भारतीय संविधान 395 अनुच्छेद, 22 भाग, 12 शेड्यूल और पांच अपेंडिक्स यानी कि पांच परिशिष्ट से मिलकर बनी वो किताब जिससे पूरा देश चलता है. 26 जनवरी, 1950 से लागू इस संविधान में वक्त-वक्त पर कई बदलाव हुए हैं. लेकिन एक तथ्य ये भी है कि संविधान में बदलाव चाहे जितने भी हो जाएं, इसकी मूल भावना के साथ कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है. संविधान को इतनी शक्ति देने में जिस शख्स का सबसे बड़ा योगदान है, वो एक संत थे, जिनके एक मुकदमे की वजह से संविधान को इतनी शक्तियां मिलीं और जिसकी वजह से उस संत को संविधान का रक्षक कहा गया.


संविधान के उस रक्षक का नाम है केशवानंद भारती जो केरल के इदनीर हिंदू मठ के प्रमुख हुआ करते थे. अब भी किसी बड़े मुकदमे की बात हो और खासतौर से संविधान में किसी तरह के संशोधन की बात हो तो केशवानंद भारती श्रीपादगलवरु बनाम केरल राज्य का वो मुकदमा एक नजीर की तरह है, जिसमें अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी 13 जजों की बेंच बैठी थी और जिसमें फैसला 7 बनाम 6 जजों के मत से हुआ था. तब केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और फैसला सरकार के खिलाफ आया था.


केशवानंद भारती के संविधान का रक्षक बनने के दौरान की परिस्थितियों को थोड़ा समझने की कोशिश करें तो दिखता है कि 60 और 70 का दशक इंदिरा गांधी के अदालतों से टकराव का भी दशक रहा है. इंदिरा गांधी ने जो भी बड़े फैसले किए, सुप्रीम कोर्ट ने उनको पलट दिया और फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलटने के लिए इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन किए. उदाहरण के तौर पर जब गोलकनाथ बनाम पंजाब मामले में सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों की बेंच ने फैसला दिया कि संसद को संवैधानिक स्वतंत्रता को खत्म करने या कम करने की शक्ति नहीं है तो फिर इंदिरा गांधी सरकार ने 24वां संविधान संशोधन किया, जिसके जरिए संविधान के अनुच्छेद 13 और 368 को संशोधित किया गया. 


इससे संसद के पास मौलिक अधिकारों में स्वतंत्र रूप से संशोधन करने का अधिकार मिल गया. जब इंदिरा गांधी की सरकार ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला किया तो सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी के उस फैसले को पलट दिया और कहा कि अगर किसी की संपत्ति को जब्त किया जाता है तो संविधान मुआवजे की गारंटी देता है. अब अगर इंदिरा इस फैसले को मान लेतीं तो कभी बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो ही नहीं पाता. लिहाजा इंदिरा ने 25 वां संविधान संशोधन किया और बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. प्रिवी पर्स के मामले में भी जब इंदिरा ने प्रिवी पर्स खत्म किया तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे पलट दिया. लिहाजा इंदिरा गांधी की सरकार ने 26वां संविधान संशोधन किया और प्रिवी पर्स को खत्म कर दिया.


इसी दौरान केरल की सरकार ने दो भूमि सुधार कानूनों के जरिए केरल के इदनीर हिंदू मठ की 400 एकड़ में से 300 एकड़ जमीन किसानों को पट्टे पर दे दी. केरल सरकार ने जो दो भूमि कानून बनाए थे, उनको संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया था. संविधान की नौंवी अनुसूची में कहा गया था कि इस अनुसूची के विषयों की न्यायिक समीक्षा हो ही नहीं सकती है. यानी कि इस मामले में कोर्ट का कोई दखल हो ही नहीं सकता है.


संसद के पास संविधान में संशोधन के असीमित अधिकारों को देखते हुए केरल के इदनीर हिंदू मठ के मुखिया केशवानंद भारती ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. केशवानंद भारती की ओर से वकील ननी पालकीवाला ने पैरवी की और संविधान के अनुच्छेद 368 को चुनौती दी, जिसमें संसद के पास संविधान के संशोधन की असीमित शक्तियों की बात हुई थी. सुप्रीम कोर्ट को देखना ये था कि क्या वाकई संसद के पास संविधान में संशोधन की असीमित शक्तियां हैं और क्या संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकार भी निरस्त किए जा सकते हैं.


इससे पहले भी गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें 11 जजों की बेंच बनाई गई थी. अब केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के इस मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में 13 जजों की बेंच बनाई गई. ये अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी बेंच है. चीफ जस्टिस एसएम सीकरी की अगुवाई वाली इस बेंच में शामिल थे जस्टिस एसएम सीकरी, जस्टिस एएन ग्रोवर, जस्टिस एएन राय, जस्टिस डीजी पालेकर, जस्टिस एचआर खन्ना, जस्टिस जेएम शेलाट, जस्टिस केके मैथ्यू, जस्टिस केएस हेगड़े, जस्टिस एमएचबेग, जस्टिस पी जगनमोहन रेड्डी, जस्टिस एसएन द्विवेदी और जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़. 13 जजों की इस बेंच ने 68 दिनों तक केस की सुनवाई की और फैसला 7 बनाम 6 के मत से आया, जिसमें कहा गया कि प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और कर्तव्य संविधान का मूल ढ़ांचा है, जिससे न तो छेड़छाड़ हो सकती है और न ही इसमें किसी तरह का कोई संशोधन हो सकता है. 703 पन्नों में आए इस फैसले में ये भी कहा गया था न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी संविधान के मूल ढांचे का ही हिस्सा है और सुप्रीम कोर्ट के पास ये अधिकार है कि वो संविधान में संशोधन की संवैधानिकता को परख सकेगा.


24 अप्रैल, 1973 को आया सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला भारतीय इतिहास में एक नजीर है, जिसने किसी भी सरकार को निरंकुश बनने से रोक रखा है. यही वो फैसला है, जिसके जरिए कोई भी सरकार संविधान में संशोधन के जरिए अपनी मनमानी नहीं कर पाती है क्योंकि उसके सामने सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा की दीवार खड़ी होती है. और भारत ही क्यों, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य का ये फैसला दुनिया के कुछ दूसरे मुल्कों जैसे बांग्लादेश, युगांडा और सेशल्स के लिए भी नजीर है, जहां इस फैसले के हवाले से कई महत्वपूर्ण निर्णय सुनाए गए हैं. 


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