पहले जनसंघ और फिर जनता पार्टी के बाद 42 साल पहले अपने वजूद में आई बीजेपी अपने 'चाणक्य' को उनकी मौत के साथ ही भूल जायेगी, ये शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा.साल 1996 में बीजेपी को पहली बार इस देश की सत्ता में आने  के काबिल बनाने के लिए अपना 'चाणक्य' दिमाग चलाने वाले प्रमोद महाजन की असामयिक मौत के बाद पार्टी में तब सबको लगा था कि अब इस शून्य को आखिर कौन भरेगा. लेकिन बीजेपी में हाशिये पर कर दिए गए वरिष्ठ नेता मानते हैं कि वक़्त के साथ वो शून्य ऐसा भरा कि सरकार और पार्टी की ताकत महज़ दो लोगों के हाथ में ही सिमट कर रह गई है.चाहे जो कुछ झेलना पड़े लेकिन संघ का अनुशासन किसी को भी विरोध की आवाज़ उठाने की अनुमति नहीं देता.


ये हक़ीक़त तो बीजेपी की है लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी अब अपबे 'चाणक्य' से अनाथ हो गई है. जब तक अहमद पटेल जिंदा थे,वे पूरी पार्टी और राज्य की कांग्रेस सरकारों के बीच तालमेल बैठाने का ऐसा अचूक टोटका निकाल लेते थे कि न तो संगठन में कोई नाराज़ हो और न ही किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री को ये अहसास हो कि उस पर कोई गैर जरुरी दबाव डाला जा रहा है.


लेकिन अब वही कांग्रेस उस प्रशांत किशोर यानी पीके की सलाह मानने के लिए बेताब हो उठी है,जिसने 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव जीतने की रणनीति बनाई थी. बताते हैं कि बीजेपी में पीके का वजूद कुछ ज्यादा न बढ़ जाये, इसलिये एक ताकतवर नेता ने ऐसा माहौल बना दिया कि वो खुद ही पार्टी से किनारा कर लें, वरना उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया जाये. हुआ भी वही. फिर बिहार विधानसभा चुनाव सिर पर आते ही नीतीश कुमार ने भी पीके से चुनाव जीतने के  गणित को समझा और सत्ता में आते ही उन्हें जदयू के उपाध्यक्ष तक बना डाला. लेकिन पीके की यहां भी ज्यादा दिनों तक नहीं पटी और उन्होंने नीतीश की पार्टी को आखिर  गुड बाय कहना ही पड़ा.


पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों से पहले तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने पीके को अपनी पार्टी के लिए बुक कर लिया कि बीजेपी के ऐसे आक्रामक प्रचार का जवाब देने और चुनाव जीतने के लिए आखिर क्या रणनीति बनाई जाए. लेकिन पीके की दी हुई सही-गलत नीति पर आंख मूंदकर आगे बढ़ने के मुकाबले ममता ने अपना ज्यादा ध्यान पार्टी के उस काडर पर दिया,जो जमीन पर काम कर रहा था. जाहिर है कि पीके कोई सलाह मुफ्त में नहीं देते और उसके लिए मोटी फीस भी वसूल करते हैं. ममता ने भी वो दी ही होगी लेकिन उसके बाद उन्हें तृणमूल कांग्रेस में कोई पद देने की बजाय बेहद चतुराई से उन्हीने अपना पीछा छुड़ा लिया. प्रशांत किशोर को कांग्रेस अपने साथ जोड़ेगी या नहीं,ये अलग बात है लेकिन पिछले तीन दिनों में सोनिया गांधी से दो बार हुई उनकी मुलाकात के सियासी मायने अहम हैं,जिन्हें हवा में नहीं उड़ाया जा सकता.


दरअसल, प्रशांत किशोर ने सोमवार को कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से उनके आवास पर तीन दिनों में दूसरी बार मुलाकात की है.इसमें जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के अलावा पार्टी के अन्य नेता भी मौजूद थे.इससे पहले शनिवार को भी प्रशांत किशोर ने सोनिया गांधी से मुलाकात की थी जिसमें उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ये समझाया था कि कांग्रेस किस तरह से बीजेपी को मात दे सकती है. उस बैठक में सोनिया के अलावा राहुल,प्रियंका गांधी समेत कुछ दूसरे नेता भी मौजूद थे. उस बैठक में पीके ने देश की 370 लोकसभा सीटों को लेकर तैयार की गई अपनी स्लाइड्स के जरिये ये समझाने की कोशिश की थी कि वहां बीजेपी को किस तरह से हराया जा सकता है और उसके लिए सिर्फ कांग्रेस नहीं बल्कि संयुक्त विपक्ष को क्या रणनीति अपनानी होगी.


दरअसल,इसे राजनीति का रॉकेट साइंस नहीं कह सकते,जो प्रशांत किशोर कांग्रेस नेताओं को समझाने में जुटे हुए हैं.वे कांग्रेस को सरल भाषा में ये समझा रहे हैं कि हिंदीभाषी प्रदेशों में कांग्रेस का सीधा मुकाबला बीजेपी से है,लिहाज़ा पार्टी वहां अपने जनाधार को अभी से मजबूत करे.जहां कांग्रेस कमजोर है, वहां अपने सहयोगी दलों के लिए वह सीट छोड़ दे लेकिन उस सीट को जिताने के लिए वो अपने कार्यकर्ताओं को हर संभव संसाधन जुटाने की मदद देने में कोई कंजूसी न बरते.ये कोई ऐसा फार्मूला नहीं है,जो कांग्रेस के लिए अलाद्दीन का चिराग़ साबित हो जाये लेकिन गांधी खानदान की मुसीबत ये है कि वे पार्टी के भीतर से उठने वाले अपने ही नेताओं के सवाल का जवाब देने की बजाय बाहर से मिलने वाली हर सलाह पर आंख मूंदकर यकीन करने पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करती है.


हालांकि कांग्रेस से जुड़े सूत्र कहते हैं कि सोमवार को महबूबा मुफ्ती की मुलाकात के पीछे प्रशांत किशोर का राजनीतिक दांव है.सियासी हलकों में सोनिया-महबूबा की हुई इस  मुलाकात को राजनीति में एक बड़ी हलचल पैदा करने वाली मुलाकात के रुप में देखा जा रहा है.लेकिन कहते हैं सियासत, शतरंज की वो बिसात है,जहां दुश्मन आपकी चाल को भांप भी लेता है और उसे शिकस्त देने के लिए अपनी अगली चाल चलने के लिए दिमागी तौर पर बेहद सतर्क भी रहता है.


शायद इसीलिए राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव कराये जाने का फ़िलहाल कोई ऐलान नहीं किया है.उसकी घोषणा होते ही सियासत को चौंकाने वाली बड़ी खबर ये भी तो मिल सकती है कि पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन का झंडा उठाने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ही कहीं अपनी नई पार्टी बनाने का ऐलान ही कर दें!



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