दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी खूबसूरती के लिए पेरिस बुलाने वाला यूरोप का तीसरा बड़ा देश फ्रांस इन दिनों विरोध की आग में जल रहा है. इसकी वजह वही है, जो हमारे देश में साल 2004 के बाद से चली आ रही है लेकिन तब भी यहां खामोशी छाई हुई है. पर, फ्रांस की जनता शायद डरपोक नहीं है और वो सरकार के एक गलत फैसले को बर्दाश्त करने को तैयार भी नहीं है, इसीलिये उसने सड़कों पर उतरकर हिंसक विद्रोह करते हुए हुक्मरानों को अपनी ताकत का अहसास कराने की मुहिम छेड़ रखी है. 


नेपोलियन बोनापार्ट की क्रांति से आये साम्राज्य से मुक्ति पाकर भारत से एक साल पहले यानी 1946 में एक गणराज्य बनने वाला फ्रांस दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां आज भी  तकरीबन 45 फीसदी लोग नास्तिक हैं. यानी उनका इस धरती पर परम शक्ति से प्रकट हुए किसी भी अवतार पर कोई भरोसा नहीं है फिर चाहे वह ईसा हो या मूसा. जाहिर है कि फिर ऐसे मुल्क की जनता को अपनी सरकार के किसी फैसले के ख़िलाफ़ सड़कों पर आकर मुख़ालफ़त करने का कोई खौफ़ नहीं होता और वे यही कर भी रहे हैं. ये भारत में उन लोगों के लिए बड़ी मिसाल है जो 2004 के बाद पुरानी पेंशन मिलने के मोहताज हो चुके हैं.


दरअसल, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों सरकार ने बीते दिनों पेंशन बिल पास कर के रिटार्यमेंट की उम्र को 62 से बढ़ाकर 64 साल कर दिया है. इससे लोगों का गुस्सा ऐसा फूट पड़ा है कि उन्होंने पेरिस समेत अन्य प्रमुख शहरों में जबरदस्त विरोध-प्रदर्शनों के साथ ही आगजनी का सिलसिला भी शुरु कर दिया है. 'फ्रांस 24′ की रिपोर्ट के मुताबिक, चूंकि सरकारी विभागों में नई भर्तियां हुई नहीं हैं इसलिये सरकार को ये कदम उठाना पड़ा. लेकिन इसका नतीजा हिंसक प्रदर्शनों के रुप में देखने को मिल रहा है. मैक्रों सरकार द्वारा लाये गये इस बिल के खिलाफ विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव भी लाया था लेकिन भारत की तरह वहां भी जोड़तोड़ के जरिये सरकार उसे गिराने में कामयाब हो गई. 


वह बाल-बाल बच तो गए लेकिन अगर वह पास हो जाता तो राष्ट्रपति को नए चुनाव कराने पड़ते. इसलिए कि राष्ट्रपति मैक्रो ऐसे माहौल में किसी भी सूरत में चुनाव में नहीं जाना चाहते थे,अन्यथा उन्हें हार का सामना करने का खतरा था. फ्रांस के नए पेंशन बिल में कर्मचारियों को 62 की जगह अब 64 साल की उम्र तक काम करना होगा. लेकिन इसका असर ये होगा कि पूरी पेंशन के लिए जरूरी मिनिमिम सर्विस का टर्म भी बढ जाएगा. यानी अब पूरी पेंशन लेने के लिए 42 की जगह 43 साल काम करना जरूरी होगा. लेकिन सरकारी कर्मचारी इसके लिए तैयार नहीं हैं और इसीलिये वे लगातार विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. फ्रांस के मीडिया के मुताबिक राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों इस वक़्त अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं और लगता है कि वे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से का भरोसा खो चुके हैं.


फ्रांस में हो रहे ये प्रदर्शन भारत के लिए आखिर क्यों महत्वपूर्ण हैं इसे थोड़ा समझना होगा. हमारे यहां भी पुरानी पेंशन योजना बनाम सरकार द्वारा लाई गई नई पेंशन योजना के लाभों को लेकर बहस छिड़ी हुई है. फ्रांस में रिटायरमेंट की उम्र को लेकर जो विरोध हो रहा है, वह भारत की पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) बनाम नई पेंशन योजना (एनपीएस) को लेकर हो रहे विरोध जैसा ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि वहां लोग सड़कों पर उतर आये हैं और यहां लोकतंत्र के बावजूद प्रभावित लोग वैसी हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे हैं. बता दें कि साल 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पुरानी पेंशन योजना को बंद करके नई पेंशन योजना लागू कर दी थी.


अब ये भी समझिए कि इससे नुकसान किसका हो रहा है और फायदे में कौन हैं. पुरानी व्यवस्था के हिसाब से किसी भी कर्मचारी/अधिकारी की पेंशन उसके अंतिम वेतन का 50 प्रतिशत होती थी और पूरी राशि का भुगतान सरकार ही करती थी. वहीं अब नई व्यवस्था में सरकारी कर्मचारियों को अपने वेतन और महंगाई भत्ते का 10 फीसदी सेवानिवृत्ति कोष में देना होता है. जबकि सरकार पेंशन के लिए महज़ 14 फीसदी तक ही  भुगतान करती है.


आर्थिक जगत के विशेषज्ञों के मुताबिक भारत की नई पेंशन योजना (एनपीएस) और फ्रांस में प्रस्तावित पेंशन सुधार कई मायनों में एक जैसे ही हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार दोनों का उद्देश्य पेंशन प्रणाली की वित्तीय स्थिरता से निपटना है. दोनों सरकारों का तर्क है कि पेंशन भुगतान के बोझ को कम करने के लिए सुधार करना जरुरी हैं. हालांकि हमारे देश के कई राज्यों में सरकारी कर्मचारी अब पुरानी पेंशन योजना को ही बहाल करने की मांग कर रहे हैं. 


पंजाब में भगवंत मान की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी सरकार ने पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को लागू करने के लिए एक समिति का गठन किया है. अन्य राज्यों मसलन, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सरकार ने पहले ही नई पेंशन योजना को लागू करने का फैसला खारिज कर दिया है. दूसरा व अहम पहलू ये भी है कि विभिन्न सरकारी विभागों में करीब 10 लाख पद खाली पड़े हैं. ये आंकड़ा भी सरकार ने पिछले साल अगस्त में लोकसभा के पटल पर रखा था. जाहिर है कि पिछले सात महीनों में इसमें बढ़ोतरी ही हुई होगी. लेकिन लगता है कि इन्हें भरने के लिए सरकार कोई खास उत्सुक नहीं दिखती. शायद उसकी मानसिकता भी उस व्यापारी की तरह ही बन गई है कि तीन लोगों का काम अकेले एक व्यक्ति से ही कराया जाए और अगर मना करे, तो बाहर का रास्ता दिखा दो.


प्रखर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने कहा था- "जिस दिन सड़क खामोश हो जायेगी, उस दिन संसद आवारा बन जायेगी." विकसित व समृद्ध देश कहलाने वाले फ्रांस के लोगों की तारीफ़ इसलिये भी होनी चाहिये कि वे अपनी संसद को आवारा बनने से रोक रहे हैं!


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)