विपक्षी गठबंधन 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस' या'नी I.N.D.I.A की चौथी बैठक 19 दिसंबर को दिल्ली में हुई. इस बैठक में आम चुनाव 2024 को लेकर बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए के ख़िलाफ अपनायी जाने वाली रणनीति पर चर्चा हुई. बैठक से कुछ ठोस तो निकलकर सामने नहीं आया, लेकिन फ़िलहाल गठबंधन में शामिल विपक्ष दलों में एकजुटता का संदेश ज़रूर तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं और आम लोगों के बीच गया है.


कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों का गठबंधन इस साल जुलाई में अस्तित्व में आया है. उस वक़्त 26 दलों ने बीजेपी की ताक़त को देखते हुए एकजुट होकर 2024 का लोक सभा चुनाव लड़ने के मकसद से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' बनाया. अब इस गठबंधन में 28 दल शामिल हैं. इन पाँच महीनों में इंडिया गठबंधन को लेकर बार-बार यह सवाल उठता था कि क्या आम चुनाव 2024 तक इन दलों में एकजुटता बनी रहेगी.


एकजुटता का संदेश देने की कोशिश


इस साल नवंबर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में हुए चुनाव के समय 'इंडिया' गठबंधन में शामिल दलों के बीच मनमुटाव की ख़बरों को खूब उछाला गया. ख़ासकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मध्य प्रदेश में तालमेल नहीं होने की ख़बर को ज़रूरत से अधिक महत्व दिया गया.  हालाँकि पहले से ही यह स्पष्ट था कि 'इंडिया' गठबंधन का संबंध विधान सभा चुनावों से कतई नहीं था. यह गठबंधन 2024 में होने वाले लोक सभा चुनाव को देखते हुए बनाया गया है.


दिल्ली में 19 दिसंबर को हुई इस गठबंधन की चौथी बैठक में 28 दलों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. इससे देश के लोगों में गठबंधन के बीच एकजुटता का संदेश ज़रूर गया है. हालाँकि एकजुटता की असली परीक्षा सीट बँटवारे के समय होगी. दिल्ली में हुई बैठक में जनवरी, 2024 के दूसरे सप्ताह तक सीट बँटवारे को अंतिम रूप देने पर सहमति बनी है. 


सीट बँटवारे पर सहमति बनाना आसान नहीं


लोक सभा चुनाव, 2024 तक इन विपक्षी दलों में एकजुटता रहेगी या नहीं, यह बहुत हद तक सीट बँटवारे को लेकर कांग्रेस के रुख़ पर निर्भर करता है. ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि गठबंधन में शामिल 28 दलों में सिर्फ़ और सिर्फ़ कांग्रेस की एक ऐसी पार्टी है, जिसका जनाधार पैन इंडिया है. बाक़ी तमाम दलों का जनाधार मुख्य तौर या प्रभावी रूप में एक राज्य विशेष तक ही सीमिति है. अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का पंजाब और दिल्ली (केंद्र शासित प्रदेश) में जनाधार प्रभावी रूप में है.


क्षेत्रीय दल निजी हितों को छोड़ पायेंगे!


इस नज़रिये से सोचें, तो सीट बँटवारे में जो भी क्षेत्रीय दल हैं, वो अपने ख़ास प्रभाव वाले राज्यों में ज़ियादा से ज़ियादा सीटों पर लड़ना चाहेंगे. दूसरी तरफ़ कांग्रेस की मंशा भी इन राज्यों में अपने पुराने जनाधार को वापस पाने की होगी. इन राज्यों में मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल शामिल हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, बिहार में तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार, महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे और झारखंड में हेमंत सोरेन अपनी-अपनी पार्टियों के लिए अधिक से अधिक सीट चाहेंगे. इसी तरह से तमिलनाडु में एम के स्टालिन और केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) या'नी सीपीएम के नेता ज़ियादा सीटों के लिए ज़ोर देंगे.


कुछ राज्यों में कांग्रेस कैसे निकालेगी तोड़?


इन सभी राज्यों में इन दलों की कोशिश और अपेक्षा होगी कि कांग्रेस कम से कम सीटों पर चुनाव लड़े. इस तरह से विपक्षी गठबंधन की एकजुटता बनाए रखने के लिए इन राज्यों में कांग्रेस के सामने क़ुर्बानी देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा. अगर कांग्रेस इन राज्यों में झुकने को तैयार नहीं हुई, तो इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय दल निजी हितों को देखते हुए विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से बाहर जाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे. इन दलों को भी अच्छे से पता है कि महाराष्ट्र और केरल को छोड़कर ऊपर जिन राज्यों का ज़िक्र किया गया है, उनमें  कांग्रेस की स्थिति वर्तमान में बेहद ही दयनीय है.


यह भी तथ्य है कि तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, जेडीयू, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार), शिवसेना (यूबीटी) और एम के स्टालिन अपने निजी हितों से कभी समझौता नहीं करेंगे क्योंकि इन दलों का अस्तित्व ही राज्य विशेष पर निर्भर है. अगर गठबंधन के तहत इन दलों ने कांग्रेस को अपने प्रभाव वाले राज्यों में अधिक सीटें चुनाव लड़ने को दे दी, तो यह उनके राजनीतिक भविष्य के लिए ही ख़तरनाक हो जायेगा. उसके साथ ही वर्तमान में इन राज्यों में कांग्रेस की जैसी दयनीय स्थिति है, उस दृष्टिकोण से कांग्रेस को अधिक सीट देने का मतलब ही उन सीटों पर बीजेपी के जीतने की संभावना को बढ़ाना हो जायेगा.


सहयोगी दलों से कांग्रेस को अधिक लाभ नहीं


विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' को लेकर कांग्रेस के रुख़ से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण पहलू है. ऊपर जिन राज्यों का ज़िक्र किया गया है, उनके अलावा कई सारे राज्य ऐसे हैं, जहाँ बीजेपी का मुख्य तौर से सीधा मुक़ाबला कांग्रेस से होता है. इन राज्यों में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, काफ़ी हद तक कर्नाटक और असम शामिल हैं. इन राज्यों में मोटे तौर से कांग्रेस को छोड़कर विपक्षी गठबंधन में शामिल तमाम दलों की कोई ख़ास भूमिका या प्रभाव नहीं है.


इसका स्पष्ट अर्थ है कि इन राज्यों में कांग्रेस को गठबंधन में शामिल बाक़ी सहयोगी दलों से कोई विशेष लाभ नहीं मिलने वाला है. इन राज्यों में कांग्रेस को सहयोगी दलों से मदद मिलेगी नहीं, बाक़ी राज्यों में क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहना होगा. यह दो पहलू ऐसा है, जिससे भविष्य में विपक्षी गठबंधन की एकजुटता पूरी तरह से कांग्रेस के रुख़ पर निर्भर हो जा रहा है.


इन सभी तथ्यों के अवलोकन से एक बात स्पष्ट है कि कांग्रेस के लिए 2024 का चुनाव अपनी खोई राजनीतिक ज़मीन को पाने, राजनीतिक अस्तित्व और प्रासंगिकता को बचाए रखने के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है. इसके अलावा केंद्रीय स्तर पर बेहद ताक़तवर नज़र आ रही बीजेपी के सामने मज़बूत चुनौती पेश करने के नज़रिये से विपक्षी दलों को एकजुट रखने की ज़िम्मेदारी भी कांग्रेस की है सबसे अधिक है.


मजबूरी का गठजोड़ कितना कारगर?


हालाँकि 'इंडिया' गठबंधन की एकजुटता को लेकर एक बहुत महत्वपूर्ण आयाम है, जो इसका एक साथ ही मज़बूत पक्ष भी है और कमज़ोर पक्ष भी है.  इस गठबंधन को मजबूरी का गठजोड़ कहें, तो, अतिशयोक्ति नहीं होगी. जिस तरह से पिछले एक दशक में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत और ताक़त बढ़ी है, उससे कांग्रेस के साथ ही एक राज्य विशेष तक सीमित अधिकांश दलों के भविष्य पर ही सवालिया निशान खड़ा हो गया है. केंद्रीय स्तर की राजनीति में प्रासंगिकता से जोड़कर देखें, तो यह बात पूरी तरह से लागू होती है.


बीजेपी को अकेले चुनौती देना मुश्किल


बीजेपी वर्तमान केंद्रीय राजनीति में जो राजनीतिक हैसियत या ताक़त रखती है, उसको देखते हुए 2024 के चुनाव में किसी एक विपक्षी दल के लिए बीजेपी को हल्की-सी भी चुनौती पेश करने के बारे में सोचना भी..दिन में तारे देखने के समान है. पैन इंडिया जनाधार होने के बावजूद न तो कांग्रेस ऐसा सोच सकती है और न ही बाक़ी कोई और दल. लोग या राजनीतिक विश्लेषक दावा चाहे जो करें, वास्तविकता और ज़मीनी हक़ीक़त यही है. अगर 2024 के लिए विपक्षी दलों का इस तरह का कोई गठबंधन नहीं बनता, तो बीजेपी के लिए 2024 की चुनावी लड़ाई महज़ खानापूर्ति बनकर रह जाती. ऐसा कहें, तो हैरानी की बात नहीं होगी. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' बनने से कम से कम यह हो गया है कि 2024 की सियासी लड़ाई में बीजेपी को ज़ोर लगाना पड़ेगा.


यूपी में बीजेपी को हानि की संभावना कम


आम चुनाव 2024 में बीजेपी को विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से कितनी परेशानी होगी, यह बहुत हद तक या कहें पूरी तरह से कांग्रेस के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा. उत्तर प्रदेश बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त है. 2014 और 2019 दोनों लोक सभा चुनाव में बीजेपी को सबसे अधिक सीट इसी राज्य से मिली थी. 2024 में भी इसकी पूरी गुंजाइश है कि बीजेपी को इसी राज्य से सबसे अधिक सीट मिलेगी. यहाँ इस बार समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेगे. उसके बावजूद भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से कोई बड़ा नुक़सान होगा, इसकी संभावना बेहद कम है.


मायावती विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं है. वे एनडीए का भी हिस्सा नहीं है. इसका मतलब है कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी. मायावती की राजनीतिक हैसियत और ताक़त पिछले एक दशक में बहुत ही कम हो गयी है. इसके बावजूद अभी भी उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी के पास एक अच्छा वोट बैंक है. विपक्षी गठबंधन से दूरी बनाकर रहने के मायावती के फ़ैसले से बीएसपी को कोई लाभ मिले या न मिले, बीजेपी को भरपूर लाभ मिलने वाला है. उत्तर प्रदेश में बीजेपी विरोधी मतों में बिखराव होगा और यह विपक्षी गठबंधन के मंसूबों के लिहाज़ से काफ़ी नुक़सानदायक है.


बिहार और पश्चिम बंगाल का सियासी गणित


उत्तर प्रदेश के बाद एनडीए को सबसे अधिक सीट बिहार से मिली थी. हालाँकि 2024 में बदले हालात की वज्ह से बिहार में एनडीए को नुक़सान हो सकता है, बीजेपी की सीटों में 2019 के मुक़ाबले अधिक कमी होने की संभावना कम है. बिहार में 2019 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी और नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने मिलकर चुनाव लड़ा था. आम चुनाव, 2024 में बिहार में बीजेपी के सामने आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस की मिली-जुली ताक़त होगी. इसको देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि बिहार में 2019 की तरह एनडीए को 40 में से 39 सीटों पर जीत नहीं ही मिलेगी. 


पश्चिम बंगाल में इस बार अगर कांग्रेस और सीपीएम ने क़ुर्बानी दी और ममता बनर्जी की पार्टी राज्य की अधिकांश सीटों पर चुनाव लड़ी तो बीजेपी के लिए यहाँ 2019 का प्रदर्शन दोहराना आसान नहीं होगा. बीजेपी 2019 में पश्चिम बंगाल की 42 में से 18 लोक सभा सीट पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी.


कांग्रेस के प्रदर्शन पर बहुत कुछ निर्भर


उत्तर प्रदेश और बिहार के अलावा गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और असम बीजेपी की असली ताक़त वाले राज्य हैं. इन राज्यों में बीजेपी शत-प्रतिशत लोक सभा सीट जीतने की स्थिति में है. 2014 और 2019 में इन राज्यों से बीजेपी को अधिकांश सीटों पर जीत मिली थी. ये सभी ऐसे राज्य हैं, जहाँ बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुक़ाबला होता है. अगर सचमुच आम चुनाव, 2024 में बीजेपी को झटका देना है, तो कांग्रेस को इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा, जो वर्तमान राजनीतिक हालात को देखते हुए आसान काम नहीं है. इन राज्यों में कांग्रेस को 'इंडिया' गठबंधन के बाक़ी सहयोगियों से भी कोई मदद मिलने की उम्मीद नहीं है.


बीजेपी की ताक़त वाले राज्यों पर नज़र


गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और असम में से कर्नाटक को छोड़ दें, तो कांग्रेस की स्थिति लोक सभा चुनाव के लिहाज़ से अच्छी नहीं है. अभी-अभी कांग्रेस को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव में बीजेपी से हार का सामना करना पड़ा था. हालाँकि मेरा मानना है कि लोक सभा का चुनाव विधान सभा चुनाव से पूरी तरह अलग होता है. उसमें भी बीजेपी ने कई बार यह साबित कर चुकी है कि भले ही राज्य की सत्ता पर कांग्रेस आसीन रहे, लोक सभा में उन राज्यों की जनता ने बीजेपी पर जमकर प्यार लुटाया है.


अगर इन राज्यों में कांग्रेस ने 2024 की चुनावी लड़ाई में अपने प्रदर्शन से चौंकाया, तभी बीजेपी को बड़ा नुक़सान होगा. ऐसा होने पर ही केंद्र की सत्ता पर लगातार तीसरी बार पहुँचने में बीजेपी को कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है. कांग्रेस के लिए यह काम करना आसान नहीं है.


विपक्षी गठबंधन की अगुवाई कांग्रेस ही करेगी!


कांग्रेस के नज़रिये से सोचें, तो, दिल्ली में हुई विपक्षी गठबंधन की बैठक में एक सकारात्मक पहलू सामने आया है. इसकी औपचारिक घोषणा तो नहीं हुई, लेकिन बैठक के बाद इस तरह की ख़बर बाहर आयी कि ममता बनर्जी ने विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नाम का प्रस्ताव दिया. अरविंद केजरीवाल ने इसका समर्थन भी किया. हालाँकि मल्लिकार्जुन खरगे ने साफ कर दिया कि चुनाव में जीत के बाद ही प्रधानमंत्री पद के चेहरे के बारे में कोई फ़ैसला होगा.


ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की बातों से एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि विपक्षी गठबंधन के तमाम दल अब मानने लगे हैं कि कांग्रेस ही इस गठबंधन की अगुवाई कर सकती है. इसका एक दूसरा पहलू भी है. ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने यह संकेत भी दे दिया है कि अगर चुनाव के बाद नतीजा विपक्षी गठबंधन के पक्ष में रहता है, तो वे लोग प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में राहुल गाँधी के नाम पर सहमत होने वाले नहीं हैं.


कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विपक्षी गठबंधन की रूपरेखा क्या होगी, अलग-अलग राज्यों में सीटों का बँटवारा किस तरह से होगा, चुनाव तक एकजुटता बरक़रार रहेगी या नहीं..इसका पूरा का पूरा दार-ओ-मदार या ठीकरा कांग्रेस पर है. जनवरी के मध्य तक सीट बँटवारे पर अंतिम फ़ैसला होने के आधार पर ही कहा जा सकता है कि लोक सभा चुनाव, 2024 में बीजेपी के लिए विपक्षी गठबंधन किस हद तक ख़तरा पैदा कर सकता है.


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