एक बेहद छोटा-सा कपड़ा है जिसे सिर ढकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. हिंदुओं में इसे चुन्नी या चुनरी कहा जाता है,तो इस्लाम में यही हिज़ाब कहलाता है.कितनी हैरानी की बात है कि देश की सर्वोच्च अदालत भी इस नतीजे पर नहीं पहुंच पाई कि शिक्षण संस्थानों में मुस्लिम लड़कियों को हिज़ाब पहनने की इजाज़त दी जाये या नहीं. दो न्यायाधीशों की खंडपीठ थी और दोनों ने ही एक -दूसरे के ख़िलाफ़ अपना फैसला सुनाते हुए ये जाहिर कर दिया कि वाकई ये मसला बेहद नाजुक है.


अब इस मामले का अंतिम फैसला मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ही करेगी.लेकिन बड़ा सवाल ये है कि सिर को ढकने वाला एक छोटा-सा कपड़ा धार्मिक और सियासी लड़ाई का इतना अहम औजार कैसे बन गया?और,ये भी कि इस लड़ाई से आखिर किसे ज्यादा फायदा किसे मिलने वाला है? हालांकि ये एक फैसला है,जो आने वाले वक्त में कानून की किताबों की नजीर बनेगा.इसलिये कि इससे साबित होता है कि देश की सर्वोच्च अदालत किसी दबाव में काम नहीं करती बल्कि वहां हर न्यायाधीश को किसी भी मामले में असहमति जताने का पूरा हक़ है.


लेकिन कहना गलत नहीं होगा कि कानून की इस लड़ाई में दो जजों की अलग-अलग राय ने देश की राजनीति में भी एक नया भूचाल ला दिया है.सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सुधांशु धूलिया ने हिज़ाब पहनने को अनिवार्य करार देते हुए इसे लड़कियों की आज़ादी माना और कर्नाटक हाईकोर्ट के हिज़ाब पर बैन जारी रखने के आदेश को रद्द कर दिया.लेकिन दूसरे जज जस्टिस हेमंत गुप्ता ने हिजाब बैन के खिलाफ दायर याचिकाओं को खारिज करते हुए हिजाब पर प्रतिबंध लगाने के कर्नाटक हाइकोर्ट के फैसले को बिल्कुल सही माना.


अब हमारे मीडिया चैनलों में ये बहस का विषय बन जायेगा कि न्याय के मंदिर में बैठकर इंसाफ करने वाले जज आख़िर वैचारिक मतभेद कैसे रख सकते हैं? सवाल ये भी उठाए जाएंगे कि एक हिंदू जज आखिर किसी अल्पसंख्यक समुदाय का पैरोकार कैसे बन सकता है? ऐसे ही और तमाम तरह के सवाल आज आपको न्यूज़ चैनलों की डिबेट में सुनाई देंगे लेकिन ऐसे सवाल उठाने वाले ये भूल जाते हैं कि यही धर्मनिरपेक्ष भारत की सबसे बड़ी पहचान है और देश का संविधान हर एक इंसान को अभिव्यक्ति के साथ ही सरकार से असहमति व्यक्त करने का अधिकार भी देता है.यदि सर्वोच्च न्यायपालिका भी सरकारी सुर में ही अपना राग अलापना शुरु कर देगी,तो इस देश का आम इंसान भला किस पर भरोसा करेगा और किससे उम्मीद की आस पालेगा?


वैसे भी ईमानदारी से देखेंगे तो इस देश का हर समझदार इंसान दोनों जजों की राय का सम्मान करेगा लेकिन हिज़ाब को मुस्लिम लड़कियों के लिए Right to Choice बताने वाले जस्टिस धूलिया की आलोचना इसलिये भी नहीं करेगा कि उन्होंने अपने पुरातन धर्म के ख़िलाफ़ कुछ गलत किया है.इसलिये कि इंसाफ़ करने की कुर्सी पर बैठे किसी भी शख्स के लिए हर धर्म-मज़हब की पवित्र पुस्तक से बड़ी होती है- कानून की किताब और इस देश का संविधान. लिहाज़ा, वे कोई भी फैसला देने से पहले नेताओं की तरह ये नहीं सोचते कि इससे हमारे 'वोट बैंक' पर क्या असर पड़ेगा.इसलिये हमारी विधायिका चाहे जितनी ताकतवर बन जाये लेकिन अगर उस पर से न्यायपालिका का अंकुश खत्म हो गया,तो उसे आवारा बनने में ज्यादा देर नहीं लगेगी.


हालांकि मुस्लिम लड़कियां व महिलाएं हिज़ाब पहले भी पहना करती थीं लेकिन अब हमारे देश में ये एक ऐसा मसला बन गया है,जिसमें राजनीति का तड़का लगा दिया गया है.लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि ऐसी सियासत का अंजाम आखिरकार खतरनाक ही होता है,जो महज़ पहनावे को लेकर दो समुदायों के बीच नफ़रत की दीवार खड़ी कर दे.बेशक आज ईरान जैसे कट्टरपंथी इस्लामी मुल्क में वहां की महिलाएं हिज़ाब का खुले आम विरोध कर रही हैं.लेकिन उस दलील का सहारा लेकर ये दावा करना गलत होगा कि भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए. इसलिये कि भारत न तो एक कट्टरपंथी देश है और न ही पूर्ण रुप से हिन्दू राष्ट्र है.ये एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है,जहां के संविधान ने सभी धर्मों-मजहबों-पंथों को उपासना के साथ ही उनके पहनावे को लेकर भी समान अधिकार दिए हुए है.


हम इस बहस में नहीं उलझना चाहते कि पवित्र कुरान में हिज़ाब को जरुरी बताया गया है कि नहीं. लेकिन जस्टिस सुधांशु धूलिया के फैसले की ये बात गौर करने वाली है कि "हाई कोर्ट को धार्मिक अनिवार्यता के सवाल पर नहीं विचार करना चाहिये था.कुरान में लिखी बात की व्याख्या गैरज़रूरी थी. इस मामले को व्यकितगत पसंद के मामले की तरह देखा जाना चाहिए था. इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए था कि लड़कियां बहुत कठिनाइयों का सामना कर पढ़ाई कर पाती हैं. स्कूल-कॉलेज में हिजाब पर रोक से उनके सामने एक और बाधा खड़ी हो जाएगी."


हालांकि ये अंतिम फैसला नहीं है लेकिन फिर भी एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने इसका स्वागत किया है.उन्होंने एबीपी न्यूज़ से कहा कि हिजाब के समर्थन में जो फैसला दिया है, यह हमारे लिए अच्छी बात है. हिजाब को बेवजह एक बड़ा मुद्दा बनाया गया. ओवैसी ने कहा कि समानता का मतलब ये नहीं है कि विविधता को खत्म कर दिया जाए. अगर स्कूल में बच्चे पढ़ने जा रहे हैं तो वो सभी धर्मों के बच्चों को देखेंगे. संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर का हिस्सा है विविधता.


उन्होंने एक और बुनियादी सवाल उठाते हुए कहा कि, ''स्कूल-कॉलेज में सिख को पगड़ी पहनने की इजाजत है. सिंदूर लगाकर, मंगलसूत्र पहनकर शैक्षणिक संस्थान में लोग आ सकते हैं. तो कोई हिजाब पहनकर क्यों नहीं आ सकता है. क्या हम संविधान में दिए गए अधिकार को स्कूल के गेट पर छोड़ देते हैं.''


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]