लड़के हमारे दिमाग से, हमारी सोच से, हमारी गोद से कभी नहीं उतरते. हम पैसे कमाएं- ज्यादा से ज्यादा कमाएं तो वे हमारे सिर पर ज्यादा चढ़ते जाते हैं. लड़कियों को हम धकियाकर किनारे करते जाते हैं. हाशिए पर उतार देते हैं- अपने दिमाग से, अपने शरीर से, अपने गर्भ से निकाल फेंकते हैं. पैसा हमें लड़कियों से दूर करता जाता है. यह कहने वाले हम कौन होते हैं. 2011 का सेंसज़ का डेटा यह कहता है. कहता है कि पैसा आने के साथ-साथ देश का सेक्स रेशो लुढ़कता हुआ रसातल में चला गया है. सेक्स रेशो मतलब हर 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या. तो हर हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या पिछले 65 साल में 945 से घटकर 887 रह गई है. दूसरी तरफ देश की प्रति व्यक्ति आय दस गुना से ज्यादा बढ़ चुकी है.


कमाएंगे तो खर्च कहां करेंगे. यह जानने में कि अजन्मे बच्चे का सेक्स बताने वाले सेंटर कौन से हैं. कहां हैं और कितने पैसे में सारा काम कर देते हैं. एक बात और है, फर्टिलिटी रेट के गिरने से यह काम और आसान हो गया है. फर्टिलिटी रेट का मतलब यह है कि औरतें अब कितने बच्चों को जन्म देती हैं.


फर्टिलिटी रेट गिर रहा है, यानी औरतें अब कम बच्चों को जन्म देती हैं. तो, एक या दो बच्चों को जन्म देने का फैसला करने वाली औरतें, और उनके पति यह तय कर लेते हैं कि एक बच्चा चाहिए तो वह बेटा ही हो तो अच्छा. यह सोचने, विचारने और क्लिनिक में खर्च करने के लिए पैसा चाहिए. इसलिए आय बढ़ी तो सेक्स रेशो गिरने लगा.

इसी क्रम में डेटा यह भी बताते हैं कि देश के जो राज्य मालदार हैं, वहां के सेक्स रेशो का और भी बुरा हाल है. मालदार राज्य कौन. गोवा, हरियाणा, महाराष्ट्र, सिक्किम और तमिलनाडु. इन पांचों राज्यों में से हरेक राज्य की प्रति व्यक्ति आय सवा लाख रुपए से अधिक है, मतलब राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है, फर्टिलिटी रेट तो राष्ट्रीय औसत से कम, लेकिन सिक्किम को छोड़कर किसी का भी सेक्स रेशो 950 से ऊपर नहीं है.


पैसा आपका प्रिफरेंस नहीं बदलता. आप लड़कों को प्रिफर करते हैं- लड़कियों को नहीं. पितृसत्ता आपके दिमाग से छिटक नहीं पाती. पढ़ाई-लिखाई करने के बाद भी नहीं. क्योंकि शिक्षा हमारे यहां पोथियां पढ़ने से ज्यादा कुछ नहीं. तोतारटंती करते-करते हम लड़कों और लड़कियों में अंतर करते चलते हैं. सेंसेज़ का डेटा यह भी कहता है कि यंग ग्रैजुएट मांओं ने एक हजार लड़कों पर 899 लड़कियों को पैदा किया जोकि 943 के राष्ट्रीय औसत से काफी कम है. संयुक्त राष्ट्र कहता है कि लिंग समानता के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है. पढ़ने-लिखने से लड़के-लड़कों का भेद कम होता है. लेकिन अपने यहां मामला उलटा है. जाहिर सी बात है, पढ़ने से फैमिली प्लानिंग करना सीख सकते हैं. लेकिन इस प्लानिंग में लड़कियों को कब उठाकर बाहर फेंक देना है, यह भी तय हो जाता है.


नीदरलैंड्स के लीडन यूनिवर्सिटी के एक जेनेसिस्ट हैं कमलेश मदान. उनकी रिसर्च ‘इंपैक्ट ऑफ प्रीनेटल टेक्नोलॉजीज़ ऑन द सेक्स रेशो इन इंडिया- एक ओवरव्यू’ में कहा गया है कि भारत में 1971 में जब गर्भपात वैध था, तब उसका इस्तेमाल शहरी क्षेत्रों में सेक्स सेलेक्टिव गर्भपात के लिए ज्यादा होता था. मतलब पैसा, पढ़ाई, यह सब आपको बदलने नहीं, चुनने की आजादी देते हैं. समझ देते हैं. हम अपनी पसंद का चुन लेते हैं. हम लड़कों को चुन लेते हैं.
किसी अप्रिय सत्य से आंख चुरा लेने से क्या होगा. पैसा, पढ़ाई हमारी बुद्धि कुंद कर रही है तो इसके पीछे भी सोची समझी रीति-नीति है. आप आगे बढ़ रहे हैं, या पीछे जा रहे हैं- इसका कुछ पता नहीं. पिछले दिनों यह खबर आई थी कि महाराष्ट्र की बैचलर ऑफ आयुर्वेद, मेडिसिन एंड सर्जरी की तीसरे वर्ष की किताब में बेटा पैदा करने का तरीका बताया गया है. यह चरक संहिता से उठाया गया कंटेंट है जिसमें ढेर सारे तरीके बताए गए हैं.


क्या खाएं- कैसे सोएं- कब रिश्ता बनाएं. करामाती दवाखाना टाइप न्यौते. क्या यह कन्या भ्रूण हत्या के ख्याल की ही तस्दीक नहीं करता? हैरानी तो होगी लेकिन हमारे यहां कैजुअल सेक्सिस्म की शुरुआत बचपन से ही हो जाती है. एनसीईआरटी की कक्षा दो की कोई भी किताब उठाकर देखिए. पुरुष उसमें इंजीनियर हैं, वैज्ञानिक हैं, दुकानदार हैं, सैनिक हैं. औरतें साड़ियां पहने हुए टीचर हैं. एक किताब पापा की हार्ड अर्न्ड मनी की बात कहती है, दूसरी मर्द को हेड ऑफ द फैमिली घोषित करती है. फिर घरों में बच्चे यही देखते रहते हैं. चुपके से दिमाग में बात घर कर जाती है. बड़े होकर उसे दिमाग से निकालना मुश्किल हो जाता है. अगर कक्षा पांच की अंग्रेजी की किताब में 56 परसेंट आदमियों की तस्वीरें हैं और औरतों की 20.6 परसेंट, तो इसमें किसकी गलती है. लिखने वाले लोगों के दिमाग में बचपन से रोल्स तय हैं.


मजे की बात तो यह है कि जिन आदिवासी बहुल राज्यों में 2001 तक सेक्स रेशो राष्ट्रीय औसत से अच्छा था, अब वहां भी गैर आदिवासी इलाकों की छाया पड़ चुकी है. ‘मिसिंग गर्ल्स: मैपिंग द एडवर्स चाइल्ड सेक्स रेशो इन इंडिया, 2011’ में कहा गया है कि आदिवासी बहुल जिलों में सेक्स रेशो गिर रहा है. चूंकि अभिजात्य वहां पहुंच गया है जो अब तक वहां के लिए अजनबी था.


लड़कों को सिर से उतारना है तो पहल खुद ही करनी होगी. पैसा नियो रिच क्लास में दाखिला देता है, किसी को सशक्त नहीं बनाता. पढ़ाई के साथ-साथ विकसित होने, फैसले लेने की आजादी और अपनी पढ़ाई को मर्दों की तरह इस्तेमाल करने की आजादी- इसी से अवधारणाएं बदल सकती है. सिर्फ शिक्षा या आथिक विकास अकेले कुछ नहीं कर सकता. इस पर बाता-बाती कीजिए पर हासिल क्या होगा? लड़कियों को अपनी समझ का चस्का लगने दीजिए. समझ विकसित करना उनका मौलिक अधिकार भी है. उनकी बेरोकटोक जिंदगी में ताकझांक मत कीजिए. वो खुदमुख्तार हों. रास्ते तभी साफ होंगे.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)