एक जमाना था फिल्मों के टिकट ब्लैक होते थे. दो का चार और पांच का दस तो हर नए रीलिज होने वाले सिनेमा का पक्का था. यह फिल्म की लोकप्रियता के सबब था. बॉक्स ऑफिस के गर्म का होने का सबूत था. एक लम्बा दौर रहा. 1960 से 1990 तक तो ये हर बड़े-छोटे शहर का आलम था. फिल्म अच्छी है तो पहला हफ्ता ब्लैक में ही टिकट मिलेगा. कुछ लोगों को फर्स्ट डे फर्स्ट शो की ललक थी. वे कुछ भी देने को तैयार रहते थे. नहीं तो फिल्म ही नहीं देखते थे. मुए नए ज़माने की टीवी, टेप और सीडी ने ब्लैकियो का धंदा ही चौपट कर दिया. फ़िल्में 25 हफ़्तों के बजाए 25 दिनों में सिल्वर जुबिली मनाने लगी. फिर तो मल्टीप्लेक्स के नाम पर फिल्म वालों ने खुद ही ऊंचे दामों पर टिकट बेचने की कवायद शुरू कर दी. खुद ही  ब्लैकिये बन गए.


पार्टियों का दान अबूझ पहेली 


कुछ ऐसा राजनीति में भी हो रहा है. नहीं कोई पुख्ता सबूत नहीं है. पर बाज़ार में यह बात आम है. कह सकते है अफवाह है. कोई सबूत तो है नहीं. न देनेवाला सबूत देने को तैयार है न ही लेनेवाला. कौन पार्टी ”दान” ले रहीं है, कौन दे रहा है, कुछ पता नहीं. कब शुरू हुआ कहना मुश्किल है. पर कहते है कि इसका इजाद कुछ वाम दलों ने किया था. उनका तरीका नायाब था, जानकार कहते हैं, पर वे भी रिकॉर्ड पर नहीं आना नहीं चाहते है. उनका  खुला खेल था. वे सब काम आचार संहिता के हिसाब से करते थे. कानूनन ढंग से करते थे.  पीठ पीछे कुछ भी कह लीजिये, सबूत आपके सामने है, पर नहीं भी. पार्टी को चंदा तो आप दे ही सकते है. उसकी रसीद भी मिलती है. बस यही तरीका था. चंदा दिया और कई नामी-गिरामी को टिकट मिल जाता था. दोनों को आप दो और दो चार कर सकते थे, पर कानूनन मिलाना मुश्किल था. सामने है और नहीं भी.



पहल आरोप बसपा सुप्रीमो पर


पैसे देकर टिकट बेचने का यह पहला रिकॉर्ड पर कथित आरोप दलितों की पार्टी बहुजन समाज पार्टी की नायिका पर लगा. 4 जनवरी 2015 को बसपा सांसद जुगल किशोर ने को पार्टी सुप्रीमो मायावती पर तीखा हमला बोला. किशोर ने समाचार एजेंसी ANI से कहा, ''मैं बसपा के संघर्ष और विचारधारा के लिए इसमें शामिल हुआ, मैं अंत तक इसका हिस्सा रहना चाहता था।'' ट्रम्प ने मिशिगन जीओपी को 2024 की रणनीति के लिए डेट्रॉइट में काले मतदाताओं को लक्षित करने की सलाह दी, "बसपा ने अपना पैटर्न बदल दिया है, अब उसने टिकट देने के लिए पैसे की मांग करना शुरू कर दिया है, किशोर ने कहा। अच्छी सीटों के लिए, वह 1 करोड़ रुपये से 2 करोड़ रुपये के बीच शुल्क लेती है और सामान्य सीटों के लिए, यह 50 लाख रुपये चार्ज करते हैं”, उन्होंने खुलासा किया। उन्होंने कहा, "मैंने मायावती जी से कहा कि यह ठीक नहीं है, इससे पार्टी को नुकसान होगा। तब वह नाराज हो गईं और मुझे पार्टी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया।"


इसके बाद 2019 में कहा जाता है रेट बढ़कर  १५ करोड़ रुपए तक हो गया. क्या वे अकेली हैं, शायद नहीं. फायदे तो कहा जाता है कई क्षेत्रीय दल भी लेते रहे. आरोप लगते रहे. एक नेताजी तो बड़े उद्योगपतिओं को टिकट मोलभाव कर उत्तर प्रदेश में देते थे ऐसा कहा जाता है. उनके जैसे ही बिहार के एक नेता का भी राजनीतिक माहौल में उछाल ले कर आये. कहा जाता है कि उनकी साझीदार पार्टियों ने पैसा नहीं दिया तो गठबंधन में गांठ ही लगा रहे हैं. दक्षिण के कई दल भी इन आरोपों से बचे नहीं. हालांकि, किसी का भी आंकड़ा बिना सबूत के ही है. केंद्रीय चुनाव आयोग (केंचुआ) ने इस बारे में कुछ नहीं कहा.


अब भी खत्म नहीं हुआ चलन


क्या अब यह समाप्त हो गया? अफवाहों का बाज़ार तो अभी भी गर्म है. कई तो अब सीधे टिकट के लिए प्रार्थना के बजाये सीधे पूछते हैं- टिकट चाहिए, दाम बताएं. पश्चिम उत्तर प्रदेश की एक सीट के लिए एक व्यक्ति का बायोडाटा माँगा गया. फिर कुछ दिनों बाद एक बड़े पार्टी के नेता ने 15 लाख रुपये मांगे. उसने मना कर दिया. टिकट  नहीं मिला. तो क्या यह एक नया राजनीतिक बाज़ार खुल गया है? कहना मुश्किल है. पर बीमारी कोविड की तरह बढ़ रहीं है या नहीं, कोई कहने को तैयार नहीं. कौन जांच करेगा? राजनीतिक गलियारों में तो लोग चटकारे लेकर बाते कर रहें है. उनका कहना है कि पार्टियों के बीच सैद्धांतिक सीट बंटवारे की बातचीत का एक पहलू पैसे की लेनदेन ही होती है.


कोई सहयोगी पार्टिओं कों सिद्धांत के आधार पर कुछ नहीं देता है. जो जहां मजबूत है वह दाम वसूल ही लेता है और चुनाव से पहले. कहा जा रहा है कि एक कोई बड़ा दल अपने सहयोगी दलों को ५-६ सीट देने को तैयार हुआ. उनके बड़े नेताओं ने छोटे पार्टी के नेता, जो कहा जाता है कि एक दिवंगत नेता के बेटे हैं, से कहा ३० करोड़ देने होंगे. छोटे नेता ने पिता का इमोशनल हवाला देकर कुछ दाम कम करा लिए, पर उनमें से दो सीट लागत के दुगने दाम पर बेच दिये! ऐसे ही पश्चिमी प्रदेश के एक व्यापारी उस प्रदेश के दक्षिणी हिस्से से टिकट मांग रहे थे. दल के एक नेता से बात हुई. बात आगे बढ़ी. ४०-५० करोड़ की मांग आई. सौदे में कुछ कम किया गया, पर प्रार्थी ने 9-10 करोड़ में समेटने को कहा. टिकट नहीं मिला.


राजनीति में पैसों का दबदबा


ऐसा कई जगहों पर हुआ. एक बड़े दल ने अपनी अच्छे छवि वाले एक वर्त्तमान सांसद से कहा  कहा कि इस बार दल संकट में  हैं कुछ मदद करें. कोई राशि भी बताई गयी. उन्होंने असमर्थता जाहिर की. उनसे कहा गया कि वे ऐलान कर दें इस बार वे चुनाव नहीं लड़ेंगे. वैसा ही हुआ और एक व्यापार करने वाले को टिकट यह कह कर दिया गया कि वे लोकल (स्थानीय) हैं. एक प्रदेश जो उत्तर में है, उसकी एक सीट पर एक दूसरी पार्टी के नामी व्यापारी को पैसे लेकर टिकट दिए गए, आरोप है. दक्षिण की एक दूसरी पार्टी के नेता पर जब रेड हुआ तो उनसे चन्दा लेकर पार्टी में शामिल ही नहीं किया, आखिरी मिनट पर उन्हें टिकट भी दिया गया. जी हां, महंगाई बढ़ रही है. चुनावी टिकट भी महंगे हो गए.  पार्टिओं का बेतहाशा फण्ड बढ़ने के बावजूद मांग बढती जा रही है. जो जितना पैसा नेता को पहुंचा सकता है वह उतना प्यारा है. पर सारे टिकट बिकते ही नहीं हैं. कुछ एक सीट पार्टियां पैसे देकर, लालच देकर सरकारी मुलाजिमों को नौकरी छुड़वाकर ऐन चुनाव के वक़्त पार्टी में शामिल करवाती है. उनकी स्वच्छ छवि का फायदा लेने के लिए. कुछ जगहों पर किसी तथाकथित पीड़ित महिला को पूरब के एक प्रान्त में टिकट दिया गया. उस राज्य में महिलाओं के साथ वहां के शासक दल के लोगों ने अत्याचार किये. विरोधी दल को उम्मीद है कि वह सीट जीते न जीते उसके आसपास के या प्रदेश के अन्य जगहों पर बम्पर वोट का लाभ मिलेगा.  एक अधिकारी थे. कहा जाता है कि उन्होंने एक तथाकथित घोटाले को घोटाला न दिखाने का काम किया था. सेवानिवृत्ति के बाद उस दल में समा गए जिसकी उन्होंने मदद की थी.


पूरे देश का एक सा हाल


हिमालय क्षेत्र की एक सीट से एक महिला को उतारने के लिए वहां के स्थानीय रसूखदार दुसरे पार्टी से ताल्लुक रखने वाले परिवार को डरा धमकाकर, लालच देकर चुनाव न लड़ने पर मजबूर किया गया, ऐसा कहा जाता है. और उनकीं पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी खुश नहीं है. कहाँ क्या खेल होगा कुछ कहना मुश्किल है. खेल तो बड़ा समुद्र किनारे के एक पूर्वी राज्य में हो गया, वहां बिना गठबंधन के ही कहा जाता है कि सौदा हो गया, क्योंकि दोनों दलों के कार्यकर्ता को बंधन स्वीकार नहीं था. दोनों दलों के नेताओं में खेल हो गया. दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता कहते हैं कि छोटी पार्टी राज्य में रहेगी और बड़ी पार्टी को केंद्र के लिए सीटें दे दी गयी. सौदेबाजी है. सभी दलों को लाभ चाहिए. किसे, कहां, कैसे मिलेगा इसके माहिर लोग जानते है.


चुनाव एक जनतांत्रिक फुटबॉल है. कोई कहीं से भी गोल कर सकता है. नैतिकता का इस्तेमाल झोला भरने के लिए किया जाता है. चुनावी बांड ने यह भी साबित कर दिया कि परदे के पीछे जो चंदा देते है वे परदे के सामने बड़े कॉन्ट्रैक्ट और सरकारी काम लेकर उससे कई गुना ज्यादा कमा लेते हैं. भोलीभाली जनता देखती रहती है, सुनती रहती और “हमारे नेता, स्वच्छ नेता” के बहकावे में अलग-अलग राज्यों में वोट देती रहती है.


माहिर कहीं भी खेल सकते हैं. दांव चलना आना चाहिए. जनता वोट देगी और ठगेगी भी क्योंकि अब राजनीतिक दल की दाल किसी व्यापारी के हाथ है और चिड़िया को दाना तो चुगना ही है. क्या जनता कुछ कर सकती है? हा, एक काम तो कर ही सकती है. हर बार हर जगह नयी सरकार बनाकर समीकरण बदल सकती है. हा, ऐसे वोट करें कि कम्पनियां राजनीति और चंदेबाज़ी से दूर रहें. केंद्रीय चुनाव आयोग पर दबाव जरूरी है. वह सौदेबाजी को रोक सकता है पर वहां एक  टी एन शेषण जैसा अधिकारी चाहिए. शायद अफसरशाह और जनता मिलकर सौदेबाजी को ख़त्म कर सकते हैं, पर ऐसा कोई क्यों करेगा?


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