भारत में चुनावी सीजन चल रहा है. लोकसभा चुनाव के क्रम में दो चरणों का मतदान संपन्न हो चुका है. दूसरी चरण के वोटिंग में भी मतदाता उदासीन दिखे, ऐसा कई विश्लेषकों का कहना है. इसको भीषण गर्मी, शादियों के सीजन और कोई अन्य कारण या मतदाताओं की नाराजगी, जैसे किसी भी एंगल से देखा जा सकता है. पहले चरण की वोटिंग में कम वोट हुए. उसके बाद पीएम मोदी के चुनावी भाषणों में थोड़ा तल्खी देखी गई. विपक्ष ने इसे ध्रुवीकरण का एंगल दिया. इन दिनों भारत में गर्मी बढ़ी हुई है, चाहें वो मौसम की मार हो या चुनावी बयानों की लेकिन वो गर्मी मतदान में नहीं दिख पाई. चुनाव प्रचार में गर्मी लाने की कोशिश खूब पार्टियों की ओर से भी की गई. उसका थोड़ा असर तो दूसरे फेज के चुनाव में दिखा भी है.


गर्मी पूरी नहीं, लेकिन चुनाव मजेदार


पूरे तरीके से गर्मी तो मतदान में नहीं आयी है, लेकिन हल्का असर जरूर देखने को मिला है. छत्तीसगढ़ में 75 फीसदी वोट हुए हैं. राजस्थान में पहले चरण में 50 फीसदी वोट हुए अब वो 64 प्रतिशत मतदान तक पहुंच गया है.  राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वोट प्रतिशत में बढ़त तो दिखी है. देश के लोकसभा में अधिक सीट देने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों में इस बार भी वोट प्रतिशत कम रह गया है. दोनों जगहों से मिलाकर कुल 120 सीटें लोकसभा की आती है. बिहार में 57 प्रतिशत तो यूपी में 55 प्रतिशत के आसपास ही मतदान रह गया. पहले चरण में मतदान का प्रतिशत जो कम होता हुआ दिखा था वो दूसरे चरण में फिर से एक बार लुढ़कते हुए यूपी और बिहार में देखा गया. इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में कई लोकप्रिय प्रत्याशी चुनावी मैदान में है. उसके कारण वोट का प्रतिशत बढ़ा होगा, लेकिन सिर्फ एक कारण से ऐसा हुआ ऐसा कहना सही नहीं होगा.  



उत्तर प्रदेश में पैटर्न पुराना ही 


योंग्रेंद्र यादव ने कहा है कि यूपी में भाजपा की जमीन सरक रही है. बिहार और यूपी दोनों राज्यों में वोट प्रतिशत भी काफी कम है और ये दोनों फिलहाल एनडीए की गढ़ के तौर पर भी कहा जा सकता है. दोनों राज्यों से एनडीए को काफी सीटें पिछली बार मिली थी, लेकिन योंगेंद्र यादव पहले की तरह के अब (केवल) सेफेलॉजिस्ट (चुनाव-विश्लेषक) नहीं रहे हैं.  उनकी बातों को चुनाव के सांख्यिकीय अध्ययन करनेवाले की तरह ना देखकर एक नेता की बयान की तरह देख जाना चाहिए. यूपी में भाजपा की कम सीट आने की बात कई जगहों से आ रही है. तो उस पर खुद कांग्रेस के कई नेताओं से बातचीत के क्रम में यह माना है कि यूपी में इंडिया गठबंधन करीब दस सीटें लाएगी. तो, जब कांग्रेस के लोग ये मान रहे हैं कि उनको दस सीटें मिल सकती हैं, तो इसका मतलब है कि अधिकांश सीटें भाजपा और एनडीए के खाते में जाएगी. इसमें कोई भी ना और हां का तो सवाल ही नहीं बनता है.


भाजपा की कम सीटों की बात है तो इसमें परसेपशन की बात हो सकती है. 2019 में भी चुनाव में तो पहली बार भाजपा को मात्र 67 सीटें ही आई थी. उसके बाद कुल सीटों का आंकड़ा 72 का हुआ. उपचुनाव, गठबंधन इत्यादि कई तरह के फैक्टर उसमें होते हैं. अभी तक देखने से कहीं से भी नहीं लगता है कि भाजपा को 67 सीटों से बहुत अधिक का नुकसान होगा. एक या दो कम सीटें अधिक या कम हो सकती हैं. सीटों को लेकर अभी कुछ भी कहा नहीं जा सकता है क्योंकि अभी कई फेज का चुनाव होना शेष है. मध्य यूपी में चुनाव होना बाकी है. देखा जाए तो भाजपा का मध्य यूपी में काफी सीटों पर कब्जा है. अभी भी मध्य यूपी में भाजपा की कोई काट नहीं दिख रही है. अगर अमेठी से कांग्रेस कोई बेहतर प्रत्याशी दे दे तो बात और होगी वरना सभी सीटें तो भाजपा की तरफ झूकती ही हैं. छठवें और सातवें चरण में पूरी तरह से साफ हो जाएगा कि चुनाव किस तरह जा रहा है. मुख्तार अंसारी की मौत से पूर्वांचल के कुछ सीटों पर नाराजगी देखी जा रही है. ऐसे में कुछ सीटों पर वहां असर पड़ने का अनुमान है.


टिक नहीं पा रहे है चुनावी मुद्दे 


मसला ये है कि इस बार जो भी मसले बनाने की कोशिश की जा रही है, जिन मुद्दों पर जनता को गोलबंद करने की कोशिश हो रही है, वे टिक ही नहीं रहे हैं. मतलब, एकाध दिन के अंदर मसले उड़ जाते हैं, फिर दूसरा मसला आ जाता है. ओबीसी आरक्षण का मामला तो शुरू से ही चल रहा है. कांग्रेस ने मुसलमानों को ओबीसी आरक्षण देने का वायदा तक कर दिया है. चुनाव में इस तरह के बयान से बचने की जरूरत होती है. पहले तो कर्नाटक का बयान फिर सैम पित्रोदा का बयान उसके बाद राबर्ट वाड्रा का बयान सामने आया. इस तरह के बयान चुनाव के समय पार्टी को कमजोर करते हैं, किसी भी तरह से विपथगा होने को ठीक नहीं कहा जा सकता है. इसका नुकसान हो सकता है.


इस चुनाव में देखा गया है कि कांग्रेस की ओर से जो उलटे बयान आ रहे हैं या फिर भाजपा या नरेंद्र मोदी की ओर से हमलावर बयान दिए जा रहे हैं वो किसी तरह से टिक नहीं पा रहे हैं. इस चुनाव में जिसको भी मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है वो मुद्दा बन नहीं पा रहा है. विरासत टैक्स, मंगलसूत्र, वक्फबोर्ड आदि जैसे मुद्दे सामने तो बड़ी जोर से लाए गए, लेकिन वो मुद्दे एक दो दिन के बाद शांत हो जा रहे हैं. चुनाव का अभी तक नैरेटिव नहीं बन पा रहा है. अभी तक ये सामने स्थिति नहीं बन पाई है कि ये चुनाव किस मुद्दे पर होता जा रहा है, होने जा रहा है?.


ध्रुवीकरण तो पहले से है


लोग कह रहे है कि इस चुनाव में ध्रुवीकरण नहीं है बल्कि भाजपा ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही है, लेकिन ऐसा नहीं है, बल्कि चुनाव में ध्रुवीकरण है. ये चुनाव ध्रुवीकरण के नाम पर ही खड़ा है. इस बार ध्रुवीकरण भाजपा के वोट बनाम भाजपा के खिलाफ वोटर के बीच है. चुनाव से पहले ही पता चलने लगा कि कौन वोटर किस तरफ जाएगा? भाजपा के वोटर पूरी तरह फिक्स हैं. भाजपा के खिलाफ वोटर भी फिक्स हैं. कुछ ऐसे वोटर थे जो कभी भी स्विंग कर सकते थे, यानी की किसी ओर जा सकते थे. इससे कोई खास असर नहीं पड़ने जा रहा है. दोनों ओर से मोहभंग हुआ है जिसका असर वोटिंग के कम प्रतिशत में देखने को मिला है. ग्राउंड से बात आ रही है कि भाजपा के मध्यवर्गीय शहरी वोटर वोट देने के लिए नहीं निकले हैं. ईवीएम का इतना ज्यादा हल्ला कर दिया गया है, और उससे दलितों और मुस्लिमों को ये लग गया है कि अगर वो वोट डालें तो भी उनका वोट किसी और को चला जाएगा, जिसके कारण ईवीएम से भाजपा जीत जाएगी.


दो तरह के मामले सामने आ रहे हैं. दोनों तरह से ये कहा जा रहा है कि उनके वोटर घर से नहीं निकले, हो सकता है कि इसी के कारण से वोट का प्रतिशत काफी कम रहा हो. देश में चुनाव से ठीक पहले दो लाइन खिंच गई थी जिससे एक भाजपा के पक्ष में तो दूसरा भाजपा के विरोध में वोटिंग का समीकरण बन  गया था. राजनीतिक दलों में भाजपा के अलावा किसी भी पार्टी का अपना वोट नहीं है. वोट सिर्फ एंटी भाजपा का है उसको सभी विपक्ष वाले बटोरने में पक्ष में लगे हैं. एंटी बीजेपी या बीजेपी दोनों के वोटर के बीच ध्रुवीकरण हुआ हो तो उसका असर कम वोटिंग प्रतिशत का एक कारण हो सकता है, इसीलिए नया कोई भी मुद्दा चुनाव में शायद टिक नहीं पा रहा है.


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