पटनाः ज्योति को पता भी नहीं होगा कि गरीबी से लड़ते हुए बीमार पिता को किसी तरह लॉकडाउन में सुरक्षित घर पहुंचाने की उसकी कोशिश ये रंग लाएगी. जब वह गुरुग्राम से चली होगी तो उसका मन जरुर डरा और सहमा होगा. इतना लंबा सफ़र वो तय कर पाएगी या नहीं इसको लेकर उसके मन में द्वंद भी रहा होगा पर दूसरा कोई उपाय नहीं था उसके पास. वो करती भी क्या? उसके सामने तो आगे कुआं पीछे खाई वाली स्थिति थी.
उस अदना सी लड़की के भागीरथ प्रयास ने उसे दुनिया भर में मशहूर कर दिया. पर उसके बाद क्या? खबरें आईं कि उसका घर पीपली लाईव बना हुआ है और उसके खाने-सोने पर आफ़त है. ज्योति के ऊपर चमकते स्पॉटलाइट में हिस्सा पाने के लिए होड़ मच गई. राजनीतिज्ञों के साथ-साथ स्वयंसेवी संस्थान और अन्य लोगों में उसे मदद पहुंचाने की होड़ मच गई. नेताओं ने पढ़ाई-लिखाई से शादी-ब्याह तक का इंतजाम कर डाला. ज्योति को मदद करते हुए खूब कैमरे चमके और सभी ने सोशल मीडिया पर इस मदद को खूब प्रचारित भी किया.
व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि मदद अच्छी बात है पर ज्योति का इस्तेमाल राजनीतिक रोटी सेंकने में नहीं होना चाहिए क्यूंकि ऐसा कर हम उस बच्ची कि नतमस्तक कर देने वाली चेष्टा को अपमानित करते हैं. वो लड़की बिहार ही नहीं इस देश के लिए भी मिसाल है. बिहार उसे अपना हरक्युलिस कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी क्यूंकि उसने अपने हौसले से सिर्फ लंबा रास्ता ही नहीं तय किया बल्कि भूख और भय को भी परास्त किया.
ज्योति के बाद अब उस बच्चे की बात करें जो मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर अपनी मरी हुई मां को जगाने की कोशिश कर रहा था और उससे थोड़ा ही बड़ा उसका भाई उसे ऐसा करने से रोकता है क्यूंकि वो समझ चुका है कि मां अब जगने वाली नहीं. उस बच्चे की दर्द से अंजान मासूमियत जो शव से लिपटी हुई चादर को भी मानो खिलौना समझ रही है भारत में कोरोना काल की सबसे वीभत्स तस्वीर के रूप में इतिहास में दर्ज की जा चुकी है, ठीक उसी तरह जैसे हम जब भी सीरियन रिफ्यूजी क्राइसिस की बात करें तो तुर्की के समुद्र तट पर मृत पड़े तीन साल के एलन कुर्दी को नहीं भूलेंगे या फिर वियतनाम वार की वो रोंगटे खड़ी कर देने वाली तस्वीर जिसमें नौ साल की किम फुक दक्षिण वियतनाम की एक सड़क पर जली हुई अवस्था में नंगी भाग रही है और उसके साथ कुछ और भी बच्चे हैं जो रोते हुए बदहवाश दौड़ रहे हैं.
हम ऐसे किसी भी बच्चे को इस्तेमाल कर राजनीति नहीं कर सकते, ना ही उनके गम का तमाशा ही बना सकते हैं जैसा कि बिहार के उस बच्चे के साथ हो रहा है. लोगों का आक्रोश और सरकारों को कोसना समझ में आता है पर ये कहां तक जायज़ है कि उनकी गरीबी का माखौल उड़ाया जाए. मौत का इस्तेमाल भी पोलिटिकल माइलेज के लिए ठीक वैसे ही है जैसे चील और गिद्ध किसी लाश पर झपट्टा मारने और अपना हिस्सा पाने के लिए एक-दूसरे से झगड़ना जैसा है. वो भी तब जब एक मासूम बच्चे का सवाल हो! यह बात इसलिए कही जा रही है क्यूंकि मदद के बदले नाम की ख्वाहिश और फिर लाश पर राजनीति करने का मौक़ा समान दिखता है.
अब हम आपको कुछ आंकड़े बताते हैं. बिहार में अब तक देश के दूसरे राज्यों से 15 लाख लोग आ चुके हैं और अनुमान के मुताबिक़ अभी कम से कम दस लाख और आएंगे. कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने कई दिनों तक तकलीफ सहा पर वे मीडिया की नज़रों से छूट गए. जो मीडिया में सुर्खियाँ नहीं बटोर पाएं उन्हें इन नेताओं ने यूं ही छोड़ दिया. कई ऐसे भी लोग हैं जो गुमनामी में रहकर मदद पहुंचा रहे हैं. इन्हें प्रेस रिलीज भेजने और सोशल मीडिया पर वायरल होने में कोई दिलचस्पी नहीं है.
क्यूंकि बात बच्चों की हो रही थी इसलिए यह कहना भी जरुरी है कि बिहार के कई बच्चों को बहुत सारी मदद की जरुरत है. भारत में बच्चों की कुल आबादी में बिहार के बच्चों का 11 प्रतिशत हिस्सा है. बिहार में आबादी का 48 प्रतिशत हिस्सा 0 से 18 वर्ष उम्र समूह का है. राज्य में कुल 4.98 करोड़ बच्चे हैं. इनमें से 4.47 करोड़ (89.9) प्रतिशत बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों में और 0.50 करोड़ (10.1) प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रहते हैं.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 की रिपोर्ट के अनुसार बिहार के 38 में से 23 जिलों में बच्चों में कुपोषण की स्थिति गंभीर बनी हुई है. बिहार के 33 प्रतिशत लोग अभी भी गरीबी रेखा के नीचे हैं. वेब पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक़ बिहार में 24 अनाथालय हैं जहां कई बच्चे माँ-बाप के इंतज़ार में हैं. इसके अलावा कई परित्यक्त बच्चे हैं जिनकी मौजूदगी आंकड़ों में भी नहीं है.
बिहार के स्वास्थ्य विभाग से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक़ बिहार के नौ जिलों में वर्ष 2011 से 2020 तक एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम तथा जापानी इन्सेफेलाइटिस से शून्य से 14 वर्ष के 1853 बच्चों की मौत हुई. पर इन मौतों पर मदद बांटने की होड़ नहीं मची.
ऐसे में सवाल ये उभर कर आता है कि क्या राजनीति चुनिन्दा मुद्दों और किसी ख़ास मौके पर ही होनी चाहिए? क्या राजनीति का उद्देश्य बड़ा और व्यापक नहीं होना चाहिए? और ये भी कि क्या मदद भी चुनावी होनी चाहिए?