मान न कर उनको हाशिए पर डालेंगे तो उसका तो विरोध होगा न. इन्होंने तो सम्मान को नष्ट करने का सिलसिला शुरू किया है. यह बात किसी को अच्छी नहीं लग रही है कि उनको हाशिए पर धकेला जा रहा है. हालांकि, वसुंधरा अब उसका भी तोड़ निकाल चुकी हैं और अपनी चुप्पी से ही जवाब दे रही हैं.


भाजपा बनी इसलिए थी कि इस देश की राजनीति बने. राजस्थान ने वह दिन भी देखें हैं, जब अब्दुल करीम छागला अध्यक्षता कर रहे थे और वाजपेयी जी बोल रहे थे. तब छागला ने कहा था कि उनको लगता है कि कांग्रेस का विकल्प पैदा हो गया है. कांग्रेस की तानाशाही और जो तत्कालीनी नीतियां थीं, उन पर ये प्रहार था, लेकिन आज की भाजपा तो उसी रंग में ढल गयी है. जिस तरह की गुलामी है वहाँ, वो तो बिल्कुल गजब है. हमारे 25 सांसद हैं, पर एक को छोड़कर किसी की आवाज कहां सुनाई देती है. तो, ये कांग्रेस का विकल्प कहां बन पाए हैं?  


रोटी नहीं पलटेगी जनता इस बार 


इस बार राजस्थान का माहौल बिल्कुल साफ-साफ बना है. एक तरफ एनडीए, दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन. जाटों में भी आज कई हिस्सों में बिखराव है. भाजपा से लोग नाराज हैं. अब आरएलपी जैसी जो पार्टी बनी है, युवाओं की, वह इसी चक्कर में तो बनी है. तो, ये कहना कि जनता रोटी पलट देगी, ठीक नहीं है. कुछ हजार लोगों से बात करके पूरै प्रदेश का मूड आंकना थोड़ा ठीक नहीं है. इस बार जनता रोटी पलटने के मूड में नहीं है. गहलोत के खिलाफ इस बार एंटी-इनकम्बेन्सी नहीं है. इस बार तो गहलोत ने यह कहा है कि ये तो डायरेक्टिव प्रिंसिपल के जरिए वह जनता की सेवा कर रहे हैं, कोई अहसान नहीं कर रहे हैं, यह तो जनता का अधिकार है. तो, भाषा ही बदल रही है.


अगर यह भाषा बदल रही है तो इसका स्वागत करना चाहिए. जो दिल्ली से राजनीति चल रही है, उसको बदलना ही चाहिए. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार दुबारा आ रही है औऱ सब लोग वे मिलकर लड़ रहे हैं. राजनीति में सब अपना हित साधते हैं, तो इसलिए कोई जरूरी नहीं है कि गहलोत ही आएं, उनको बदला भी जा सकता है. विधायक जो कुछ भी चाहेंगे, वह हो सकता है. इसको अभी नहीं कह सकते हैं कि आगे मुख्यमंत्री कौन बनेगा. वह बात भले कह दी जाए कि आलाकमान फैसला करेगा, लेकिन वह पहले से ही पता होता है. 1970 में जब हरदेव जोशी बने सीएम तो केंद्र से रामनिवास मिर्धा आ गए उनके खिलाफ लड़ने. वह पराजित हुए. तो, उसके बाद से ही यह परंपरा बंद हुई और पहले ही सबकी राय ले ली जाती है, तो फिर कोई संकट नहीं पैदा होता है. पिछली बार भी यही हुआ था. संख्या बल को तो साधना ही होगा. 




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