लोकतांत्रिक ढाँचे में 'बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' किसी भी देश के नागरिकों के लिए सबसे अधिक महत्व रखने वाला मौलिक अधिकार है. जब भी कोई सरकार इस अधिकार के महत्व को कम करती है, तो यह संविधान के महत्व को कम करने जैसा ही होता है. मोदी सरकार बार-बार इस मूल अधिकार के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश कर रही है. इस तरह का विमर्श बनने लगा है.


इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम में भी ऐसी ही कोशिश की गयी थी. अब मोदी सरकार फैक्ट चेक यूनिट के नाम पर देश के हर नागरिक को संविधान से हासिल एक मूलभूत अधिकार को कमतर करने के लिए प्रयासरत दिख रही है. इसकी वज्ह से पिछले कुछ दिनों से फैक्ट चेक यूनिट का मसला सुर्ख़ियों में है.


फैक्ट चेक यूनिट से जुड़ी अधिसूचना पर रोक


इलेक्टोरल बॉन्ड के बाद एक बार फिर से अब देश की शीर्ष अदालत ने फैक्ट चेक यूनिट के मामले में 21 फरवरी को बड़ा फ़ैसला किया है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी.वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम की तीन सदस्यीय पीठ ने प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो के तहत फैक्ट चेक यूनिट बनाने से संबंधित केंद्र सरकार की अधिसूचना पर रोक लगा दी है. केंद्र सरकार की ओर से सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 के तहत 20 मार्च को फैक्ट चेक यूमिट के लिए  अधिसूचना जारी की थी. यह अधिसूचना इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) की ओर से जारी हुई थी.


मामले में गंभीर संवैधानिक प्रश्न हैं निहित


सीजेआई डी.वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली इस पीठ का मानना है कि इस प्रकरण में गंभीर संवैधानिक प्रश्न निहित है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मसला निहित है. ऐसे में केंद्र सरकार की 20 मार्च की अधिसूचना पर रोक लगाने की ज़रूरत है.


दरअसल यह मसला बॉम्बे हाई कोर्ट  से जुड़ा हुआ है. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने अप्रैल, 2023 में सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 में संशोधन किया था. इस नये नियम से आईटी नियम 2021 के नियम 3(1)(b)(5) का प्रावधान किया गया. इससे फैक्ट चेक यूनिट के लिए केंद्र सरकार की ओर से अधिसूचना जारी करना का रास्ता साफ़ हो गया. इस यूनिट को केंद्र सरकार की तथ्य जाँच इकाई के रूप में नए नियमों के मुताबिक़ अधिसूचित करना था.


आईटी नियमों में संशोधन से जुड़ा प्रकरण


यह यूनिट प्रेस इनफर्मेशन ब्यूरो के तहत पहले से काम कर रही है. इस यूनिट को केंद्र सरकार के लिए अधिकृत तथ्य जाँच इकाई का दर्जा देने के लिए ही केंद्र सरकार ने पिछले साल आईटी नियमों में संशोधन किया था. इस यूनिट का काम सरकार से संबंधित ऑनलाइन सामग्रियों की निगरानी करना है. केंद्र सरकार से संबंधित सभी फ़र्ज़ी ख़बरों, भ्रामक जानकारियों और ग़लत सूचनाओं से निपटने या सचेत करने के लिए फैक्ट चेक यूनिट ही नोडल एजेंसी होगी. आईटी नियमों में संशोधन के बाद केंद्र सरकार  20 मार्च की अधिसूचना के माध्यम से यही सुनिश्चित करना चाहती है.


हाई कोर्ट से मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा


बॉम्बे हाई कोर्ट  में आईटी नियम में किए गए संशोधनों को कई याचिकाओं के ज़रिये चुनौती दी गयी थी. इनमें 'स्टैंड-अप कॉमेडियन' कुणाल कामरा और 'एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया' की याचिका भी शामिल हैं. बॉम्बे हाई कोर्ट में आईटी संशोधन नियमों को चुनौती पर अंतिम सुनवाई 15 अप्रैल को शुरू होनी है. इसके मद्द-ए-नज़र याचिकाकर्ताओं की ओर से हाई कोर्ट से अंतरिम मांग की गयी थी. याचिकाकर्ताओं की मांग थी कि पूरी सुनवाई तक केंद्र सरकार को यूनिट से संबंधित अधिसूचना जारी करने से रोका जाए. हाई कोर्ट की ओर से 11 मार्च को केंद्र को इकाई की अधिसूचना जारी करने से रोकने से इंकार कर दिया गया था. उसके बाद 20 मार्च को केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी भी कर दी. इसी अधिसूचना पर रोक के लिए याचिकाकर्ताओं में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.


अनुच्छेद 19 (1) (a) से संबंधित प्रश्न महत्वपूर्ण


उसके बाद सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने 21 मार्च को इस मामले में सुनवाई किया. सुप्रीम कोर्ट ने  कहा कि बॉम्बे हाई कोर्ट के सामने जो प्रश्न हैं, उनका संबंध संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) के मूल प्रश्नों से हैं. इसको आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की अधिसूचना पर रोक लगा दी. साथ ही सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने हाई कोर्ट के 11 मार्च के आदेश को भी रद्द कर दिया.


अभिव्यक्ति की आज़ादी से संबंधित है पहलू


सुप्रीम कोर्ट की ओर से स्पष्ट तौर से कहा गया कि हाई कोर्ट से अंतरिम राहत का अनुरोध ख़ारिज होने के बाद केंद्र सरकार की अधिसूचना पर रोक लगाने की ज़रूरत है. शीर्ष अदालत ने माना कि आईटी नियम, 2021 के नियम 3(1)(b)(5) की वैधता को चुनौती दी गयी है और इसमें  गंभीर संवैधानिक प्रश्न शामिल हैं. ऐसे में हाई कोर्ट की ओर से  बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियम के प्रभाव का विश्लेषण करने की आवश्यकता होगी.


फैक्ट चेक यूनिट नवंबर, 2019 से काम कर रहा है. उस वक़्त पीआईबी ने केंद्र सरकार के मंत्रालयों, विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के साथ ही केंद्र सरकार के अन्य संगठनों से संबंधित भ्रामक और फ़र्ज़ी ख़बरों से निपटने के मक़सद से इस यूनिट को बनाया था. पहले यह यूनिट ऐसी ख़बरों की पड़ताल करती थी और भ्रामक पाए जाने पर उन ख़बरों को भ्रामक अपने सोशल मीडिया मंच पर 'फैक्ट चेक' के तौर पर प्रकाशित करती थी. या'नी अभी तक यह यूनिट जाँच और सत्यापन तक सीमित थी.


मूल अधिकार को सीमित करने से जुड़ा मसला


नए नियम से इस प्रकार की संभावना बन सकती है कि पीआईबी सरकारी कामकाज की आलोचना से संबंधित पोस्ट या ख़बर को  हटाने का निर्देश इन्टर्मीडीएरीज़ को दे या फिर स्वाभाविक तौर से हटाने का दबाव बन जाए. नए नियमों से इसकी संभावना बन जा रही है कि सरकारी कामकाज की आलोचना भी निगरानी के दायरे में आ जाएगा. फैक्ट चेक यूनिट प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित करने के साथ ही देश के हर नागरिक के मूल अधिकार को कमतर करने का एक सशक्त सरकारी ज़रिया बन सकता है.


सरकारी कामकाज की आलोचना को लेकर डर!


फैक्ट चेक यूनिट से संबंधित नियमों के अमल से कई तरह की आशंकाएं पैदा हो सकती हैं. सबसे पहले तो देश में एक अजीब माहौल बन जाएगा. सरकार या सरकारी कामकाज की आलोचना से को लेकर लोगों में भय का माहौल बन सकता है. पत्रकारों को हमेशा डर सताते रहेगा कि कहीं फैक्ट चेक यूनिट उनकी ख़बरों को फ़र्ज़ी या भ्रामक नहीं क़रार दे दे. इन्वेस्टिगटिव या'नी खोजी पत्रकारों के लिए काम करना मुश्किल हो सकता है. यहाँ तक कि सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर आम लोग सरकारी नीतियों और सरकार के रवैये को लेकर अपनी बात कहने से भी कतराने लग सकते हैं. हर किसी के मन में एक डर होगा.


कामकाज भी सरकार का, निर्धारक भी सरकार


डर का कारण भी है. बात, पोस्ट या ख़बर..फ़र्ज़ी या भ्रामक है.. इसका निर्धारण पीआईबी के माध्यम से एक तरह से सरकार ही करेगी. सरकार के मनमुताबिक़ बात, पोस्ट या ख़बर नहीं रहने पर किसी पर भी उससे हटाने के लिए निर्देश देना आसान हो जाएगा. इसके विपरीत आईटी नियम, 2021 के नियम 3(1)(b)(5) से यह सुनिश्चित हो रहा है कि केंद्र सरकार के किसी भी काम के संबंध में कोई भी पोस्ट या ख़बर के फ़र्ज़ी, ग़लत या भ्रामक होने का निर्धारण फैक्ट चेक यूनिट करेगा. यहाँ एक तरह से सरकार ख़ुद ही तय करेगी कि उसके काम के बारे में लोग कितना बोल या लिख सकते हैं और कितना नहीं. इस पहलू से ही मोदी सरकारी की मंशा पर सवाल उठना शुरू होता है.


सोशल मीडिया के युग में आलोचना का महत्व


फैक्ट चेक यूनिट से जुड़ी केंद्र सरकार की अधिसूचना के समय को लेकर भी तमाम सवाल हैं. लोक सभा चुनाव का समय है. संसदीय व्यवस्था में यह ऐसा वक़्त होता है, जिसके दौरान सरकार के कामकाज पर सबसे अधिक सवाल पूछे जाते हैं. सरकार के कामकाज की आलोचना से जुड़ी तमाम जानकारियाँ मीडिया के अलग-अलग माध्यमों से देश के सामने आती हैं. इसमें पत्रकारों की बड़ी भूमिका होती है. अब सोशल मीडिया का ज़माना है. इसमें पत्रकारों के साथ ही देश का हर नागरिक सरकारी कामकाज के मामले में आलोचक की भूमिका में होता है.


सरकार, सरकारी नुमाइंदों, राजनीतिक दलों या नेताओं से देश के आम लोग सीधे सवाल करने की स्थिति में नहीं होते हैं. आम लोग अपनी बात अब सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया देकर ज़ाहिर कर रहे हैं. चाहे सरकार के कामकाज की आलोचना हो या फिर सत्ताधारी दल के अतीत में किए गए वादों पर सवाल हो..सोशल मीडिया की वज्ह से देश का हर नागरिक फ़िलहाल अपने-अपने तरीक़ों से अपनी बात रखने में सक्षम है. ऐसे में सवाल उठता है कि फैक्ट चेक यूनिट को अधिक ताक़तवर बनाकर सरकार आम लोगों में डर या भय का वातावरण बनाने के फ़िराक़ में तो नहीं है.


लोक सभा चुनाव और मोदी सरकार की मंशा


जिस तरह से चुनाव के बीच इस तरह की अधिसूचना जारी कर दी जा रही है, उससे स्पष्ट है कि मोदी सरकार अपनी आलोचना को लेकर चिंतित है. वर्तमान समय में सोशल मीडिया के प्रसार से हर नागरिक पत्रकार की भूमिका में है. सरकारी कामकाज पर पक्ष-विपक्ष से जुड़े विचारों का आदान-प्रदान और प्रसार.. सरल और सुगम हो गया है. फैक्ट चेक यूनिट को अधिक शक्ति देने से इस प्रक्रिया पर व्यापक असर पड़ने की संभावना है.


मूल अधिकार और अनुच्छेद 19(1)(a)का महत्व


हम लोकतंत्र में रहते हैं. इसमें हर परिस्थिति में सरकारी व्यवस्था को लोकतांत्रिक ढाँचे की परिधि में ही काम करना चाहिए. पिछले कुछ वर्षों से संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a)के तहत हासिल मूल अधिकार के हनन को लेकर बार-बार सवाल उठ रहा है. यह संवैधानिक नज़रिये से सही नहीं है. किसी भी क़ानून या नियम से देश के नागरिकों को संविधान से मिले मूल अधिकारों पर आँच नहीं आनी चाहिए. कोई भी क़ानून या नियम हो, उसे बनाने या तय करने से पहले हर सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो इस पहलू का भरपूर ख़याल रखे. जिस तरह से बार-बार हो रहा है, मोदी सरकार इस पहलू का ख़याल नहीं रख रही है, इतना ज़रूर कहा जा सकता है.


इलेक्टोरल बॉन्ड में भी मूल अधिकार पर चोट


इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में भी मोदी सरकार के रवैये को देशवासियों ने ग़ौर से देखा और परखा है. मोदी सरकार अनुच्छेद 19 (1) (a) से हासिल 'जानने के हक़' को ताक पर रखकर इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ा स्कीम लेकर आयी थी. इसी अनुच्छेद को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी, 2024 को इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक ठहराया था. इस स्कीम में डोनर की गोपनीयता को सर्वोपरि मानते हुए मोदी सरकार ने अनुच्छेद 19 (1) (a) में शामिल नागरिकों के 'जानने के अधिकार' को कमतर करते हुए एक तरह से ज़मीन-दोज़ कर दिया था.


'जानने का अधिकार' है मूल अधिकार - सुप्रीम कोर्ट


सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 से देश के नागरिकों को सरकारी कामकाज से संबंधित सूचनाओं को हासिल करने के लिए एक मज़बूत क़ानून मिल गया था. हालाँकि इस क़ानून के बग़ैर भी नागरिकों को 'जानने का अधिकार' बतौर मूल अधिकार के तौर पर हासिल था. नागरिकों को 'जानने का अधिकार' एक मूल अधिकार है. रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य, 1950 के साथ ही रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड बनाम प्रोप्राइटर्स ऑफ इंडियन एक्सप्रेस न्यूज़ पेपर, 1989 समेत कई केस में सुप्रीम कोर्ट इस बात को कह चुकी है. 'जानने का अधिकार' अनुच्छेद 19 (1) (a) में अंतर्निहित है.


इसकी जानकारी मोदी सरकार को भलीभाँति होगी. इसके बावजूद इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे स्कीम को लाने में मोदी सरकार ने 2017 पूरा ज़ोर लगा दिया था. सरकार इसे लागू करने में कामयाब भी हो गयी थी. हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजमेंट से सख़्त संदेश दिया कि 'जानने के अधिकार' से खिलवाड़ करने की किसी भी सरकार की कोशिश अधिकार और न्याय की कसौटी पर कसी जाएगी.


फैक्ट चेक यूनिट प्रकरण में भी मंशा पर सवाल


अब इलेक्टोरल बॉन्ड की तरह फैक्ट चेक यूनिट प्रकरण में भी मोदी सरकार नागरिकों के मूल अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (a) को सीमित करने के क़वा'इद में है. सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि फैक्ट चेक यूनिट से जुड़े ताज़ा प्रकरण में अनुच्छेद 19 (1) (a) से संबंधित प्रश्न शामिल हो सकते हैं. आख़िर मोदी सरकार ऐसा क़ानून या नियम लेकर आती ही क्यों है, जिसमें इतने महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार के हनन, सीमित या पाबंदी करने का मसला जुड़ जाता है.


सरकार के साथ ही तमाम राजनीतिक दलों को इस अनुच्छेद के महत्व को समझना चाहिए. अनुच्छेद 19 (1) (a) से देश के हर नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती है. सामान्य परिस्थिति में कोई भी सरकार इसे सीमित नहीं कर सकती है. 'अभिव्यक्ति' शब्द होने की कारण इस अधिकार का दाइरा बहुत विस्तृत हो जाता है. विचारों को ज़ाहिर करने का हर माध्यम 'अभिव्यक्ति' शब्द के तहत आ जाता है. इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार स्पष्ट किया है. लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में इस अनुच्छेद से हासिल स्वतंत्रता आधारशिला की तरह है. अगर सरकार लोकतांत्रिक होने का दावा करती है, तो उसे इस स्वतंत्रता को सबसे अधिक महत्व देना चाहिए.


मूल अधिकार को सीमित करने की कोशिश


इस अधिकार को सीमित करने का आधार भी संविधान में ही बताया दिया गया है. संविधान में स्पष्ट है कि  रीस्ट्रिक्शन, निर्बंधन या प्रतिबंध तर्कसंगत होना चाहिए. अनुच्छेद 19 (2) में ही उन आधारों का भी ज़िक्र है, जिनकी कसौटी पर बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कई केस में इस बात को दोहराया है कि प्रतिबंध लगाने से पहले व्यापक प्रभाव या असर की कसौटी को  को ज़रूर देखा जाना चाहिए.


इसके बावजूद क़ानून या कार्यकारी नियमों से ऐसी स्थिति बार-बार पैदा हो, जिससे अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर बार-बार सवाल उठने लगे, तो, फिर सरकार की मंशा को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है. संविधान की सामान्य समझ रखने वाले व्यक्ति के लिए भी इस अनुच्छेद से जुड़ी बारीकियों को समझना कोई मुश्किल काम नहीं है. ऐसे में सरकार बार-बार इस तरह की कोशिश करे, तो नागरिक अधिकारों के लिहाज़ से यह बेहद गंभीर मसला बन जाता है.


मूल अधिकारों की रक्षा है सरकार की ज़िम्मेदारी


सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि संविधान से मिले मूल अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून या नियम बनाए जाएं, न कि इनकी धज्जियाँ उड़ाने के लिए. हर बार देश की शीर्ष अदालत तक मामला पहुँचे. उसके बाद ही नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा संभव हो, ऐसा होने लगेगा, तो फिर यह सरकार और सरकारी व्यवस्था की विश्वसनीयता का सवाल बन जाता है. ऐसी स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए बार-बार पैदा नहीं होनी चाहिए. राजनीति, राजनीतिक पकड़ और राजनीतिक प्रभुत्व अपनी जगह है. इन सबसे ऊपर उठकर सरकार को संविधान से मिले हर नागरिक अधिकार.. ख़ासकर मूल अधिकारों की रक्षा को ही हमेशा प्राथमिकता देनी चाहिए. किसी भी क़ानून या नियम बनाने में इस पहलू का ख़ास ख़याल रखना हर सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है. साथ ही हनन के मामले में हर सरकार की हर नागरिक के प्रति जवाबदेही भी है.


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