दिल्ली आबकारी नीति यानी शराब घोटाले में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी और बीआरएस नेता के कविता पर केंद्रीय जांच एजेंसी का शिकंजा लगातार कसता जा रहा है. ईडी की ओर से हैदराबाद के कारोबारी अरुण रामचंद्र पिल्लई की गिरफ्तारी के बाद के. कविता की मुश्किलें और बढ़ गई हैं.


ईडी के हवाले से जो ख़बरें निकल कर सामने आ रही है, उससे दिल्ली आबकारी नीति से जुड़े केस में के कविता के तार पुरज़ोर तरीके से जुड़ते नज़र आ रहे हैं. प्रवर्तन निदेशालय का कहना है कि अरुण पिल्लई केसीआर की बेटी के लिए बेनामी तरीके से पैसे लगाने का काम करता है.


इन सब खुलासों के बाद ईडी ने 11 मार्च को के. कविता से पूछताछ भी की है. सवाल उठ रहा है कि दिल्ली आबकारी नीति घोटाले केसीआर की बेटी के ऊपर, जिस तरह से ईडी का शिकंजा लगातार बढ़ते जा रहा है, क्या उसके पीछे कोई सियासी मायने भी है.


ये सवाल इसलिए भी राजनीतिक गलियारों की सुर्खियां बनी हुई है क्योंकि इस साल नवंबर-दिसंबर में  मध्य प्रदेश, राजस्थान के साथ तेलंगाना में भी विधानसभा चुनाव होना है. हम सब जानते हैं कि तेलंगाना विधानसभा का कार्यकाल 16 जनवरी 2024 को खत्म हो रहा है.


दिल्ली शराब घोटाले में कानूनी प्रक्रिया चाहे जो हो, लेकिन इसका असर तेलंगाना के आगामी विधानसभा चुनाव पर भी देखा जाएगा, ये तो तय है. दरअसल दक्षिण भारत में तेलंगाना उन राज्यों में शामिल है, जिसमें कर्नाटक के बाद बीजेपी अपने पैर तेजी से फैला रही है और यही वजह है कि के कविता पर ईडी के शिकंजे को इस नजरिए से भी देखा जा रहा है.


केसीआर की पार्टी बीआरएस आरोप लगा रही है कि आगामी तेलंगाना चुनाव को देखते हुए बीजेपी और केंद्र में मोदी सरकार उनके नेताओं पर राजनीतिक साजिश के तहत इस तरह की कार्रवाई कर रही है. ईडी के कार्रवाई पर बीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव का कहना है कि बीजेपी चाहे जो करे, हम पीछे नहीं हटेंगे. केसीआर का कहना है कि बीजेपी अलग-अलग राज्यों में विधानसभा और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए विपक्षी दलों के नेताओं पर सीबीआई और ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों के जरिए दबाव बनाने की कोशिश कर रही है.


हालांकि बीजेपी का कहना है कि उसका इससे कोई लेना-देना नहीं है और केंद्रीय जांच एजेंसियां दिल्ली शराब घोटाले में तफ़तीश के तहत मिल रही जानकारी के आधार पर कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ा रही है.


इतना तो तय है कि दिल्ली की आबकारी नीति केस में के. कविता का नाम आने के बाद बीजेपी तेलंगाना में इसे एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने वाली है. अरुण पिल्लई के खुलासे के बाद अब के. कविता के लिए इससे बाहर आना आसान नहीं होगा. नवंबर-दिसंबर यानी चुनाव के वक्त तक अगर इस केस में उनकी मिली-भगत को लेकर कुछ नई बातें आती हैं, तो ये न सिर्फ के.कविता के लिए बल्कि इससे लगातार तीसरी बार तेलंगाना का मुख्यमंत्री बनने की मंशा रखने वाले केसीआर की उम्मीदों पर भी पानी फिर सकता है.


ये हम सब जानते हैं कि के चंद्रशेखर राव पिछले कुछ महीनों से 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ विपक्षी पार्टियों को लामबंद करने की मुहिम में जुटे हैं. हालांकि केसीआर ने इस मुहिम से सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को दूर रखा है. केसीआर अपने मुहिम से केंद्र में बीजेपी के विजयरथ को रोकना चाहते हैं. लेकिन जिस तरह से उनकी बेटी पर ईडी का शिकंजा बढ़ रहा है और दिल्ली शराब घोटाले में के. कविता को लेकर एक के बाद एक खुलासे हो रहे हैं, वैसे में केसीआर के लिए तेलंगाना में सत्ता बरकरार रखना ही अब सबसे बड़ी चुनौती है.


जब से आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य बना है, वहां की राजनीति में के चंद्रशेखर राव का ही दबदबा रहा है. जून 2014 से ही केसीआर तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं. इस साल तेलंगाना में दूसरी बार विधानसभा चुनाव होना है. अलग राज्य बनने के 4 साल बाद 2018 में जब तेलंगाना में पहली बार विधानसभा चुनाव हुआ था, तो उसमें केसीआर की पार्टी टीआरएस ने गजब का प्रदर्शन किया था. तेलंगाना की कुल 119 सीटों में से 88 सीटों पर केसीआर की पार्टी को जीत मिली थी.


लेकिन अब तेलंगाना की राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है. केसीआर के लिए बीजेपी इस बार सीधे चुनौती बनते दिख रही है. पिछले 4 साल में तेलंगाना में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत तेजी से बढ़ी है. ऐसे तो पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी वहां ज्यादा कुछ कमाल नहीं कर पाई थी. 2018 में बीजेपी सिर्फ एक ही विधानसभा सीट जीत पाई थी. उसे महज़ 7% वोट ही हासिल हो पाए थे. लेकिन इस चुनाव के 4 महीने बाद ही 2019 में लोकसभा चुनाव होता है और उसमें बीजेपी का तेलंगाना में प्रदर्शन सबको चौंका देता है. बीजेपी 17 में से 4 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब हो जाती है. बीजेपी का वोट शेयर भी 19 फीसदी से ऊपर पहुंच जाता है. जबकि इस चुनाव में केसीआर की पार्टी को नुकसान उठाना पड़ता है. 2014 में केसीआर की पार्टी को 12 सीटों पर जीत मिली थी, वहीं 2019 में टीआरएस 9 सीट ही जीत पाती है.


2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जिस तरह का प्रदर्शन किया था, वो केसीआर के लिए एक तरह से खतरे की घंटी थी.  2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का आकलन अगर विधानसभा सीटों के हिसाब से करें,  2018 में बीजेपी 118 सीट पर लड़ने के बावजूद सिर्फ एक विधानसभा सीट जीत पाई थी, लेकिन 2019 के आम चुनाव में 21 विधानसभा सीटों में बीजेपी आगे रही थी. वहीं टीआरएस 2018 में 88 सीटें जीती थी. लेकिन 2019 के आम चुनाव में केसीआर का जनाधार घट गया था. उस वक्त टीआरएस सिर्फ 71 विधानसभा सीटों पर ही आगे थी.


जब जून 2014 में तेलंगाना आंध्र प्रदेश से अलग होकर नया राज्य बना था, उस वक्त आंध्र प्रदेश और तेलंगाना दोनों ही राज्यों में बीजेपी का कोई ख़ास जनाधार नहीं था. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजों से बीजेपी को एहसास हो गया कि आगामी विधानसभा चुनाव में वो तेलंगाना के लोगों के लिए केसीआर की जगह नया विकल्प बन सकती है और उसने इस दिशा में तेजी से काम करना शुरू कर दिया. बीजेपी को इस बात का भी फायदा मिलते गया कि तेलंगाना में कांग्रेस और टीडीपी लगातार कमजोर होते जा रही थी.


दक्षिण राज्यों में पकड़ मजबूत बनाने के लिए बीजेपी इस बार किसी भी हालत में तेलंगाना में सरकार बनाने की मंशा रखती है. कर्नाटक को छोड़ दें, तो आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी अभी उतनी मजबूत नहीं है कि सरकार बनाने के बारे में सोच भी सके. इनके अलावा सिर्फ तेलंगाना ही है, जहां बीजेपी की स्थिति मजबूत हो पाई है. बीजेपी के लिए इस साल तेलंगाना चुनाव जीतना इसलिए भी प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है क्योंकि ऐसा होने से केसीआर की विपक्षी मोर्चा बनाने की मुहिम को भी धक्का लग सकता है.


तेलंगाना को लेकर बीजेपी की इस मंशा को देखते हुए ही केसीआर के साथ ही विपक्षी दलों के नेताओं का भी मानना है कि के.कविता के ऊपर दबाव बनाने की कोशिश एक तरह की राजनीतिक साजिश है, ताकि तेलंगाना के लोगों के बीच केसीआर की छवि कमजोर हो और उसका फायदा बीजेपी आगामी चुनाव में उठा सके. यही वजह है कि कुछ दिन पहले जिन 9 नेताओं ने केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का मुद्दा उठाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी भेजी थी, उसमें से एक के. चंद्रशेखर राव भी थे.


ये भी संयोग ही है कि फिलहाल जिन-जिन मामलों में सीबीआई और ईडी की जांच तेज़ हुई है, उनमें विपक्ष के उन नेताओं के ही तार जुड़े हुए हैं, जिनसे अलग-अलग राज्यों में बीजेपी को कड़ी चुनौती मिलने वाली है. तेलंगाना के समीकरणों को तो हमने देख ही लिया. दिल्ली शराब घोटाले की बात करें, तो आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसोदिया सीबीआई और ईडी के लपेटे में हैं. ये हम सब जानते हैं कि विधानसभा चुनाव में पिछले दो बार से आम आदमी पार्टी के ऐतिहासिक प्रदर्शन से बीजेपी दिल्ली में पनप नहीं पा रही है. अब तो दिल्ली नगर निगम की सत्ता से भी आम आदमी पार्टी ने बीजेपी की विदाई कर दी है. बीजेपी के सामने अगले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सभी सातों सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने की चुनौती है और इस बार उसे आम आदमी पार्टी से इन 7 सीटों पर कड़ी टक्कर मिलेगी, इसकी भी पूरी संभावना है.


दूसरी तरफ नौकरी के बदले जमीन से जुड़े घोटाले में भी लालू यादव परिवार पर जांच एजेंसियों का शिकंजा कसता जा रहा है. बीजेपी से जुदा होकर नीतीश कुमार के आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के साथ हाथ मिला लेने के बाद बिहार में सियासी समीकरण बदल गए हैं. वहां बीजेपी के लिए 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने की संभावनाओं पर इस समीकरण से चोट पहुंची है.


ऐसे में राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा तो जरूर होगी कि उन्हीं विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसा जा रहा है, जो भविष्य में बीजेपी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने की राह में चुनौती हैं.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)