गुजरात राज्य का गठन होने के बाद से इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जितनी करारी शिकस्त मिली है, उसका अनुमान उसने सपने में भी कभी नहीं लगाया होगा, लेकिन कांग्रेस इस पराजय के जमीनी कारणों को तलाशने, समझने और अपने गिरेबां में झांकने की बजाए इसका ठीकरा असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM और आम आदमी पार्टी पर फोड़ रही है.


बेशक इन दोनों ही पार्टियों ने कांग्रेस के वफादार समझे जाने वाले मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाई है, लेकिन चुनावी राजनीति में अपनी कमियों-गलतियों का दोष किसी और के सिर पर डाल देना, देश की सबसे पुरानी पार्टी की अपरिपक्वता को दर्शाता है. दरअसल, कांग्रेस को पहले तो इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि वह गुजरात में "मोदी मैजिक " को तोड़ पाने में पूरी तरह से नाकाम साबित हो पा रही है, क्योंकि उसके पास न तो नरेंद्र मोदी को टक्कर देने वाला कोई नेता है और न ही ऐसा कोई विजन है कि राज्य की जनता उस पर भरोसा करते हुए कांग्रेस के हाथों में सत्ता सौंपने की कोई रिस्क ले.


गुजरात से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस नेता शायद इस मुगालते में रहे कि इस बार पार्टी का प्रदर्शन 2017 से भी बेहतर होगा और वह सत्ता की दहलीज़ को छू सकती है. ये मुगालता पालने की बड़ी वजह भी ये थी कि साल 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने 77 सीटें जीतकर बीजेपी को 99 सीटों पर रोक दिया था, लेकिन तब कांग्रेस के पास गुजरात की सियासी नब्ज़ को समझने वाले और पार्टी की हर रणनीति को अंजाम देने वाले अहमद पटेल जैसे चाणक्य थे, जो अब इस दुनिया में नहीं रहे.


हालांकि तब भी अहमद पटेल के कहने पर ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनाव-प्रचार की कमान सौंपी गई थी और इस बार भी उन्हें ही वरिष्ठ पर्यवेक्षक बनाने के साथ ही स्टार प्रचारक भी बनाया गया. गहलोत ने अपने करीबी और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रहे रघु शर्मा को गुजरात का चुनाव प्रभारी बनवा दिया, लेकिन ये जोड़ी करिश्मा करना तो दूर रहा, कांग्रेस को पांच साल पहले वाली स्थिति लाने में भी पूरी तरह से फ़ैल साबित हो गई.


कांग्रेस के लिए अहमद पटेल के बगैर ये पहला चुनाव था और इन नतीजों ने बता दिया कि वे पार्टी को राज्य में सत्ता दिला पाने में बेशक ही कामयाब नहीं हो पाए हों, लेकिन बीते 27 सालों में उनकी सियासी रणनीति की बदौलत ही कांग्रेस मजबूत विपक्ष की भूमिका में बनी हुई थी. अब वह उस हालत में भी नहीं रही कि पांच साल पहले की तरह ही विधानसभा में उसकी गूंज सुनाई दे और सरकार के लिए एकतरफा फैसलों का उतनी ही ताकत से विरोध कर सके.


हालांकि गुजरात चुनाव की बागडोर अशोक गहलोत और रघु शर्मा को सौंपने के पीछे एक वजह ये भी थी कि वहां बड़ी संख्या में राजस्थान मूल के लोग बसे हुए हैं. अनुमान के अनुसार गुजरात के 51 शहरों में 15 लाख से ज्यादा राजस्थानी हैं. इनमें 4 लाख आदिवासी हैं, जिनका नाता दक्षिण राजस्थान से हैं. गुजरात के दो बड़े जिलों में ही 5 लाख राजस्थानी रहते हैं. सूरत में 2.75 लाख और अहमदाबाद में 2.25 लाख से ज्यादा राजस्थान के लोग बसे हुए हैं. इसलिए पार्टी को उम्मीद थी कि गहलोत के प्रचार करने से उसकी स्थिति पहले से ज्यादा मजबूत होगी, लेकिन हुआ इसका उल्टा. कांग्रेस जिन सीटों पर अपनी जीत सुनिश्चित  रही थी. वहीं पर उसकी सबसे करारी हार हुई है.


अगर कांग्रेस गुजरात की इस बुरी हार का ईमानदारी से आकलन करे तो प्रदेश प्रभारी, प्रदेशाध्यक्ष के अलावा सीनियर ऑब्जर्वर के तौर पर गहलोत के हिस्से भी इसकी जिम्मेदारी आती है. सच तो ये है कि गहलोत इस चुनाव में उतना फोकस नहीं कर सके, जितना उन्होंने 2017 के चुनाव में किया था. इस बार गहलोत अधिकांश समय राजस्थान में ही अपनी कुर्सी बचाने में उलझे रहे. बीती 25 सितंबर को गहलोत गुट के विधायकों के विधायक दल की बैठक के बहिष्कार करने के बाद हुए सियासी बवाल के कारण गहलोत का गुजरात से फोकस लगभग पूरी तरह से हट गया था. गहलोत समर्थक विधायकों ने स्पीकर को इस्तीफे दे दिए थे. उस घटना के बाद गुजरात में चुनावी ड्यूटी पर लगाए गए मंत्री-विधायक ग्राउंड पर ही नहीं गए,जिसका खामियाजा भी कांग्रेस को भुगतना पड़ा. 


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