गांव के चार युवकों ने जब सूरत (गुजरात) से बैरंग लौट कर आपबीती सुनाई कि नोटबंदी के बाद पिछले दो सालों में वहां का हीरा उद्योग बदहाल हो चुका है, नग तराशने वाले कई कारखाने बंद हो चुके हैं, तीन के बदले मात्र एक शिफ्ट में काम बचा है और कारीगरों-मजदूरों से कह दिया गया है कि पैसे बचा कर रखें, इस बार नवरात्रि की छुट्टी ज्यादा लंबी हो सकती है, तो गांव के ही कुछ लोगों ने उन्हें कामचोर और होम सिकनेस से पीड़ित बता कर उनका मजाक उड़ाया!


बता दें कि सूरत की लगभग 40 प्रतिशत इकाइयां 2107 के नवरात्रि पर्व के बाद से अब तक नहीं खुली हैं और गुजरात हीरा कर्मचारी यूनियन का कहना है कि करीब 60000 लोगों की नौकरी जाने के बाद 2018 में 10 से अधिक कर्मचारियों ने खुदकुशी कर ली थी. लेकिन कुछ लोग पिछली यूपीए सरकारों के साथ-साथ विजय माल्या, ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और जतिन मेहता जैसे फ्राडों के कारनामों और घपलों को इसका जिम्मेदार बता कर वर्तमान केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों का बचाव करते हैं.


देश में जब किसी विषय विशेष के गली-गली विशेषज्ञ पैदा हो जाते हैं तो उससे दो बातें साबित होती हैं- एक तो यह कि वह विषय बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़ चुका है, दूसरी यह कि उसकी अवस्था को लेकर जन-जन के मन में फिक्र और भय बढ़ने लगा है. भारत में ऐसे दो महान लोकप्रिय विषय पहले से ही मौजूद हैं- फिल्म और क्रिकेट. लेकिन आजकल जिस तरह अर्थव्यवस्था जैसे जटिल विषय के विशेषज्ञ गली-गली में पैदा हो रहे हैं, उससे चिंता और घबराहट बढ़ना स्वाभाविक है. इन विशेषज्ञों में दो तरह के लोग हैं- एक तो जिनुइन अर्थशास्त्री हैं, जो केंद्र सरकार को लगातार रसातल में जाती देश की आर्थिक स्थिति को लेकर चेतावनी दे रहे हैं और दूसरे वे हैं, जो भक्तिभाव से अर्थशास्त्री बने हुए हैं और सब कुछ पटरी पर होने का दावा कर रहे हैं. सबसे गंभीर बात यह है कि अपनी ही सरकार के ही आंकड़ों से आंखें फेरते हुए स्वयं पीएम मोदी और केंद्रीय वित्त मंत्री सीतारमण 2025 तक भारत की अर्थव्यवस्था को 5 खरब डॉलर के द्वार पर खड़ा हो जाने और भारत के विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के बीच मात्र चंद कदमों की दूरी बता रहे हैं!


बीजेपी ने पिछले ही महीने ट्वीट किया था कि वैश्विक मंदी के दौरान भारत सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनी हुई है. यह सफेद झूठ था क्योंकि भारत से यह तमगा पिछले साल ही छिन गया था जब भारत की 5 प्रतिशत जीडीपी के मुकाबले चीन का सकल घरेलू उत्पाद 6.2 प्रतिशत की दर से बढ़ा. विश्व के जाने-माने अर्थशास्त्री और हमारे पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर घटकर पांच प्रतिशत पर आने से आर्थिक हालात बेहद चिंताजनक हो गए हैं. मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की वृद्धि दर पिछले साल के 12 प्रतिशत मुकाबले मात्र 0.6 फीसदी रह गई है. इससे यह स्पष्ट है कि हमारी अर्थव्यवस्था नोटबंदी और जल्दबाजी में जीएसटी लागू करने की गलती से अब भी उबर नहीं पाई और हम आर्थिक नरमी के एक लंबे दौर में फंए गए हैं.


लेकिन सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर मनमोहन सिंह से इत्तेफाक न रखते हुए दावा कर रहे हैं कि विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था के मामले में मोदी सरकार ने भारत को यूपीए के दौर वाले 11वें से पांचवें स्थान पर पहुंचा दिया है. उनके उलट विश्व बैंक की रिपोर्ट बता रही है कि भारत की रैकिंग सातवें नंबर पर आ गई है. मौजूदा आर्थिक गिरावट को 'अभूतपूर्व स्थिति' करार देते हुए सरकार के ही नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने खुद कहा है कि बीते 70 सालों में तरलता (लिक्विडिटी) को लेकर आज जैसी स्थिति का सामना देश को कभी नहीं करना पड़ा, जिससे समूचा वित्तीय क्षेत्र (फाइनेंशियल सेक्टर) हिल गया है.


इस साल अब तक 8 कोर सेक्टरों में विकास दर सिर्फ 2.1 प्रतिशत दर्ज की गई है जबकि पिछले साल इसी दौरान वृद्धि दर 7.3 प्रतिशत थी. ऑटो, कोयला, उर्वरक, सीमेंट, मैन्युफैक्चरिंग, होटल, ट्रेड, दूरसंचार, कृषि, उपभोक्ता उत्पाद, रियल इस्टेट, कंस्ट्रक्शन यानी निर्माण, इन सभी क्षेत्रों में गिरावट दर्ज की गई है. मांग, उत्पादन, खपत बढ़ाने की कोई दिशा नजर नहीं आ रही है. तमाम इन्डीकेटर यह बताते हैं कि अर्थव्यवस्था बुरी स्थिति में है. सवाल यह है कि यदि सरकार को बदहाली का अंदाजा न होता तो केंद्रीय वित्त मंत्री सीतारमण उद्योगपतियों से उपाय पूछती फिरतीं और नए-नए स्टिमुलस पैकेज जारी करतीं? ऑटो सेक्टर समेत बैंकिंग सेक्टर, जीएसटी, कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए कई सुधारात्मक फैसले करतीं? यहां तक कि केंद्र सरकार को सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड से 1,76,051 करोड़ रुपए हस्तांतरित करवाने पड़े!


भारत में आज अर्थिक हालात ऐसे उत्पन्न हो गए हैं कि कोई भी किसी पर भी भरोसा नहीं कर रहा है. यह स्थिति सिर्फ सरकार और प्राइवेट सेक्टर के बीच नहीं है, बल्कि प्राइवेट सेक्टर के भीतर भी है, जहां कोई भी किसी को भी उधार देना नहीं चाहता. डिमांड साइड में ऐसी हाहाकारी कमी है कि करोड़ों की लग्जरी कारें तो छोड़ ही दीजिए, पीएम द्वारा किसानों को दी जाने वाली सहायता राशि की कुछ किश्तें पहुंचने के बावजूद पांच रुपए के बिस्किट की मांग भी घट गई है! केयर रेटिंग एजेंसी का कहना है भारत में आर्थिक सुस्ती के कारण नई नौकरियां भी धीमी पड़नी वाली हैं. ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट है कि बैंक, बीमा, ऑटो और लॉजिस्टिक और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र की कंपनियां बहुत कम भर्तियां करेंगी.


भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि इस बार की आर्थिक सुस्ती काफी चिंताजनक है. सरकार को जल्दी ही पावर और गैर बैंकिंग वित्तीय सेक्टर (एनबीएफसी) को ठीक करना होगा और निवेश के लिए नए सुधार करने होंगे. सरकार झुलस चुके आर्थिक सावन को कितना भी हरा-भरा दिखाने का दावा कर ले, लेकिन अर्थशास्त्रियों के बाद अब उद्योगपति भी बेचैन हो उठे हैं. महिंद्रा एंड महिंद्रा कंपनी के प्रबंध निदेशक पवन गोयनका की आशंका है कि बहुत से कार डीलर कंगाल हो सकते हैं और अगर त्योहारों में ऑटो सेक्टर में बदलाव नहीं आया तो डीलर और सप्लायर सभी दीवालिया होने लगेंगे. पिछले एक साल में 300 से ज्यादा डीलरों ने अपनी दुकान बंद कर दी है और 2 लाख लोगों की नौकरी चली गई है. मारुति सुजुकी इंडिया, हुंडई, महिंद्रा एंड महिंद्रा, टाटा मोटर्स और होंडा जैसी प्रमुख कंपनियों ने अगस्त में अपनी बिक्री में बड़ी गिरावट दर्ज की है.


एलएंडटी के चेयरमैन का बयान है कि सरकार की ‘मेक इन इडिया’ पर्याप्त नौकरियां पैदा करने में असफल रही है, क्योंकि ज्यादातर सेक्टरों में कंपनियां स्थानीय स्तर पर निर्माण करने के बजाए आयात करना पसंद करती हैं. आंकड़ा है कि नेशनल स्किल डेवलपमेंट सेंटर के तहत करीब 40 लाख लोगों को अलग-अलग काम में ट्रेनिंग दी गई, लेकिन मात्र 12 प्रतिशत को ही काम मिला. उधर रोड डेवलपर्स भी आर्थिक मंदी से पहले ही तबाह बैठे हैं. आर्थिक मामलों की पत्रिका मिंट के अनुसार इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों का प्रदर्शन जून में खत्म हुई पहली तिमाही में निराशाजनक रहा है और कर्ज में डूबी नेशनल हाईवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया की देनदारी पिछले पांच साल में सबसे अधिक हो गई है.


टेक्सटाइल सेक्टर की भी हालत खराब है. भारत से कॉटन यार्न का निर्यात अप्रैल से जून 2019 के बीच 33 प्रतिशत घट गया है. टेक्सटाइल सेक्टर से भारत भर में 25 लाख लोगों की नौकरी जाने की खबर आ रही है. जीसएटी के कारण पहले ही बड़ी मार पड़ी थी लेकिन टेक्सटाइल सेक्टर में अब 30 से 35 प्रतिशत बिक्री घट गई है. बता दें कि भारत में 10 करोड़ लोग टेक्सटाइल उद्योग से सीधे और अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े हुए हैं. माइनिंग सेक्टर में भी अगले साल 329 खनन पट्टों की वैधता समाप्त हो जाने के कारण 260,000 से अधिक लोगों के नौकरी खोने का खतरा पैदा हो गया है.


सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी यानी सीएमआई के आंकड़े हैं कि बेरोजगारी की दर बढ़ कर 8.2 प्रतिशत हो गई है, जो शहरों में 9.4 प्रतिशत तक दर्ज की गई. विदेशी निवेशकों ने अगस्त महीने में 5,920 करोड़ रुपए निकाल लिए और सेंसेक्स धड़ाम-धड़ाम गिर रहा है. अंतरराष्ट्रीय ब्रोकरेज कंपनी नोमुरा का कहना है कि सरकार की नीतियों और उसके उठाए कदमों में वैश्विक अविश्वास का सबूत यह है कि रुपया पूरे एशिया में सबसे कमजोर मुद्रा साबित हुआ है और अगस्त महीने में डॉलर की तुलना में इसका 3.65 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ, जो छह साल में सबसे भयंकर गिरावट है.


जब कुछ लोग भारत के 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाने का रास्ता पूछते हैं तो पीएम मोदी उनका 'पेशेवर निराशावादी' कह कर मजाक उड़ाते हैं. अर्थव्यवस्था का ‘अ’ भी न जानने वाले हिंदी फिल्मों के कुछ कलाकार और क्रिकेटर ‘अमर्त्य सेन’ बन कर सरकार के पक्ष में वित्तीय स्थिति का विश्लेषण करने लगते हैं! वास्तविकता यह है कि 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए भारत को अगले 5 साल तक हर साल 9 प्रतिशत की दर से विकास करना होगा. इस दर से वित्तीय वर्ष 2021 में भारतीय अर्थव्यवस्था 3.3 खरब डॉलर, 2022 में 3.6 खरब डॉलर, 2023 में 4.1 खरब डॉलर, 2024 में 4.5 खरब डॉलर और 2025 में 5 खरब डॉलर की बन सकती है. लेकिन सच्चाई तो यह है कि सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि की दर लगातार गिरती जा रही है और यह फिलहाल 5 प्रतिशत पर है.


यह स्थिति तब है जब केंद्र सरकार ने बेरोजगारी समेत तमाम आंकड़े छिपाए, जीडीपी गणना का तरीका बदल दिया और रिजर्व बैंक को लाभ में दिखाने के लिए लाभ आंकने के पैमाने भी बदल दिए गए! चिंताजनक बात यह है कि अर्थव्यवस्था के 8 कोर सेक्टरों में नकारात्मक ग्रोथ हुई है, यानी विकास बढ़ने के बजाए उल्टे घट गया! अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में इन सेक्टरों का योगदान 40 प्रतिशत से भी अधिक है. सरकारी बयानबाजी अपनी जगह है, लेकिन हकीकत यह है कि मंदी छाई हुई है, निवेश कम हो रहा है, निर्यात गिरा है, मांग-खपत कम हो गई है, कर उगाही कम हो रही है और लोगों की खरीदने की क्षमता लगातार घटी है. जो लोग अभी नौकरी में हैं वे भी आशंकित होकर पैसे खर्च नहीं करना चाहते. देश में रोजगार, उत्पादन, खपत और परचेजिंग पॉवर की अंतर्गुंफित कड़ी टूट रही है. सरकार को इस कड़ी को बरकरार रखने के उपाय तुरंत ही खोजने होंगे.


वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था की दुर्दशा के दुष्परिणाम कौन भुगतेगा, इसे जानने-समझने के लिए अर्थशास्त्री होने की जरूरत नहीं है. दुखद यह है कि डूबती अर्थव्यवस्था के चलते जिन लाखों लोगों का व्यापार और नौकरी डूब गई है, जिनकी जाने वाली है और जिन हाथों को काम ही नहीं है, उनका विपक्षी राजनीतिक विमर्श में भी कहीं कोई जिक्र नहीं हैं!



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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)