आगामी लोकसभा चुनाव में अब एक साल से भी कम का समय बचा है. इस बीच कई राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं. फिलहाल, कर्नाटक के विधानसभा चुनाव परिणामों की खूब चर्चा हो रही है, जिसमें कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की है. कुछ इसे 'भारत जोड़ो यात्रा' का चमत्कार बता रहे हैं, तो कई कांग्रेस की नई रणनीति को. वह रणनीति है भाजपा के 'हिंदुत्व' की काट में हिंदुओं के ही एक वर्ग पिछड़ों को संगठित कर बीजेपी के वोट-बैंक को कमजोर करने की. इसकी झलक चार साल में राहुल गांधी के अंदर आए बदलाव और परिपक्वता से भी मिलती है. पहले दो बातों को याद कर लिया जाए. जगह वही है, कर्नाटक का कोलार. 2019 में इसी कोलार में राहुल गांधी ने अपने भाषण के दौरान एक पिछड़ी जाति (मोदी) का अपमान किया था, ऐसा उनपर आरोप है. तब उन्होंने भाषण में नरेंद्र मोदी पर हमला करते-करते यह बोल दिया था कि 'सारे चोर मोदी ही क्यों होते हैं?' उसी की सजा के तौर पर उनकी संसद-सदस्यता भी जा चुकी है. इस बार 2023 में जब वह कर्नाटक के उसी कोलार में भाषण दे रहे थे, तो उन्होंने जातिगत जनगणना की मांग कर दी, 2011 में हुए 'कास्ट-सर्वे' के आंकड़े जारी करने की मांग कर दी, 'जितनी आबादी, उतना हक' का नारा दे दिया. समय का पहिया पूरा घूम चुका है, शायद. 


ओबीसी वोटों की साध में कांग्रेस


कर्नाटक चुनाव से पहले ही भारत की ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने यह संकेत दे दिए थे कि वह अपनी रणनीति में बदलाव करने जा रही है. फरवरी में जब कांग्रेस का महाधिवेशन हुआ था, संकेत तभी से मिल गए थे. पार्टी ने ओबीसी के लिए अलग मंत्रालय, उच्च न्यायपालिका में आरक्षण सहित ओबीसी को लुभाने के लिए कई घोषणाएं की थीं. इसके साथ ही कर्नाटक में तय रणनीति के तहत पार्टी ने 52 ओबीसी कैंडिडेट्स को टिकट दिया. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 50 प्रतिशत से अधिक ओबीसी मिले थे, लेकिन इस बार कांग्रेस की रणनीति काम आई और उसे भारी जीत हासिल हुई. पार्टी के पास सिद्धारमैया के तौर पर एक ऐसा नेता भी था जो पिछड़ी कुरुबा जाति से आते हैं और पूरे राज्य में इस जाति की उपस्थिति है. यह आर्थिक और राजनीतिक तौर पर बहुत प्रभावशाली जाति नहीं है और इसीलिए सिद्धारमैया के पास पर्याप्त मौके भी थे कि वह लोककल्याणकारी घोषणाएं कर सकें. कांग्रेस ने इससे पहले भी ओबीसी को अपने साथ लेने की कोशिश की है, लेकिन वह नाकाम रहे हैं. बिहार और यूपी में समाजवादी पृष्ठभूमि से निकले लालू-नीतीश-मुलायम-रामविलास इतने बड़े कद के हो गए कि वहां कांग्रेस ही सिमट गई. रामविलास और मुलायम की मृत्यु के बाद अब उनकी राजनीतिक विरासत उनके बेटे आगे बढ़ा रहे हैं. यूपी में तो मजबूरी में कांग्रेस को ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यकों का समीकरण साधना पड़ा जो वैसे ही 'अतियों का गठबंधन' था और इसीलिए यूपी में कांग्रेस लुप्तप्राय ही हो गयी है. 



कांग्रेस को यह पता है कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी ओबीसी बहुत प्रभावी हैं. राजस्थान में कांग्रेस मौका चूक चुकी है. अगर वह सचिन पायलट को आगे करती तो एक प्रभावशाली गूजर नेतृत्व उसके साथ होता, लेकिन अब बस छूट चुकी है. राजस्थान में ओबीसी वोट बैंक बड़ा मुद्दा है. यहां लगभग 55 फीसदी आबादी पिछड़ों की है और विधानसभा में 60 विधायक इसी वर्ग के हैं. यही नहीं, 25 में से 11 सांसद भी ओबीसी हैं. कांग्रेस अगर यहां समय रहते बदलाव नहीं कर पाई, तो फिर यहां वापसी मुश्किल है. उसी तरह मध्य प्रदेश में भी 48 फीसदी आबादी और 60 विधायकों के साथ ओबीसी एक बड़ा मुद्दा हैं. वहां भाजपा के पास शिवराज सिंह चौहान के तौर पर एक कद्दावर नेता भी हैं, जबकि कांग्रेस अभी तक दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे ओल्ड गार्ड्स पर ही केंद्रित है. एक, छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस की हालत ठीक है, क्योंकि वहां बघेल के तौर पर एक मजबूत नेता भी उसके पास हैं और वह पिछड़ी जाति से भी हैं. 


कम नहीं है कांग्रेस की चुनौती


राहुल गांधी ने 'जितनी आबादी, उतना हक' का जो नारा दिया है, आलोचक उसे नई बोतल में पुरानी शराब बता रहे हैं. यह कांशीराम के 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' या उससे भी पहले राममनोहर लोहिया के 'संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) ने बांधी गांठ, सौ में पिछड़े पावें साठ' के नारे में भी ओबीसी को ही लुभाने की बात की गई थी. कांग्रेस के साथ यूं तो कई समस्याएं हैं, लेकिन उसमें सबसे बड़ी समस्या ये है कि राज्यों में कांग्रेस के पास कोई ऐसी कद्दावर छवि वाला पिछड़ा नेता नहीं है, जिसकी पूरे राज्य में पकड़ हो या तूती बोलती हो. राजस्थान हो म.प्र, सभी जगह एक खास पॉकेट में ही नेता असरदार हैं. दूसरी समस्या ये है कि यूपी और बिहार जहां से लोकसभा की 120 सीटें आती हैं, वहां से कांग्रेस का सूपड़ा साफ है. नीतीश-तेजस्वी हों या मायावती-अखिलेश, कांग्रेस के लिए कोई भी अपनी जगह छोड़ने को राजी नहीं होगा. इन दोनों ही राज्यों में पिछले 30 वर्षों से ओबीसी की ही राजनीति प्रभावी है. अभी यूपी में भले ही योगी आदित्यनाथ को कमान मिली हो, लेकिन मंत्रिमंडल गठन से लेकर संगठन तक में ओबीसी नेतृत्व को खासी तवज्जो मिली है. बीजेपी का छोटे दलों से गठबंधन और सोशल इंजीनियरिंग के साथ ही हिंदुत्व पर जोर और योगी जैसे नेता का समीकरण फिलहाल कांग्रेस के लिए दूर की कौड़ी है. तीसरी समस्या ये है कि जातीय जनगणना को लेकर बीजेपी कांग्रेस को ही कठघरे में डाल रही है. बिहार में तो एनडीए जब सत्ता में थी, तभी इसका रेजोल्यूशन विधानसभा में पारित किया गया था. साथ ही, भाजपा कांग्रेस को 2011 के जातीय सर्वे को लेकर भी घेर रही है और उसका कहना है कि यह एक बड़ा स्कैम है, जिसमें पांच लाख तक तो जातियां बता दी गयी हैं. उस सर्वे की भूलों के लिए जिम्मेदार मुख्यतः कांग्रेस की अपनों को रेवड़ी बांटने की रणनीति को बीजेपी जिम्मेदार बता रही है. 


कांग्रेस की चौथी समस्या ये है कि क्षेत्रीय दलों को हमेशा ही यह डर सताता रहा है कि जिस भी जगह कांग्रेस प्रभावी होगी, वहीं साथियों को ही खा जाएगी. जैसा कर्नाटक में देखने को भी मिला है. इस बार जेडी एस से कांग्रेस का गठबंधन नहीं था, लेकिन उसके वोट में ठीक उतनी ही कमी हुई है, जितनी कांग्रेस के वोट में बढ़ोतरी. लालू-नीतीश जैसे कद्दावर नेता कभी नहीं चाहेंगे कि बिहार में कांग्रेस की वापसी हो. 


''कमल'' भी चल रहा अपनी चाल


ऐसा नहीं है कि बीजेपी को इन चालों का पता नहीं है. इसलिए, भाजपा दोतरफा रणनीति अपना रही है. एक तरफ तो वह हिंदुत्व के मुद्दे को धार देने में लगी है. अभी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वहां के मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की घोषणा की है. साथ ही, पुजारियों को 5हजार रुपए प्रति माह मानदेय का भी वादा किया है. यूपी में योगी, असम में हिमंता और मध्यप्रदेश में शिवराज के हिंदुत्ववादी रुख ने कांग्रेस के छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को भी तीन दिनों का रामायण उत्सव करने पर मजबूर कर दिया है. अगर हिंदुत्व के मुद्दे पर हिंदू एक रहे तो 37 फीसदी वोट पाकर भी बीजेपी 303 सीटें ला सकती है (जैसा पिछली बार लोकसभा चुनाव में हुआ था) और इस बात को भाजपा बेहतर जानती है, इसलिए वह हिंदुत्व को और प्रखर बनाएगी. दूसरी तरफ उसके विपक्ष में जो विपक्षी महागठबंधन बनाने की कवायद हो रही है, उसे पिछली बार कुल मिलाकर 45 फीसदी वोट आया था. अगर इस बार विपक्ष किसी तरह एक हो गया, तो भाजपा मुश्किल में पड़ेगी. 


हिंदुत्व को धार देने के साथ ही भाजपा मुस्लिम वोट बैंक को भी बिखराने का प्रयास कर रही है. इसके लिए उसने इस बार लगभग 400 मुस्लिम (पसमांदा) उम्मीदवारों को यूपी के निकाय चुनाव में उतारा था. पसमांदा मुसलमानों के पिछड़े वर्ग की आबादी है, जिसमें धोबी, नोनिया, जुलाहा इत्यादि आते हैं. पसमांदा मुसलमानों का 80 फीसदी हैं, ऐसा इनके प्रतिनिधियों का दावा है. अगर पसमांदा आबादी तथाकथित सेकुलर दलों से छिटकती है, तो उनके साथ कांग्रेस के लिए भी मुश्किल बढ़ेगी. भाजपा के लिए 2024 की लड़ाई 'करो या मरो' की है और वह कोई भी उपाय छोड़ेगी नहीं. 


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)