दुनिया के सबसे विवादास्पद दार्शनिक की पदवी पा चुके ओशो रजनीश ने अपने प्रवचन देते हुए एक बार कहा था कि, "अगर किसी झगड़े को सुलझाने के लिये पांच-सात लोगों की पंचायत बैठती है और उसमें कोई एक ये कहता है कि आप सही व निर्दोष हो लेकिन बाकी सब कहते हैं कि तुम ही दोषी हो तो वो पंचायत  तुम्हारे ख़िलाफ़ ही फैसला सुनायेगी. लेकिन वो फैसला सुनते समय उस एक अकेले शख्स को धन्यवाद देना कभी मत भूलना क्योंकि उसने बहुमत के खिलाफ जाकर अपनी खुद्दारी व ईमानदारी से कोई समझौता नहीं किया. लेकिन परेशानी ये है कि अब हमें अपने देश में ऐसे इकलौते इंसान को तलाशना भी रात के अंधेरे में जुगनू पकड़ने से कमतर नहीं है.'


ओशो के विचार अपनी जगह हैं और उसकी आलोचना या अपमान करने की आज़ादी भी सबको है. लेकिन छह साल पहले हुई नोटबंदी को लेकर देश की शीर्ष अदालत ने जो फैसला सुनाया है उसकी आलोचना करने या उस पर कोई तीखी नुक्ताचीनी करने का हक हमारे देश का संविधान ही हमें नहीं देता है. ये भी हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है जो न्यायपालिका के कुछ अहम फैसले के आने के बाद ही हमें समझ आती है कि नागरिक अधिकारों के मामले में हम कहां खड़े हुए हैं. 


जबकि दुनिया के बहुतेरे लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका के फैसले भी पब्लिक स्क्रूटनी यानी उस पर खुली बहस करने के दायरे में आते हैं. लेकिन बदकिस्मती से हमारे देश में ऐसी व्यवस्था नहीं है क्योंकि ऐसे किसी भी निर्णय की सार्वजनिक आलोचना करने को कोर्ट की अवमानना समझा जायेगा और इसमें सजा का भी प्रावधान है.


जाहिर है कि जब देश की शीर्ष अदालत बहुमत के आधार पर कोई फैसला सुनाती है तो उसे सबको मानना ही पड़ता है जिसे कोई चुनौती भी नहीं दी जा सकती. इसलिये सवाल ये नहीं है कि नोटबंदी का फैसला लेने की केंद्र सरकार की प्रक्रिया को लेकर जो फैसला आया है वह गलत है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि पांच जजों वाली संविधान पीठ के एक जज की राय बाकी सबसे अलग क्यों रही और उन्होंने ऐसा फैसला देने में इतना बेखौफ होने से परहेज़ क्यों नही किया?


हालांकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद इस पर सियासत भी तेज हो गई है और बीजेपी व कांग्रेस फिर से इस पर आमने-सामने आ गई हैं. कांग्रेस नोटबंदी से देश को हुए नुकसान को याद दिला रही है तो बीजेपी इसके फायदे गिनाते हुए दावा कर रही है कि इससे देश में आतंकियों-नक्सलियों की कमर पूरी तरह से टूट चुकी है. लेकिन उसके पास भी इस सवाल का कोई तथ्यात्मक जवाब नहीं है कि इससे कितना काला धन बाहर आया है. जबकि नोटबंदी का फैसला सुनाते वक़्त सरकार ने यही दावा किया था कि इसके बाद देश में काले धन का कोई नामो-निशान ही नहीं बचेगा. लेकिन तब भी रिज़र्व बैंक के विशेषज्ञों ने सरकार को यही सलाह दी थी कि नोटबंदी से ये मकसद पूरा नहीं होगा क्योंकि अधिकांश लोगों ने काले धन का निवेश जमीन/जायदाद और सोना खरीदने में कर रखा है जो नोटबंदी के बावजूद बरकरार ही रहेगा. ऐसा ही हुआ भी.


इस मुद्दे पर सत्तापक्ष और विपक्ष की सियासत अपनी जगह है लेकिन एक मजबूत व निष्पक्ष लोकतंत्र की असली पहचान यही होती है कि वहां अल्पमत की आवाज़ को भी उतना ही सम्मान दिया जाता है और उसकी बात को भी उतनी ही गौर से सुना जाता है. इसलिये यहां हम संविधान पीठ के उन चार जजों की बात नहीं करेंगे जिनकी राय एक जैसी ही थी और उसी आधार पर उन्होंने समान फैसला दिया. लेकिन देश के हर नागरिक को ये जानने का संवैधानिक हक है कि आखिर वो एक जज कौन हैं जिन्होंने इसके उलट अपनी राय दी और आखिर उनका फैसला क्या था.


बता दें कि नोटबंदी के इस अहम मामले में जस्टिस बीवी नागरत्ना ने बाकी चार जजों से अपनी असहमति जताते हुए कहा है कि, "केंद्र सरकार के इशारे पर नोटों की सभी सीरीज का विमुद्रीकरण बैंक के विमुद्रीकरण की तुलना में कहीं अधिक गंभीर मुद्दा है. इसलिए, इसे पहले कार्यकारी अधिसूचना के माध्यम से और फिर कानून के माध्यम से किया जाना चाहिए था" उन्होंने आगे कहा कि धारा 26(2) के अनुसार, नोटबंदी का प्रस्ताव आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड से ही आ सकता है.


न्यायाधीश नागरत्ना ने अपने फैसले में ये भी कहा कि आरबीआई ने स्वतंत्र दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया और केवल नोटबंदी के लिए केंद्र की इच्छा को मंजूरी दी. उन्होंने कहा, "आरबीआई ने जो रिकॉर्ड पेश किए उन्हें देखने पर पता चलता है कि केंद्र की इच्छा के कारण पूरी कवायद महज 24 घंटों में ही पूरी की गई थी." बेशक हमारे लोकतंत्र की बुनियाद ही संख्या बल के बहुमत पर टिकी हुई है और यही पैमाना न्याय का सबसे बड़ा मंदिर कहलाने वाली शीर्ष अदालत में भी लागू होता है. लेकिन सोचने वाली बात ये भी है कि भीड़ से हटकर कोई अपनी अलग व निष्पक्ष होकर आवाज़ दे तो क्या उसे इतनी आसानी से अनसुना कर देना चाहिए?


नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.