देश के आज़ाद होने से बरसों पहले तक जब ढेर सारी सल्तनतें होती थीं, तब उस वक्त का कोई राजा सिर्फ इसलिए सबसे ज्यादा खुश होता था कि उसे अपने दुश्मन पर चढ़ाई करने की जरुरत इसलिए नहीं है क्योंकि वहां तो बगावत हो चुकी है. कुछ ऐसा ही हाल आज कांग्रेस का है. वैसे भी देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का ये इतिहास रहा है कि वह जब भी सत्ता से बाहर होती है, तब उसके अंदरुनी झगड़े सड़क का तमाशा बनकर रह जाते हैं और उसकी ये हालत उस पार्टी को सबसे ज्यादा रास आती है, जो देश पर राज कर रही होती है. हुकूमत के सिंहासन से बेदखल होने के सात साल बाद आज कांग्रेस की भी वही हालत है और उसके नेताओं की ब्रेकफास्ट से लेकर डिनर पॉलिटिक्स को देखकर आज अगर कोई सबसे ज्यादा खुश है,तो वह सत्ताधारी बीजेपी है.


क्यों पड़ी 'डिनर पॉलिटिक्स' की जरूरत?
क्योंकि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने दो देशों के प्रमुखों के बीच होने वाली बातचीत को एक नया नाम दिया-चाय पर चर्चा. हैरानी होती है कि उसका तोड़ निकालने और जवाब देने में इतना लंबा वक्त लगा. फिर भी विपक्ष को एकजुट करने के लिये राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते जो 'ब्रेकफास्ट राजनीति' का प्रयोग किया, उसकी सराहना इसलिए भी की जानी चाहिए कि बरसों तक देश पर राज करने वाली नेहरु-गांधी खानदान की मौजूदा पीढ़ी को ये अहसास तो हुआ कि विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभाने और जनता की आवाज बनने के लिए आखिरकार सड़कों पर ही उतरना पड़ता है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि वकालत की दुनिया से राजनीति में आने वाले कपिल सिब्बल को 'डिनर पॉलिटिक्स' करने की जरुरत आख़िर क्यों पड़ी और 15 विपक्षी दलों के तकरीबन चार दर्जन नेताओं को अपने घर बुलाने से उनको क्या हासिल हुआ?


2004 में स्मृति ईरानी को हराया
दरअसल, कपिल सिब्बल एक काबिल वकील हैं और इसी काबलियत के बल पर उन्होंने कांग्रेस को ज्वॉइन किया और अपनी उसी लोकप्रियता के दम पर उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की चांदनी चौक सीट से वर्तमान केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को शिकस्त दी थी. मनमोहन सिंह के कार्यकाल वाली दोनों सरकारों में वे मंत्री भी रहे. यानी कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी उम्मीदों से ज्यादा उन्हें दिया और ये सोचकर भी दिया कि बीजेपी के वकील-नेता अरुण जेटली का मुकाबला इनके सिवा कोई और नहीं कर पाएगा.


'डिनर पॉलिटिक्स' के सियासी मायने
लेकिन वही सिब्बल अपने जन्मदिन के एक दिन बाद रात के भोजन के बहाने अपने घर में अगर विपक्षी दलों के नेताओं का जमावड़ा लगाते हैं तो इसके सियासी मायने भी हैं. वह इसलिए कि सिब्बल भी सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले उस ग्रुप-23 के अगुआओं में से थे, जिन्होंने पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन के साथ ही पूरी ओव्हारोइलिंग करने की आवाज उठाई थी. तो क्या यह माना जाए कि उन्होंने  इस डिनर के जरिए गांधी परिवार को अपनी ताकत का अहसास कराने के साथ ही ये संदेश दिया है कि अब पार्टी में ग्रुप-23 के नेताओं से सलाह -मशविरा किये बगैर कोई बड़ा फैसला नहीं लिया जाएगा. हालांकि सिब्बल ने इस डिनर के तुरंत बाद ये सफाई दी कि वो कांग्रेस के सच्चे सिपाही हैं और इस मीटिंग का मकसद अपने लोगों को ताकत दिखाना नहीं, बल्कि समूचे विपक्ष को बीजेपी के खिलाफ एकजुट करना था.


'सभी दलों को एक दूसरे का सपोर्ट करना चाहिए'
सिब्बल की इस डिनर पॉलिटिक्स के अगले दिन एक अंग्रेजी अखबार ने ये छापा था कि G-23 के एक नेता का कहना है,"'सभी विपक्षी दलों को उत्तर प्रदेश पर धावा बोल देना चाहिए और अखिलेश यादव को सपोर्ट करना चाहिए. अखिलेश यादव ही बीजेपी को चैलेंज कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस चुनाव जीतने की स्थिति में तो है नहीं.' उसी कांग्रेस नेता ने कहा," 'हम सबको समाजवादी पार्टी का सहयोग करना चाहिए और चुनाव जीतने का यही एक तरीका है.'निश्चित तौर पर ये सलाह तो कांग्रेस नेतृत्व के लिए ही है,उनके मुताबिक 'लक्ष्य बीजेपी को हराने का होना चाहिए. हमें वोटों को बंटने नहीं देना चाहिए,' और ये सिर्फ उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं है, 'सभी राजनीतिक दलों को एक दूसरे का सपोर्ट करना चाहिए और जिस पार्टी का भी उम्मीदवार चुनाव जीतने की स्थिति में हो सबको मिल कर समर्थन करना चाहिए.' अब देखना ये है कि सोनिया गांधी 20 तारीख को तमाम विपक्षी नेताओं से मीटिंग के जरिए उस ताकत को बीजेपी के खिलाफ जो बड़ा हथियार बना रही हैं, उसमें कितनी तेज धार होगी?


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