कृषि से जुड़े 3 विधेयकों को कानूनी जामा पहनाने की जिद का विरोध करते हुए एनडीए के सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल की इकलौती मंत्रिमंडल सदस्य हरसिमरत कौर (केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री) का इस्तीफा इस मुद्दे की गंभीरता अपने आप जाहिर कर देता है. उनके इस्तीफे को अगर पंजाब के किसानों के बीच अपनी साख बचाने के राजनीति के चश्मे से देखा जाए तो भी यह अच्छी राजनीति कही जाएगी. यह बात और है कि श्रीमती कौर ने यह कदम किसानों द्वारा अपना घर घेर लेने के पश्चात दबाव में आकर उठाया है.


प्रश्न यह है कि साल 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुना कर देने का वादा करने वाली भारी बहुमत की परम लोकप्रिय केंद्र सरकार के इन विधेयकों का तीखा विरोध क्यों हो रहा है? आखिर किसानों को क्यों लग रहा है मोदी सरकार उनकी मंडियां छीनकर कॉरपोरेट कंपनियों को देना चाहती है? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि देश भर के किसानों को लग रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार इन अध्यादेशों के माध्यम से उनकी गुलामी की नई इबारत लिखने जा रही है, जिसमें भारत की कृषि पर मल्टीनेशनल कंपनियों के कब्जे का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा. विपक्ष को आशंका है कि अध्यादेशों को वर्तमान कृषि संकट के उपाय के तौर पर पेश करके किसानों को दिग्भ्रमित करने के पूरे इंतजाम कर लिए गए हैं. हालांकि अपने जन्मदिन पर मोदी जी ने सफाई दी थी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और सरकारी खरीद जारी रहेगी. इसके बाबजूद देश की नवरत्न कंपनियों के विनिवेश तथा रेल्वे का निजीकरण न करने वाला वादा तोड़ने को देखते हुए किसान उनकी बात पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं.


गौरतलब यह है कि किसानों के मन में यह समझने की सलाहियत पैदा हो रही है कि इन अध्यादेशों का असली फायदा किसान बिरादरी को नहीं बल्कि मल्टीनेशनल कार्पोरेट को होने जा रहा है. अगर नए कानून सचमुच अमल में आ गए तो अन्नदाता की हैसियत बंधुआ मजदूरों जैसी हो जाएगी और उन्हें दैत्याकार कंपनियों के लिए अपने ही खेतों पर गुलामी करनी पड़ेगी. इन कंपनियों की ताकत कृषि की अत्याधुनिक तकनीक और बीजों पर नियंत्रण के क्षेत्र में है. पेटेंट बीजों के अखाड़े में किसान पूरा जोर लगाकर भी उनका मुकाबला नहीं कर सकता. यह गैर-बराबरी की लड़ाई होगी, जिसका नतीजा पहले से तय है. मोदी सरकार जिस संगठित खेती का रास्ता दिखा रही है, उस पर चलकर भारत का किसान भूमिहीन मजदूर की अवस्था को प्राप्त हो जाएगा और उसकी भूमि पर ठेके की खेती करने वाले और बिचौलिए असल मालिक बन बैठेंगे.


कृषक उपज व्याकपार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश-2020 राज्य सरकारों को मंडियों के बाहर बेची गई कृषि उपज और खरीद पर टैक्स लगाने से रोकता है तथा किसानों को लाभकारी मूल्य पर अपनी उपज बेचने की स्वतंत्रता देता है. सरकार का दावा है कि इस बदलाव के जरिए किसानों और व्यापारियों को किसानों की उपज की बिक्री और खरीद से संबंधित आजादी मिलेगी, जिससे किसानों को बेहतर दाम प्राप्त होंगे. सरकार का कहना है कि इस अध्यादेश से किसान अपनी उपज देश में कहीं भी, किसी भी व्यक्ति या संस्था को बेच सकते हैं. इस अध्यादेश में कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी मंडियों) के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने और खरीदने की व्यवस्था तैयार की गई है. सरकार एक देश, एक बाजार की बात कर रही है. लेकिन इसमें व्यावहारिक दिक्कत यह है कि जो किसान अपने जिले या तहसील स्तर पर अपनी उपज नहीं बेच पाता, वह दूसरे जिले या राज्य में कैसे बेच पाएगा. क्या किसानों के पास इतने साधन हैं कि वे अपनी उपज दूर ले जा सकें और बाहर की मंडियों में ले-जाने पर होने वाला खर्च वहन कर सकें? यह अध्यादेश कहता है कि बड़े कारोबारी सीधे किसानों से उपज खरीद सकेंगे, लेकिन ये यह नहीं बताता कि जिन किसानों के पास मोल-भाव करने की क्षमता ही नहीं है, जो मजबूरी में अपना अनाज बेचते हैं, वे इसका लाभ भला कैसे उठा पाएंगे. इस अध्यादेश की धारा 4 में कहा गया है कि किसान को पैसा तीन कार्य दिवस में दिया जाएगा. किसान का पैसा फंसने पर उसे दूसरे मंडल या प्रांत में बार-बार चक्कर काटने होंगे. न तो दो-तीन एकड़ जमीन वाले किसान के पास लड़ने की ताकत है और न ही वह इंटरनेट पर अपना सौदा कर सकता है.


मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा विधेयक फसल की बुवाई से पहले किसान को अपनी फसल को तय मानकों और तय कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा प्रदान करता है. इस अध्यादेश में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात है. सरकार की मानें तो इससे किसान का जोखिम कम होगा. दूसरे, खरीदार ढूंढने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा. सरकार का तर्क है कि यह अध्यादेश किसानों को शोषण के भय के बिना समानता के आधार पर बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम बनाएगा. केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कहते हैं कि इससे बाजार की अनिश्चितता का जोखिम किसानों पर नहीं रहेगा और इस अध्यादेश से किसानों की उपज दुनियाभर के बाजारों तक पहुंचेगी, साथ ही कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ेगा. इसके उलट हमारे सामने 30 साल पहले का उदाहरण है जब पंजाब के किसानों ने पेप्सिको के साथ आलू और टमाटर उगाने के लिए समझौता किया था, जो किसानों के लिए दुःस्वप्न साबित हुआ. इस अध्यादेश की धारा 2(एफ) में एफपीओ को भी किसान माना गया है तथा किसान और व्यापारी के बीच विवाद की स्थिति में उसे बिचौलिया भी बना दिया गया है. कोई भी विवाद सुलझाने के लिए 30 दिन के अंदर समझौता मंडल में जाना होगा. वहां न सुलझा तो धारा 13 के अनुसार एसडीएम के यहां मुकदमा करना होगा. एसडीएम के आदेश की अपील जिला अधिकारी के यहां होगी और जीतने पर किसान को भुगतान करने का आदेश दिया जाएगा. विवाद होने पर किसान की पूरी पूंजी वकील करने और ऑफिसों के चक्कर काटने में ही खर्च हो जाएगी और किसान के संरक्षण व सशक्तीकरण का दावा धरा का धरा रह जाएगा.


पहले व्यापारी कृषि उपज को किसानों से औने-पौने दामों में खरीदकर उसका भंडारण कर लेते थे और कालाबाजारी करते थे. इसे रोकने के लिए बुनियादी वस्तु अधिनियम 1955 बनाया गया था, जिसके तहत व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों का एक सीमा से अधिक भंडारण करने पर रोक लगा दी गयी थी. नया विधेयक आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू जैसी वस्तुओं को हटाने के लिए लाया गया है.


दरअसल सरकार जिसे कृषि-सुधार कह रही है वह अमेरिका, यूरोप जैसे कई देशों में पहले से ही लागू है. अमेरिकी कृषि विभाग के मुख्य अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि 1960 के दशक से किसानों की आय में गिरावट आई है और वहां बड़े पैमाने पर सब्सिडी के माध्यम से दी जाने वाली आर्थिक सहायता की वजह से खेती बची हुई है. भारत में तो सरकारें एमएसपी पर खरीद नहीं कर पा रही हैं, ऐसे में वे किसानों को विशाल सब्सिडी क्या खाकर देंगी! किसानों की यह आशंका अकारण नहीं है कि सरकार के इन फैसलों से मंडी व्यवस्था ही खत्म हो जायेगी, कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा, व्यापारियों की मनमानी बढ़ेगी और किसानों को औने-पौने दाम में अपना अनाज बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा. सरकार को याद रखना चाहिए कि हमारे किसानों की तुलना विदेशी किसानों से नहीं हो सकती क्योंकि हमारे यहां भूमि-जनसंख्या अनुपात पश्चिमी देशों से बिल्कुल अलग है और हमारे यहां खेती-किसानी जीवनयापन करने का साधन है, व्यवसाय नहीं.


हमारे सामने मिसालें मौजूद हैं कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों का शोषण होता है, भला नहीं. पिछले साल गुजरात में पेप्सिको कंपनी ने किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा ठोक दिया था, जिसे बाद में किसान संगठनों के विरोध के चलते वापस लेना पड़ा. दरअसल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत फसलों की बुआई से पहले कंपनियां किसानों का माल एक निश्चित मूल्य पर खरीदने का वादा करती हैं, लेकिन फसल तैयार होने पर वे किसानों को कुछ समय इंतजार करने के लिए कहती हैं और बाद में कम कीमत देने की चाल चल कर वही कंपनियां किसानों के उत्पाद को खराब बता कर रिजेक्ट करने लगती हैं. चूंकि किसानों के पास लंबे समय तक भंडारण की व्यवस्था नहीं होती है इसलिए बड़ी कंपनियां सस्ते दामों में कृषि उत्पाद खरीद कर कालाबाजारी करती हैं. सुपर मार्केट अपने बड़े-बड़े गोदामों में कृषि उत्पाद जमा कर लेते हैं और बाद में हमें ऊंचे दामों पर बेचते हैं.


नए कृषि कानून लागू करने के पीछे केंद्र सरकार की मंशा नेक हो सकती है. लेकिन उसे समझना चाहिए कि भारतीय किसान की जमीनी हकीकत वैसी नहीं है, जो दिल्ली में बैठ कर कानून का मसौदा तैयार करने वालों को दिखती है. आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बदलाव होने से निजी हाथों को खाद्यान्न जमा करने की इजाजत मिल जाएगी. सरकार का उस पर कोई नियंत्रण नहीं होगा. सरकार को समझना चाहिए कि कोरोना संकट के बीच लोगों को अनाज की किल्लत इसलिए नहीं हुई कि यह नियंत्रण सरकार के हाथ में था. नियंत्रण मुक्त होते ही निजी व्यापारी अनाज आपूर्ति श्रृंखला को पूर्णतः अपने हाथ में ले लेंगे, जिसका सीधा असर कीमतों में उछाल और अनाज की अनुपलब्धता के रूप में सामने आएगा. केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अपने तीनों कृषि अध्यादेशों को लेकर उठने वाली आशंकाओं, संभावनाओं और संभावित असर को लेकर आम किसानों, किसान संगठन प्रतिनिधियों, कृषि उद्यम से जुड़ी कंपनियों के मालिकों, कृषि उपकरण बनाने वाली कंपनियों, तकनीकी सहायता कंपनियों के मुखिया, कृषि वैज्ञानिकों, जैविक खेती को बढ़ावा देने वाले विशेषज्ञों के साथ पुनर्विचार करे.


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