वित्त सचिव टी.वी. सोमनाथन के उस बयान को जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार के अधिक पैसे निवेश करने पर भी देश की शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं होगा, इसे मैं दो अर्थों में देखता हूं. सबसे पहले वित्त सचिव कहना चाह रहे हैं कि हम अगर खर्चा बढ़ाते चले जाएं तो इससे सुधार हो जाए तो इसकी कोई गारंटी नहीं है.


वित्त सचिव के बयान का दूसरा आशय यह हो सकता है कि सरकार को किसी भी तरह से शिक्षा पर खर्च नहीं करना चाहिए और सरकार को शिक्षा से हाथ फेर लेने चाहिए. इसका मतलब निकाला जा सकता है कि शिक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढ़ाई जाए. वित्त सचिव इशारा करना चाहते हैं कि पढ़ाना सरकार का काम नहीं है.


'सरकार शिक्षा से हाथ नहीं खींच सकती'


वो एक तरह से कह रहे हैं कि जिस तरह की व्यवस्था अभी है, तो शिक्षा पर सरकारी खर्च करके सुधार नहीं लाया जा सकता है. लेकिन मेरा मानना है कि व्यवस्था में सुधार संभव क्यों नहीं है. दूसरी बात जो आशय निकल रहा है कि सरकार को शिक्षा से हाथ खींच लेनी चाहिए, मुझे लगता है, भारत जैसे एक विकासशील देश में ये सिर्फ अर्थव्यवस्था के लिए ही नहीं समाज के लिए और राजनीति के लिए बहुत ज्यादा घातक बात है.


'निजीकरण शिक्षा पर नहीं हो लागू'


फ्री मार्केट या निजीकरण जैसे विचारों के जनक अर्थशास्त्री एडम स्मिथ रहे हैं. उनकी किताब वेल्थ ऑफ नेशन्स के नाम से जानी जाती है. इसके बावजूद भी एडम स्मिथ का मानना था कि आप सब कुछ का निजीकरण कर दो, लेकिन रक्षा और शिक्षा से सरकार को हाथ नहीं खींचने चाहिए. ऐसा बिलकुल नहीं हो सकता कि रक्षा का हर काम सरकार आउटसोर्ट करा ले. जैसे इस बार 2023-24 के बजट में रक्षा क्षेत्र को 5.94 लाख करोड़ रुपये मिले हैं. अगर सरकार सोचे कि ये बहुत ज्यादा खर्च है और इसका टेंडर निकाल दिया जाए. टेंडर निकालने पर कोई निजी कंपनी इससे भी ज्यादा पैसा देने को तैयार हो जाएगी, तो क्या हम रक्षा क्षेत्र से हाथ पीछे कर लेंगे. ये मेरि विचार से मूर्खतापूर्ण कदम होगा. ये हमारे अस्तित्व से जुड़ा हुआ है. ऐसे ही शिक्षा का मामला भी है.


वित्त सचिव के बयान से मिलते हैं संकेत


दरअसल वित्त सचिव टीवी सोमनाथन आने वाले समय में जो सरकार करना चाहती है, उसका एक संकेत देना चाह रहे हैं कि हमारे भरोसे मत रहिए. अपने रिसोर्सेज विकसित खुद कीजिए. इसके कई आयाम हैं. जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय में कई तरह के कोर्स हैं. कई तो प्रोफेशनल कोर्स हैं. जैसे कि ऑनर्स जर्नलिज्म है, बड़ा अच्छा कोर्स है कि बच्चा तीन साल पढ़ेगा और उसे नौकरी मिल जाएगी. लेकिन अगर ये मान लें कि इन बच्चों से थोड़ी ज्यादा फीस वसूल लें और अपने कॉलेज की इकॉनोमी, यूनिवर्सिटी की इकॉनोमी चला लें तो प्रोफेशनल कोर्स के बच्चे शायद फीस दे भी देंगे. निजी विश्वविद्यालय में ऐसे कोर्स में तीन साल के लिए छह लाख रुपये फीस रखे जा रहे हैं. 50 हजार से एक लाख हर सेमेस्टर बच्चे खुशी-खुशी दे भी रहे हैं. लेकिन सवाल उठता है कि सरकारी यूनिवर्सिटी में बीए हिंदी, बीए ऑनर्स, हिस्ट्री, अरेबिक, उर्दू, बीए फिलॉसफी इन सब कोर्स का क्या होगा. सरकार का काम क्या सिर्फ रोजगार देने वाले कोर्स को ही पढ़ाना है. मैं स्किल देने का विरोधी नहीं हूं. ये हिंदी लिटरेचर, बीए ऑनर्स लिटरेचर, बीए हिस्ट्री जैसे कोर्स उतने रोजगारपरक नहीं है तो क्या इनको पढ़ाना बंद कर दिया जाए या इनको निजी क्षेत्र के हाथ में छोड़ दिया जाए.


शिक्षा को प्रॉफिट के एंगल से नहीं देख सकते


निजी क्षेत्र का ओरिएन्टेशन है कि जिसमें प्रॉफिट हो, वही काम करें. लेकिन शिक्षा को आप प्रॉफिट के एंगल से नहीं देख सकते. वित्त सचिव को ऐसा लगता है कि सरकारी स्कूलों का हाल खराब है. लेकिन इनमें सुधार के लिए कई तरीके हैं. आप प्राइमरी स्कूल के टीचर से हर तरह के काम करवा रहे हो. खाना भी बनवा रहे हो, सर्वे में भी इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसी सूरत में उन टीचरों से क्या उम्मीद की जाए. सुधार की जरूरत है और सुधार हो सकता है. क्या बात है कि बीए, बीएड किए बच्चा सरकारी स्कूल ज्वाइन करते हैं और 5 साल के भीतर एक तरह से निकम्मे हो जाते हैं. वहीं जो बच्चे प्राइवेट सेक्टर में काम करते हैं वे बढ़िया नतीजे देते हैं. प्राइवेट सेक्टर में प्रेशर के साथ रिवार्ड भी है. भारत जैसे देश में निजी क्षेत्र के सहारे न तो प्राथमिक शिक्षा छोड़ सकते हैं और न ही इंटरमीडिएट और उच्च शिक्षा छोड़ सकते हैं. निजी क्षेत्र पूरी तरह से प्रॉफिटओरिएन्डेट है और शिक्षा को पूरी तरह से निजी क्षेत्र के रहमो-करम पर छोड़ने से समाज बर्बादी की तरफ जाएगा.


अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी ने वित्त सचिव के बयान की निंदा की है. कई सारे ऐसे मामले हैं, जिनपर सत्ता पक्ष से जुड़े हुए कई संस्था अलग विचार रखते हैं. जैसे भारतीय किसान संघ जो सत्ता पक्ष की विचारधारा से मेल रखता है, उनको भी कई मसलों पर सरकार के रुख से आपत्ति है. एबीवीपी की ओर से जो आपत्ति आई है, मैं उसका स्वागत करता हूं. सरकार को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि शिक्षा और रक्षा निजी हाथों में नहीं जाना चाहिए. ये देश के अस्तित्व से जुड़ा मसला है. शिक्षा सिर्फ ये नहीं है कि बच्चों को पढ़ाया जा रहा है. देश का जो वर्ग आर्थिक तौर से कमजोर है, जो निजी सेक्टर में मोटी रकम देकर पढ़ाई नहीं कर सकता, उनके नजरिए को भी समझना होगा. उन्हें निजी क्षेत्र के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए.  


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