पिछले कई बरसों के बाद इस देश की सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने एक सार्वजनिक मंच से समूची न्यायपालिका को ये समझाने की हिम्मत जुटाई है कि इंसाफ आंख मूंदकर नहीं किया जाता, बल्कि उसके लिए अपनी दोनों आंखें खोलकर ये भी देखना होता है कि समाज में होने वाले किसी भी फ़साद के पीछे की असली वजह क्या है. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन. वी. रमण के इस बयान की तारीफ इसलिये भी की जानी चाहिये कि देश में नफ़रत फैलाने का जो माहौल बनाया जा रहा है, उसमें एक आम इंसान की पहली व आख़िरी आस सिर्फ न्यायपालिका पर ही टिकी हुई है कि उसे वहां से इंसाफ जरुर मिलेगा लेकिन सोचने वाली बात ये भी है कि न्यायपालिका जब तक विधायिका के डर के साये में रहेगी, तब तक वो बेख़ौफ़ होकर कोई फैसला देने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकती. शायद इसीलिये शनिवार को मद्रास हाईकोर्ट के एक कार्यक्रम में चीफ जस्टिस ने देश के तमाम जजों और मजिस्ट्रेट को खुलकर ये संदेश दिया कि "न्यायाधीश आंख बंद करके नियमों को लागू नहीं कर सकते क्योंकि संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है और कोई भी निर्णय देने से पहले, उनके सामाजिक-आर्थिक कारकों और समाज पर अपने फैसले से पड़ने वाले प्रभाव को भी तौलना होगा."


देश के मुख्य न्यायाधीश के इस बयान पर अगर बारीकी से गौर करेंगे, तो सबको ये समझ आ जायेगा कि उन्होंने लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ ही देश में अलग-अलग मुद्दों पर होने वाले उन आंदोलनों की वकालत ही की है, जो जन सरोकार से जुड़े हुए हैं. जाहिर है कि केंद्र या राज्यों में बैठी सरकार चाहे जिस राजनीतिक दल की भी हो लेकिन वो कभी नहीं चाहती कि किसी भी मुद्दे पर जनता उसके खिलाफ आंदोलन करे. चीफ जस्टिस के दिये इस बयान को पिछले साल अक्टूबर में उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी में किसानों को गाड़ियों से रौंदने की घटना से जोड़कर भी देखा जा सकता है. उस घटना के मुख्य आरोपी केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को भी अन्य आरोपियों के साथ गिरफ्तार किया गया था. लेकिन इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उसे जमानत दे डाली. मामला जब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, तो चीफ़ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच ने ही उस फैसले को पलटते हुए ये आदेश दे दिया कि वो अगले एक हफ्ते में सरेंडर करे, यानी उसे दोबारा जेल भेजा जाए.


इसलिये देश के सर्वोच्च न्यायाधीश ने अगर ये कहा है कि "संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है", तो इसके बेहद गहरे मायने हैं. हो सकता है कि सत्ता में बैठे हुक्मरानों को उनकी ये बात नागवार लगे लेकिन उन्होंने तो अपनी दिल की बात सार्वजनिक मंच से कह दी. दरअसल,पिछले कुछ सालों में जो कुछ हुआ, उसे देखकर लोगों में भी ये निराशा आने लगी थी कि इंसाफ के सबसे बड़े मंदिर से भी अब न्याय पाने की उम्मीद करना बेकार है. लेकिन पिछले साल भर में मुख्य न्यायाधीश रमण ने अपने दिए फैसलों और सार्वजनिक मंचों से बेख़ौफ़ होकर दिए अपने बयानों के जरिए देश की जनता में फिर से ये भरोसा जगाया है कि इंसाफ़ अभी जिंदा है क्योंकि वो बिकने को तैयार नहीं है. लिहाज़ा, इसमें शक की जरा भी गुंजाइश नहीं होना चाहिए कि हर तरफ तनाव व नफ़रत भरे माहौल के बीच देश की सबसे बड़ी अदालत के सर्वेसर्वा के मुंह से निकली ये बात देश के 135 करोड़ लोगों के दिलों-दिमाग में एक नई उम्मीद का भरोसा पैदा करेगी, खासकर अल्पसंख्यक समुदाय के बीच.


हालांकि देश की सर्वोच्च न्यायपालिका में पहले नंबर की कुर्सी पर बैठे न्यायमूर्ति रमण लोगों की इस तकलीफ से भी बखूबी वाकिफ़ हैं कि देश में हरेक इंसान जल्द न्याय पाने के लिए बेताब है. शायद इसीलिए उन्हें ये कहना पड़ा कि "इन्सटैंट नूडल्स के इस दौर में लोगों को तुरंत इंसाफ की उम्मीद होती है, लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि अगर हम तत्काल न्याय देने का प्रयास करते हैं तो वास्तविक न्याय यानी Natural justice को नुकसान होगा." लेकिन उसी समारोह में उन्होंने एक और बड़ी बात ये भी कही, जो हर सरकार वादा तो करती है लेकिन उस पर अमल करना सीख जाये, तो लोगों को बरसों लंबी अदालती लड़ाई लड़ने पर मजबूर ही क्यों होना पड़े.


चीफ जस्टिस रमण की कही ये बात भी गौर करने के काबिल है. उन्होंने कहा कि "हर संकट के समय लोगों ने न्यायपालिका की ओर ही देखा और उनका दृढ़ विश्वास है कि उनके अधिकारों की रक्षा सिर्फ अदालतें ही करेंगी." कहा तो उन्होंने बिल्कुल सच है क्योंकि इस देश में भगवान कहो या खुदा कह लो, उसके बाद लोगो का एकमात्र भरोसा सुप्रीम कोर्ट पर ही है लेकिन वहां पहुंचना हर इंसान के बूते से बाहर है क्योंकि इंसाफ़ मिलना ही इतना महंगा है कि वो अपने परिवार का पेट पालेगा या फिर इंसाफ दिलाने वालों की फीस ही देता रहेगा. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि चीफ जस्टिस की दी हुई इस अहम व नेक नसीहत को देश के कितने न्यायाधीश अपने जेहन में उतारने और उसी आधार पर फैसला देने की हिम्मत जुटा पायेंगे?


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