बिहार सहित उत्तर प्रदेश की राजनीति में अचानक ही सरगर्मियां बढ़ने लगी हैं. वैसे तो नीतीश कुमार के फूलपुर से संसद का चुनाव लड़ने की बात पिछले कई महीनों से रह-रह कर उठ रही थी, लेकिन शनिवार 29 अक्टूबर को नीतीश ने पहली बार इस संबंध में कुछ सकारात्मक संकेत दिए. उनसे मिलने गए यूपी-जेडीयू के नेताओं ने जब फूलपुर का प्रस्ताव उनके सामने रखा, तो नीतीश ने दिसंबर में यूपी में सभा करने की सहमति दी. यानी, वह सभा में उपस्थिति देखकर पानी की थाह लेना चाहते हैं. वैसे, यूपी में कुर्मी एक ताकतवर वोट-ब्लॉक है, राजनीतिक और सामाजिक दोनों तौर पर. नीतीश अगर फूलपुर से चुनाव लड़ते हैं, तो कई नए समीकरण बनने तय हैं.

  


नीतीश की नजर कुर्मी वोटों पर 


नीतीश कुमार के फूलपुर से चुनाव लड़ने की बात पिछले कई महीनों से कई बार उठ चुकी है. उनके एक मंत्री हैं श्रवण कुमार, जो नीतीश के बहुत करीबी भी माने जाते हैं और उन्होंने फूलपुर के कई दौरे भी किए हैं. कल जब उत्तर प्रदेश जेडीयू के नेता नीतीश कुमार से मिले, तब से ये चर्चा काफी तेज हो गयी है. यूपी में कुर्मी एक ऐसी जाति है जो ओबीसी में दूसरे स्थान पर है. वह वोट के मामले में भी ताकतवर है, राजनीतिक तौर पर भी ताकतवर है. लगभग 6 फीसदी वोट उनके पास है और कुर्मियों ने खुद को राजनीति में प्रासंगिक बनाया हुआ है. भले ही वह कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए, लेकिन मुख्यमंत्री जो भी नेता बना है, वह उनके सहयोग के बिना नहीं हुआ है. हालिया वर्षों में या पिछले 20-30 वर्षों की राजनीति देखें तो कल्याण सिंह की सफलता में उनके साथ ओमप्रकाश सिंह जैसे कुर्मी नेता शामिल थे, तो मुलायम सिंह के साथ बेनीप्रसाद वर्मा जैसे मजबूत नेता थे और अभी भाजपा की हालिया सफलता में स्वतंत्र देव सिंह और अपना दल की अनुप्रिया पटेल के योगदान से आप इन्कार नहीं कर सकते हैं. तो, कुर्मी समाज का दबदबा बना हुआ है. इस बिरादरी का दबदबा आप इसी से समझ सकते हैं कि केवल 6 फीसदी वोट रखनेवाले इस समाज के 41 विधायक अभी यूपी विधानसभा में हैं. 



यूपी में कुर्मी समाज का सर्वमान्य नेता नहीं


बेनीप्रसाद वर्मा के अवसान और बीजेपी में नरेंद्र मोदी काल की राजनीति के बाद कुर्मी समाज का कोई सर्वमान्य नेता नहीं बन पाया है, इसलिए अलग-अलग पॉकेट में उनके नेता हैं. हालांकि, 2014 और 2017 के चुनाव अगर हम देखें तो पाते हैं कि भाजपा को एकमुश्त वोट मिले, लेकिन 2022 में समाजवादी पार्टी को भी कुर्मियों के वोट मिले. उसके लगभग एक दर्जन विधायक सपा के साथ रहे. कुर्मी सत्ता के रुख को भांपकर उधर जाते हैं और सामाजिक न्याय के लिहाज से देखें तो यह बहुत आक्रामक जाति नहीं है, लेकिन बहुत ही जागरूक और सत्ता के प्रति सतर्क बिरादरी है. गंगापट्टी से लेकर तराई तक लगभग चार दर्जन सीटें ऐसी हैं, यानी कानपुर, प्रयागराज, कौशांबी होते हुए महाराजगंज, श्रावस्ती और बहराइच अगर आएं तो उस पर कुर्मियों का असर है. जहां तक नीतीश कुमार का सवाल है, तो वह उस बिरादरी से आते हैं, उन्होंने बिहार में लव-कुश समीकरण भी बनाया था, लेकिन उत्तर प्रदेश में उतने बड़े कद का कोई नेता लंबे समय से रहा नहीं है. ऐसे में नीतीश कुमार अगर फूलपुर से चुनाव लड़ने की बात मान लेते हैं, जैसा कि उन्होंने संकेत भी दिया है, तो इंडिया गठबंधन के लिहाज से यह सकारात्मक बात होगी. इसलिए, कि जब पूरे प्रदेश की राजनीति पिछड़ों और अति-पिछड़ों के इर्गगिर्द घूम ही रही है, तो कोई भी पार्टी इस ताकतवर ब्लॉक को नजरअंदाज नहीं कर सकती. अखिलेश य़ादव ने भी बीते कई महीनों से इस समाज को टारगेट करना शुरू कर दिया है. कुछ दिनों पहले प्रतापगढ़ में उन्होंने दो दिनों का अपनी पार्टी का कार्यक्रम रखा था. वह सीट भी ऐसी है, जहां कुर्मी प्रभावी हैं और अगल-बगल की सीटों पर भी प्रभाव पड़ता है. एक बात ये जरूर है कि कुर्मी समाज के अलग-अलग क्षत्रप हैं और कोई एक बड़ा नेता अभी परिदृश्य में आया नहीं है. 


फूलपुर सीट ही इस वजह से


फूलपुर सीट का काम्बिनेशन दिलचस्प है. लगभग 20 प्रतिशत कुर्मी वोटर हैं, उसके अलावा यादव और मुस्लिम वोटर हैं और यह अच्छा समीकरण है. भारत की राजनीति में यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि नेहरू से लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह का भी चुनाव लड़ना रहा है. तो, फूलपुर का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है कि यहां से प्रधानमंत्री पद का रास्ता भी जाता है. यहां से नीतीश कुमार का लड़ना, जिनकी शुरुआत की वजह से और मेहनत के कारण इंडिया गठबंधन बना, ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं है, ऐसे मैसेज का देना होगा कि अगर इंडिया गठबंधन सफल होगा तो नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे. इससे बड़ा यह भी कारण है कि कुर्मी समाज का कोई बड़ा, सर्वमान्य नेता न होने के कारण, अगर नीतीश कुमार आते हैं तो पूरे प्रदेश के कुर्मी समाज का रुझान इंडिया गठबंधन की तरफ जा सकता है. जहां तक सपा में कुर्मी नेतृत्व का प्रश्न है, यूपी के अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल उसी बिरादरी से आते हैं. हालांकि, वह व्यापक प्रभाव नहीं रखते हैं, लेकिन सपा ने काफी समय से उनको पद दे रखा है. जब अपना दल में टूट हुआ, तो अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाला धड़ा एनडीए में रहा, लेकिन उनकी मां कृष्णा पटेल और बहन पल्लवी पटेल सपा के साथ रहीं. कृष्णा पटेल हालांकि, चुनाव नहीं जीत सकीं लेकिन पल्लवी पटेल ने डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को सिराथु सीट से हराया. कुर्मी नेता सोनेलाल पटेल की विरासत का बड़ा हिस्सा इस तरह सपा ने अपने साथ किया है. पश्चिम में, बरेली वाले इलाके में भागवतचरण गंगवार हैं, कद्दावर नेता रहे बेनीप्रसाद वर्मा का परिवार, उनके बेटे राकेश वर्मा और पोती इरा वर्मा सपा के साथ हैं. इस बार इरा वर्मा को लोकसभा चुनाव में उतारा जा सकता है. विरासत या नए नेताओं, जैसे प्रतापगढ़ में एसपी सिंह एक चर्चित नाम हैं, को जोड़कर सपा इस वोट-ब्लॉक को अपनी ओर ला रही है. 


नीतीश के आने का फायदा


नीतीश के आने के बाद सपा को नुकसान या फायदा है, इस पर अगर सोचें तो इंडिया गठबंधन के लिहाज से फायदा है. लंबे समय की पॉलिटिक्स के हिसाब से देखें तो जेडीयू का कोई बड़ा आधार कभी यहां था नहीं. इसलिए कि, समाजवादी आंदोलन से निकले नेताओं ने अपना इलाका बांट लिया था. नीतीश बिहार में व्यस्त रहे, और मुलायम ने यहां की पॉलिटिक्स संभाल ली. दीर्घकालीन बात देखें तो इसकी कोई संभावना भी नहीं है. जहां तक दो दर्जन सीटों का सवाल है, तो वह तो संभव नहीं दिखता है. बातें तो होती रहती हैं, लेकिन वह व्यावहारिक नहीं है. फूलपुर दूसरी सीट हो रही है. जौनपुर पर भी धनंजय सिंह के जरिए जेडी-यू ने अपना दावा ठोंक रखा है, लेकिन उसके अलावा नहीं लगता कि जेडी-यू कुछ और दावा करने की स्थिति में है. हां, नीतीश कुमार के आने का एक सकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ेगा. जब जातीय समीकरण बनने होते हैं, तो नेताओं का कद बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. नीतीश कुमार के आने के बाद इस पट्टी के तमाम कुर्मी वोटर्स के बीच एक नये तरह का समीकरण और जातीय स्वाभिमान पनपेगा. 



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