UP Election 2022: हमारे देश में सदियों से धर्म (Religion) और राजनीति (Politics) का चोली-दामन जैसा साथ रहा है लेकिन सच तो ये है कि हमेशा से धर्म ने ही राजनीति को संचालित किया है. पर, जब मौसम चुनावी (Election) हो तो राजनीतिक दलों (Political Parties) को धर्म की याद कुछ ज्यादा आने लगती है क्योंकि धार्मिक आस्था का ज्वार पैदा करके ही सियासत के सिंहासन को हासिल करना ज़्यादा आसान हो जाता है.


यूपी के चुनाव (UP Election) अभियान पर गौर करें, तो वहां विपक्षी दल अभी तक तो कोई ऐसा मुद्दा बनाने में कामयाब होते नहीं दिख रहे,जिससे प्रभावित होकर वहां की जनता उनकी झोली सीटों से भर दें. लेकिन दूसरा सच ये भी है कि बीजेपी भी अपनी सरकार के पांच साल के कामकाज को इतना बड़ा मुद्दा नहीं बना पाई है कि सिर्फ उसके आधार पर ही वह दोबारा आसानी से सत्ता में आ जाये. लिहाज़ा, सवाल उठता है कि क्या साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ही एकमात्र ऐसी बैसाखी है जिसके सहारे बीजेपी और मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी सत्ता में काबिज होने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाने में जुटी है?


यूपी की राजनीति की नब्ज समझने वाले मानते हैं कि भगवा पार्टी के लिए देश का सबसे बड़ा सूबा हिंदुत्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला रही है और 2014 के लोकसभा चुनाव में मिले अच्छे नतीजों ने ही इस प्रयोगशाला को इतना मजबूत कर दिया कि वो 2017 में यहां की सत्ता पर काबिज हो गई. लेकिन ये सिलसिला टूटा नहीं और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपने बूते मिली 64 सीटों में भी यही हिंदुत्व फैक्टर सबसे अहम था. लिहाज़ा, इस चुनाव में भी बीजेपी अपने पुराने प्रयोग में कोई बदलाव नहीं करना चाहती बल्कि धार्मिक भावनाओं के उभार में इतनी धार लाना चाहती है, ताकि उसके तेज बहाव में विपक्ष के तमाम मुद्दे बहकर जनता की नजरों से गायब हो जाएं.


इसमें कोई शक नहीं कि किसान आंदोलन भले ही ख़त्म हो गया हो लेकिन सरकार के साथ किसानों की साल भर लंबी चली लड़ाई का यह मुद्दा वेस्ट यूपी में अभी भी जिंदा है. बीजेपी को भी ये अहसास है कि आंदोलन ही खत्म हुआ है लेकिन किसानों की उसके प्रति नाराजगी अभी भी बरकरार है, जो उसके लिए कुछ हद तक भारी पड़ सकती है.


सूत्रों की मानें तो केंद्र से लेकर यूपी की योगी सरकार तक की खुफिया एजेंसी ने वेस्ट यूपी को लेकर अब तक जो रिपोर्ट दी हैं, वे ऐसी नहीं हैं जो बीजेपी को अपनी एकतरफा जीत के लिए आश्वस्त कर सकें. सपा मुखिया अखिलेश यादव और आरएलडी के जयंत चौधरी के गठबंधन ने इस इलाके के जाटों-मुसलमानों की नजदीकियां फिर से बढ़ा दी हैं और बताते हैं कि गांवों की खाप पंचायत की बैठक में अब खुलकर इस गठबंधन को समर्थन देने का एलान होने लगा है.


हालांकि किसानों का गढ़ कहलाने वाले यहां के जाट समुदाय ने पिछले चुनावों में बीजेपी को यूपी और केंद्र में सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई है. लेकिन अब हालात बदले हुए दिख रहे हैं. वेस्ट यूपी के 25 जिलों में 130 सीटें हैं. पिछली बार बीजेपी को इनमें से 104 सीटें मिली थीं. जबकि सपा को  20 बीएसपी को तीन, कांग्रेस को दो और आरएलडी को महज एक सीट ही मिल पाई थी.


यहां लगभग 12% जाट, 32% मुस्लिम, 18% दलित, जबकि 30 फ़ीसदी पिछड़ा आबादी है. किसान आंदोलन में दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर सबसे ज्यादा जाट समुदाय के ही किसान बैठे दिखाई दिए. वेस्ट यूपी में ही बागपत और मुजफ्फरनगर हैं, जो जाटों के गढ़ हैं. किसान आंदोलन की अगुआई कर रही भारतीय किसान यूनियन का गढ़ सिसौली भी मुजफ्फरनगर में है और जाट समुदाय के परंपरागत झुकाव वाले आरएलडी की राजधानी कहलाने वाला छपरौली भी बागपत में आता है. लिहाज़ा, बीजेपी को अभी भी ये डर सता रहा है कि वेस्ट यूपी उसके दोबारा सत्ता में आने का कहीं स्पीड ब्रेकर ही न बन जाये.


यही कारण है कि योगी आदित्यनाथ ने बुधवार को मथुरा-वृंदावन का मुद्दा उठाकर ध्रुवीकरण की दिशा में अपने क़दम आगे बढ़ा दिए हैं. एबीपी न्यूज सी-वोटर के 30 दिसंबर को हुए सर्वे में करीब 17 प्रतिशत लोगों ने कहा कि ध्रुवीकरण इस चुनाव में प्रभावी मुद्दा होगा. जबकि 22 प्रतिशत लोगों ने किसान आंदोलन, कोरोना को 17 प्रतिशत, कानून व्यवस्था को 15 प्रतिशत, सरकार के काम को 11 प्रतिशत लोगों ने चुनाव में प्रभावी मुद्दा बताया है.हालांकि 7 प्रतिशत लोगों ने पीएम मोदी की छवि और 11 प्रतिशत लोगों ने अन्य मुद्दों का जिक्र किया है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)