जिसे हम दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत यानी संयुक्त राष्ट्र कहते हैं उसी मंच से 45 बरस पहले भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हिंदी में भाषण देकर दुनिया को ये अहसास कराया था कि उनकी मातृभाषा न तो बेचारी है और न ही किसी भी अन्य विदेशी भाषा से कमतर है. साल 1977 में वो पहला मौका था जब संयुक्त राष्ट्र के सभागार में पहली बार हिंदी की गूंज सुनकर वहां मौजूद तमाम प्रतिनिधियों ने वाजपेयी के भाषण का खड़े होकर अभिवादन किया था. वो सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया में सबसे अधिक बोली जानी वाली चौथे नंबर की भाषा हिंदी के प्रति भी अभूतपूर्व सम्मान की घड़ी थी.


आज हिंदी दिवस है जिसे साल में एक दिन पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है और कहने को सरकारी दफ्तरों में हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़े का आयोजन होता है जो रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं होता. केंद्र सरकार को चलाने वाली नौकरशाही के ज्यादातर वे अफसर इस एक दिन में हिंदी बोलने और फाइलों पर हिंदी में ही नोटिंग लिखने की कोशिश करते हैं जो साल के बाकी 364 दिन हिंदी को हिकारत की निगाह से देखते हैं.


हालांकि पिछले आठ सालों में सरकारी कामकाज करने की शैली और भाषा में भी काफी बदलाव आया है और हिंदी अब अपने उस वजूद में आती दिख रही है जो देश को आज़ादी के बाद उसे अब तक नहीं  मिली थी. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकारी कामकाज में हिंदी को बढ़ावा देने का जो अभियान चलाया हुआ है उससे देश की युवा पीढ़ी में एक बड़ी उम्मीद ये जगी है कि सिर्फ अंग्रेजी नहीं बल्कि हिंदी ही अब उनका बेड़ा पार लगा सकती है क्योंकि देश का भविष्य भी अब हिंदी में ही है. अटलजी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के उन छह साल के कार्यकाल और अब मोदी सरकार के इन सवा आठ साल को छोड़ दें तो सरकारी गलियारों में अंग्रेजी की हैसियत एक महारानी की ही रही और हिंदी को उसकी दासी समझते हुए वैसा ही बर्ताव किया गया. 


शायद इसलिये कि इन पूरे सालों में सत्ता पर काबिज रहे हुक्मरानों ने हिंदी को वोट मांगने के लिए भाषण देने का महज़ एक जरिया समझा और सब कुछ जानते हुए भी न सिर्फ उसके महत्व को नकारा बल्कि उसके फलने-फूलने के लिये भी की प्रयास नहीं किये. हिंदी भारत में सबसे अधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा है लेकिन अफसोस होता है कि आजादी के 75 साल बाद भी वह राष्ट्रभाषा का दर्जा हासिल करने के लिए तरस रही है. दरअसल, 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने निर्णय लिया गया था कि हिंदी भारत की राजभाषा ही होगी. भाषा के मुद्दे पर संविधान सभा में लंबी बहस हुई थी जिसके बाद सभा इस फैसले पर पहुंची कि भारत की राजभाषा हिंदी (देवनागिरी लिपि) होगी लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल बाद यानी 1965 तक सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में ही किए जाएंगे.


हालांकि तब भी हिंदी समर्थक बालकृष्ण शर्मा और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे नेताओं ने अंग्रेजी का पुरजोर विरोध किया था. साल 1965 में सरकार को राष्ट्रभाषा पर फैसला लेना था. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का फैसला तय कर लिया था लेकिन इसकी भनक लगते ही तमिलनाडु समेत दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन शुरु हो गए. दक्षिण भारत के कई इलाकों में हिंदी की किताबें जलने लगीं, कई लोगों ने तमिल भाषा के लिए अपनी जान तक दे दी जिसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमिटी को झुकने पर मजबूर होना पड़ा. कांग्रेस नीत सरकार ने अपने फैसले पर नरमी दिखाई और एलान किया कि राज्य अपने यहां होने वाले सरकारी कामकाज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है.


कांग्रेस के फैसले में कहा गया था कि केंद्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल किया जाएगा और इस तरह हिंदी कड़े विरोध के बाद देश की सिर्फ राजभाषा बनकर ही रह गई. राष्ट्रभाषा आज तक नहीं बन पाई. यही कारण है कि भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को अभी तक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला हुआ है. हालांकि देश में कुल 22 भाषाओं को आधिकारिक दर्जा मिला हुआ है जिसमें अंग्रेजी और हिंदी भी शामिल है.


आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर लाल किला की प्राचीर से पीएम मोदी ने देशवासियों से पांच प्रण का जिक्र करते हुए इसे पूरा करने का संकल्प लिया था. उम्मीद करनी चाहिए कि आजादी के अमृत काल में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रण भी पूरा होगा.


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