गुजरात के बाद अब दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी चुनाव का भी बिगुल बज चुका है. चुनाव आयोग ने कुछ ऐसी रणनीति के तहत दिल्ली में 4 दिसंबर को चुनाव कराने का ऐलान किया है कि मुख्यमंत्री और आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल को उलझाकर रख दिया है. चूंकि गुजरात में दो चरणों में 1 और 5 दिसंबर को विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए उनके लिए संकट ये खड़ा हो गया है कि वे प्रचार के लिए गुजरात को ज्यादा वक्त दें या फिर दिल्ली को. वैसे तो आप के लिए दोनों ही चुनाव अहम हैं, लेकिन पिछले 15 साल से एमसीडी की सत्ता पर काबिज बीजेपी को हटाना उसकी प्राथमिकता है और वो इसके लिए पूरी ताकत भी लगा रही है.


इस बीच हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (AIMIM) ने भी एमसीडी चुनाव में ताल ठोंकने का ऐलान कर दिया है. बताया गया है ओवैसी की पार्टी MCD चुनाव में 70-75 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. हालांकि पांच साल पहले 2017 में हुए एमसीडी चुनाव में भी ओवैसी की पार्टी ने 9 सीटों पर किस्मत आजमाई थी लेकिन उसे कोई कामयाबी नहीं मिली थी. इस बार वह ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ रही है और ये सारी सीटें वे हैं, जहां मुस्लिमों के अलावा दलित वोटरों की तादाद ज्यादा है. दरअसल महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक के स्थानीय निकाय चुनावों में मिली जीत के बाद पार्टी अब दिल्ली में भी अपनी ताकत दिखाना चाहती है.


कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दिल्ली के मुसलमानों में ओवैसी का हालांकि कोई दबदबा नहीं है लेकिन बीते महीनों में पैगंबर मोहम्मद को लेकर दिए गए अपमानजनक बयान और उसके बाद हिंदू-मुस्लिम के बीच पैदा हुए विवाद को लेकर ओवैसी मीडिया में बेहद तीखी भाषा में प्रतिक्रिया देते रहे हैं. उन्होंने मुस्लिमों के साथ हो रहे सौतेले बर्ताव और समान नागरिक संहिता को लेकर भी जिस तरह से सरकार पर निशाने साधे हैं, उससे वे अपनी एक नई इमेज गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.


मुस्लिमों के एक बड़े तबके को भी ये अहसास होने लगा है कि इकलौते ओवैसी ही हैं, जो खुलकर उनके हक की आवाज उठाते है. लिहाजा,इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ओवैसी को कुछ सीटों पर मुस्लिमों का साथ मिल सकता है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या उन्हें इतना समर्थन मिल पाएगा कि वे खाता खोलने में भी कामयाब हो जाएं.


दरअसल, दिल्ली में कांग्रेस का जो परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक था, वह काफी हद तक अब केजरीवाल के साथ आ जुड़ा है. इसलिए ओवैसी को जितना भी मुस्लिम वोट मिलेगा, उससे कांग्रेस का नहीं बल्कि आप का ही नुकसान होगा और इसका फायदा बीजेपी को मिलेगा. वैसे भी आप नेता अक्सर ये आरोप लगाते रहे हैं कि ओवैसी, बीजेपी की 'बी' टीम है और वे सिर्फ मीडिया में ही उसके खिलाफ बयानों की नूरा कुश्ती खेलते हैं. जबकि हकीकत में वे बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए ही हर चुनाव-मैदान में कूदते हैं ताकि मुस्लिमों वोटों का बंटवारा हो जाए और बीजेपी की जीत आसान बन जाए.


इसलिए दिल्ली की सियासी नब्ज को समझने वाले जानकार भी मानते हैं कि बीते एक दशक में केजरीवाल ने मुस्लिमों के बीच जिस तरह से अपनी पैठ बनाई है, वह उनकी एक बड़ी ताकत बन चुकी है और उसे कमजोर करने के लिए ही ओवैसी दिल्ली के दंगल में ताल ठोक रहे हैं. लेकिन एक पहलू ये भी है दिल्ली में पढ़े-लिखे मुसलमानों का एक तबका वो भी है, जो ओवैसी की तकरीरों से कोई खास प्रभावित नहीं है. जाहिर है कि वह तबका ओवैसी की पार्टी को अपना वोट देकर उसे खराब नहीं करना चाहेगा, लेकिन जिन इलाकों में मजहबी कट्टरता की सोच रखने वाले लोगों की तादाद है, वहां बेशक ओवैसी को समर्थन मिल सकता है. लेकिन बड़ा सवाल यही है कि ओवैसी क्या केजरीवाल की ताकत को कमजोर करने के अपने मकसद में कामयाब हो पायेंगे?


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