पुरानी दिल्ली की एक पुरानी कहावत है कि जो काम आपके मन मुताबिक होते नहीं दिखता तो रायता फैला दो. यानी उस पूरे काम को बिगाड़ के रख दो. इसलिए सियासी गलियारों में ये सवाल उछल रहा है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रेशेखर राव ने अपनी रैली में कुछ खास नेताओं को बुलाकर विपक्षी एकता का कहीं रायता तो नहीं फैला दिया? वो इसलिए कि केसीआर ने खम्मम में हुई अपनी रैली में विपक्ष के अधिकांश नेताओं को तो बुलाया लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी के नेता व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव को न्योता तक नहीं दिया.


हालांकि, इस पर नीतीश ने अपनी सफाई दी है कि वो उनकी पार्टी की बैठक थी जिसमें किसी को बुलाना, न बुलाना उनका अधिकार है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बनाने के सूत्रधार बनने वाले नीतीश की इस उपेक्षा को आखिर क्या समझा जाये? इसमें कोई शक नहीं कि नीतीश की तरह ही केसीआर के भीतर भी पीएम पद का उम्मीदवार बनने की लहरें हिलोरे मार रही हैं. लेकिन पिछले दिनों ही नीतीश कुमार ये साफ कर चुके हैं कि उन्हें राहुल गांधी के उम्मीदवार बनने पर कोई एतराज नहीं है लेकिन इस पर पहले सब लोगों को बैठकर तय करना होगा.


नीतीश के इस बयान के बाद ये मान लिया गया कि पीएम पद के उम्मीदवार बनने की दौड़ से उन्होंने खुद को बाहर कर लिया है. बता दें कि बिहार की महागठबंधन सरकार में कांग्रेस भी एक भागीदार है लिहाजा नीतीश कोई ऐसी बात कहने से परहेज़ ही करेंगे कि 2024 से पहले ही उनकी सरकार पर कोई आफ़त आ जाये. लेकिन सोचने वाली बात ये भी है कि केसीआर ने तीन प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों-अरविंद केजरीवाल, भगवंत मान और पिरामई विजयन के साथ ही यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को साथ लेकर तीसरा मोर्चा बनाने की जो कवायद की है, क्या वो कामयाब होगी? 


एक अहम सवाल ये भी बनता है कि मोदी सरकार के खिलाफ सबसे मुखर रहने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आखिर इसमें शामिल क्यों नहीं हुईं? हम नहीं जानते कि केसीआर ने उन्हें न्योता दिया था या नहीं लेकिन मौजूदा सियासी माहौल में वे भी पीएम उम्मीदवार बनने की इस रेस में बड़ी दावेदार हैं. लेकिन हम जैसे पत्रकार-लेखक किसी को भी नसीहत देने की हैसियत में नहीं है कि समूचे विपक्ष को एकजुट किए बगैर ऐसी सारी कवायद हवा में उड़ जाएगी. लेकिन जब तमाम विपक्ष ये चीखता-चिल्लाता है कि देश के मीडिया को डरा दिया गया है और वो अपने स्वतंत्र  विचार नहीं रख सकता तब विपक्षी दलों को ये समझाना भी जरूरी हो जाता है कि हम डरे नहीं हैं लेकिन पहले खुद तो अपना घर मजबूत कीजिये.


तीसरा या चौथा मोर्चा बनाने की सबको छूट है लेकिन उन्हें राजनीति का अतीत भूलने की गलती तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए. इस देश की सियासत का इतिहास बताता है कि कांग्रेस बेशक सत्ता से बाहर रही हो लेकिन वो इतनी मरी हालात में कभी नहीं रही कि उसके बगैर सत्ता-परिवर्तन के सपने को साकार करने के लिए बिखरा हुआ विपक्ष कुछ सोच भी सके. ये सवाल इसलिये उठ रहा है कि आप जिस मोदी सरकार को सत्ता से बाहर करने का सपना देख रहे हैं वो कांग्रेस को साथ लिए बगैर क्या मुमकिन हो सकताहै.


एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने पिछले दिनों कहा था कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता के बारे में सोचना और मोदी सरकार को सत्ता से हटाना ऐसा सपना है जो कभी पूरा नहीं हो सकता. लिहाजा, केसीआर ने अपनी रैली में नीतीश कुमार को न बुलाकर बेशक अपनी दावेदारी जता दी है. लेकिन हकीकत तो ये है कि कोई भी गैर कांग्रेसी मोर्चा विपक्ष की ताकत को मजबूत नहीं करेगा, बल्कि अलग-अलग पार्टियों को मिलने वाले वोटों का बिखराव अगले चुनाव में बीजेपी की ताकत को और भी ज्यादा मजबूत करेगा.


शायद इसलिए केसीआर की रैली में जुटे और ना जुटे नेताओं को देखकर बीजेपी नेतृत्व बेहद खुश है कि संयुक्त विपक्ष के दम पर मोदी सरकार को चुनौती देने वालों का तो अब तक खुद ही कुछ ही नहीं पता है. इसलिए अब भारत जोड़ो पर निकले राहुल गांधी के लिए दिल्ली लौटते ही बड़ी चुनौती ये होगी कि वो विपक्ष को एकजुट करने के लिए क्या फार्मूला निकालते हैं और उस पर कितने दाल राजी होते हैं?


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