भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संगठन, भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) ने मध्यकालीन भारतीय राजवंशों पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया है. इस आयोजन में 50 विभिन्न राजवंशों पर प्रकाश डाला गया. आप कहेंगे इसमें खबर क्या है? जरा ठहरिए खबर अब बताते हैं. दरअसल, प्रदर्शनी में किसी भी मुस्लिम राजवंश को शामिल नहीं किया गया है.


ICHR द्वारा दिल्ली में ललित कला अकादमी में 'मध्यकालीन भारत की महिमा.. अज्ञात भारतीय राजवंशों की अभिव्यक्ति, 8वीं-18वीं शताब्दी'' टॉपिक पर प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है. प्रदर्शनी छह फरवरी तक दर्शकों के लिए खुली रहेंगी.


इस प्रदर्शनी के शुरू होते ही बहस शुरू हो गई है कि बहमनी सल्तनत (1347-1518), आदिल शाही वंश  जैसे मुस्लिम राजवंश प्रदर्शन का हिस्सा क्यों नहीं हैं. आईसीएचआर के सदस्य सचिव प्रोफेसर उमेश अशोक कदम से जब इसको लेकर मीडिया ने पूछा तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया और कहा कि वह मुस्लिम राजवंशों को भारतीय राजवंशों के रूप में नहीं मानते हैं. कदम ने इंडिया टुडे को बताया, "वे लोग (मुस्लिम) मध्य पूर्व से आए थे और भारतीय संस्कृति से उनका सीधा जुड़ाव नहीं."


कदम ने कहा, "मध्ययुगीन काल में इस्लाम और ईसाई धर्म भारत में आए और यहां की सभ्यता को उखाड़ फेंका और ज्ञान प्रणाली को नष्ट कर दिया."


अशोक कदम के बयान के बाद एक बार फिर वही सवाल उठ रहा है कि क्या वाकयी मुस्लिम राजवंशों को भारतीय राजवंशों के रूप में नहीं माना जाएगा. क्या मध्य पूर्व का भारत पर कोई प्रभाव नहीं है. क्या आज का भारत मध्य पूर्व के प्रभाव से अछूता है? क्या इस्लामिक शासन ने देश की 'असल पहचान' छीन ली या फिर इस्लामिक प्रभाव के कारण एक नई मिली जुली संस्कृति का जन्म हुआ जिसकी वजह से भारत दुनियाभर में जाना जाता है..


इस्लाम के उदय से पहले था भारत अरब में व्यापारिक संबंध


इस्लाम के उदय से काफी पहले से भारत और अरबों के बीच व्यापारिक संबंध रहे हैं. कई वर्षों तक अरबों के भारत के दक्षिणी भाग के साथ व्यापारिक संबंध थे.  712 ईस्वी में, अरबों ने सिंध पर आक्रमण किया था. इसे भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना बना दिया. यह पहली बार था जब, मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में, मुसलमानों ने भारत पर हमला किया था. भारतीय क्षेत्र पर शासन करने के लिए राजनीतिक वर्चस्व प्राप्त किया था, और अगली पांच शताब्दियों तक शासन किया.


मुस्लिम आक्रमणकारी अपनी स्वयं की पहचान के प्रति बहुत सचेत थे और इस प्रकार हिंदू धर्म के अधिकांश लोगों के साथ विलय या शामिल होने के बजाय शुरुआत में एक अलग इकाई के रूप में काफी वक्त तक बने रहे. अरबों ने धीरे-धीरे इस्लाम के प्रसार की कोशिश की और इस प्रकार भारत में अपने धर्म का विस्तार किया. 13वीं शताब्दी से 1526 ई. में मुगलों के आगमन तक की अवधि भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में एक शानदार और उल्लेखनीय परिवर्तन लेकर आई. यह सब दो धार्मिक आंदोलनों - भक्ति और सूफी आंदोलन के घटित होने के कारण हुआ.


कई इतिहासकारों का मानना ​​है कि 13वीं शताब्दी से भारतीय समाज पर इस्लामी संस्कृति का निश्चित प्रभाव देखा जा सकता है. आमतौर पर जब इस्लाम और हिंदू धर्म जैसी दो अलग-अलग संस्कृतियां संपर्क में आती हैं और साथ-साथ बनी रहती हैं, तो उनका एक-दूसरे पर प्रभाव छोड़ना स्वभाविक है.


मध्ययुगीन काल में हिंदू समाज पर इस्लामी प्रभाव को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों दृष्टिकोणों के रूप में देखा जा सकता है. भारतीय संस्कृति काफी हद तक इस्लामी परंपरा से प्रभावित हुई है, हालांकि यह नहीं कहा जा सकता है कि इस्लाम ने पूरी तरह से हिंदू समाज पर मजबूत प्रभाव छोड़ा. आइए एक-एक कर बात कर लेते हैं...


सामाजिक प्रभाव
इस्लाम का भारत पर सामाजिक प्रभाव उल्लेखनीय है. सबसे पहले उत्तर भारत में इस्लामिक परिधान सलवार और अचकन पेश किए गए थे. मुस्लिम रईसों द्वारा पहने जाने वाला यह पोशाक फैशन ट्रेंड बन गया और हिंदुओं के अभिजात्य वर्ग द्वारा इसे कॉपी किया गया. इसके अलावा, इस्लामिक फूड का क्रेज बढ़ा. मुसलमानों की भांति हिन्दू भी मांसाहारी व्यंजन जैसे कबाब आदि खाने लगे. हालांकि, बहुसंख्यक हिंदू और पुरोहित वर्ग मुसलमानों के कपड़े, भोजन और सामाजिक शिष्टाचार के प्रभाव का सख्त विरोध करते रहे.


धार्मिक प्रभाव
इस्लाम ने भारत और मुख्य रूप से हिंदुओं को "ईश्वर की एकता" की अवधारणा दी.  हिंदू और इस्लाम सुधारकों ने भक्ति आंदोलन को काफी हद तक प्रभावित किया जिसमें उन्होंने सभी धर्मों की मौलिक समानता पर जोर दिया. सूफी संतों ने हिंदू समाज का ध्यान आकर्षित किया. हिन्दुओं को सूफीवाद के कॉन्सेप्ट ने काफी प्राभावित किया. 


आर्थिक प्रभाव
भारत की अर्थव्यवस्था पर बड़े पैमाने पर हिंदू समाज का प्रभुत्व था,  मुस्लिम शासकों ने राजनीतिक क्षेत्र में अपना अधिकार स्थापित किया लेकिन बड़े पैमाने पर व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में हिन्दूओं ने काम किया. मुसलमान वाणिज्यिक प्रथाओं से कम परिचित थे और बनिया (हिंदू) मध्ययुगीन काल के दौरान भारत की आर्थिक संरचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में कार्य करते रहे. 


वाणिज्य, व्यवसाय और व्यापार के क्षेत्र में हिंदू समाज की प्रमुख हिस्सेदारी के कारण, मुसलमानों को हिंदुओं पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. विदेशी वाणिज्य और व्यापार जो पहले समाप्त हो गया था, हिंदू समाज पर इस्लाम के प्रभाव से फिर से अस्तित्व में आया. भारत ने विदेशों विशेषकर मध्य पूर्व के देशों के साथ व्यापार करना शुरू किया. इस तरह की गतिविधियों में जबरदस्त वृद्धि हुई. हालांकि प्रशासन और राजनीतिक वर्चस्व मुसलमानों के हाथों और प्रभाव में अधिक था, लेकिन आर्थिक जीवन और अर्थव्यवस्था का विकास हिंदू समाज के नियंत्रण में अधिक रहा.


भाषा और साहित्य पर प्रभाव


भाषा पर भी इस्लाम का प्रभाव देखने को मिला. भाषा में बड़ी संख्या में अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों की उपस्थिति देखी गई. हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के मिश्रण से नई भाषा, उर्दू का उदय हुआ. उर्दू संस्कृत मूल की अरबी, फ़ारसी और तुर्की भाषा का मिला-जुला रूप था जो लोगों द्वारा उपयोग की जाने वाली संचार की एक साझा भाषा बन गई.


शुरुआत में हिंदू समाज ने फ़ारसी और अरबी अध्ययन पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन, बाद में समय बीतने के साथ, हिंदुओं ने फ़ारसी साहित्य का अध्ययन करना शुरू कर दिया. तुगलक काल में ये अधिक देखा गया.  


शुरुआत में हिंदू विद्वानों ने फारसी साहित्य में कोई स्वतंत्र रचना नहीं की लेकिन बाद में, शाहजहां के समय में, फारसी साहित्य में स्वतंत्र कृतियों का निर्माण हुआ जिसका सबसे बड़ा उदाहरण चंद्र भान ब्राह्मण की रचनाएं हैं.


कला और वास्तुकला पर प्रभाव


ऐसा माना जाता है कि मध्ययुगीन काल में इस्लाम का एक मजबूत प्रभाव ललित कला और वास्तुकला के क्षेत्र में था. हिंदू और मुस्लिम कला संस्कृति के सम्मिश्रण से एक नए प्रकार की कला का उदय हुआ जिसमें सबसे खूबसूरत शिल्प कौशल के साथ कई इमारतों का निर्माण हुआ. कुतुब मीनार, दिल्ली में हुमायूं का मकबरा, ताजमहल, जामा मस्जिद आदि का निर्माण इसी प्रकार की इस्लामी वास्तुकला से किया गया था. राजपूत शासकों ने अपने महलों में वास्तुकला की मुगल शैली को अपनाया. 


संगीत और चित्रकला पर प्रभाव


मुस्लिम शासकों को संगीत का बहुत शौक था और उनके शासन काल में संगीत संस्कृति का विकास तेजी से हुआ. कव्वाली बहुत लोकप्रिय हुई. इतनी की आज इसके लिए बॉलीवुड फिल्मों से लेकर निजामुद्दीन दरगाह तक पर कव्वाली सुनने और देखने को मिलती है. ईरानी तम्बुरा और भारतीय वीणा के सम्मिश्रण का निर्माण कुछ वाद्य यंत्रों जैसे सितार द्वारा किया गया था. इसके अलावा, तबला हिंदू संगीत मिरदंग का संगीतमय संशोधन था.


मध्य पूर्वी देशों के खान-पान का भारत में बोलवाला


आज देश भर में घर-घर बनने वाला कोफ्ता मध्य पूर्व के बाल्कन का मशहूर व्यंजन है. इसके अलावा जलेबी भी वहीं से है. गुलाब जामुन जो हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में देश की पसंदीदा मिठाई है वो भी मध्यपूर्व की मिठाई है. इसे 'इक़मत अल क़ादी' के नाम से जाना जाता है और यह मिठाई फ़ारसी आक्रमणकारियों द्वारा भारत लाया गया था.


रोज नास्ते में खाया जाने वाला समोसा भी वहीं से है. इसे मध्य पूर्व में 'सम्बोसा' के नाम से जाना जाता है. नान और बिरयानी जैसे भारतीयों के पसंदीदा डिश भी मुस्लिम संसकृति की वजह से ही भारत आए थे.


आज भारत के खान-पान, पहनावा और संस्कृति इतनी मिली-जुली हो गई है कि यह सीधे तौर पर कहना कि मध्य पूर्व या कहीं का भी इस्लामिक प्रभाव भारत पर नहीं है हजम करने वाली बात नहीं. दरअसल, आज का भारत एक बगीचे की तरह है जहां अलग अलग फूलों की अलग-अलग रंग और खुशबू है. 


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]