Chauri Chaura Incident: चौरी चौरा क्या है? यह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित छोटे हाट-बाजारों का एक शहर है, जहां आज ही के दिन, करीब 100 साल पहले, भारत का भविष्य संभवतः तय हो गया था और इस बात को हम अभी तक काफी हद तक समझ नहीं पाए. चौरी चौरा में बहुत सारे शहीदों के स्मारक हैं, जिन्होंने देश की आजादी के लिए लड़ते हुए औपनिवेशिक जुए को उतार फेंकने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे और कुछ साल पहले भारतीय  रेलवे ने गोरखपुर से कानपुर के बीच चलने वाली ट्रेन का नाम चौरी चौरा एक्सप्रेस रखा था. भले ही चौरी चौरा को ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के आख्यान में चंपारण सत्याग्रह, नमक सत्याग्रह या भारत छोड़ो आंदोलन के समकक्ष नहीं रखा जा सकता लेकिन उसे उस गरिमा के साथ जरूर याद किया जाना चाहिए, जिसकी स्मृति गौरव जगा देती है. वास्तव में चौरी चौरा देश की स्मृति में है भी और नहीं भी.


1922 के शुरुआती दिनों में भारत महात्मा गांधी द्वारा 1920 में शुरू किए गए असहयोग आंदोलन के असर में था. उत्तर भारत में खिलाफत आंदोलन भी मजबूत पकड़ बनाए था. गोरखपुर कांग्रेस और खिलाफत कमेटियों ने स्वयंसेवकों को राष्ट्रीय कोर ग्रुप की तरह संगठित करने में बढ़त ले ली थी और ये स्वयंसेवक गांव-गांव जाकर लोगों को अंग्रेजों से असहयोग करने की शपथ दिला रहे थे, जनता और व्यापारियों से विदेशी वस्त्रों का बायकॉट करने की अपील कर रहे थे और शराब की दुकानों के विरुद्ध धरने में नागरिकों का साथ दे रहे थे. पुलिस ऐसी राजनीतिक गतिविधियों पर नकेल कसने के लिए कई बार स्वयंसेवकों पर लाठियां बरसाती थी और इससे पूरे माहौल में तनाव था.


पांच फरवरी के दिन, हालांकि कई सूत्र इसे चार फरवरी बताते हैं, स्वयंसेवकों का एक जुलूस मुंदेरा के बाजार को बंद कराने के लिए निकला था और वह स्थानीय पुलिस थाने के सामने से होकर गुजरा. थानेदार ने चेतावनी जारी की. लेकिन भीड़ ने उस पर फब्तियां कसी और चेतावनी को हंसी में उड़ा दिया. बदले में थानेदार ने हवा में फायरिंग की. पुलिस की इस नपुंसकता ने जुलूस में और उत्साह भर दिया, फिर जैसा कि इतिहासकार शाहिद अमीन ने लिखा है, खुशी से झूमती भीड़ ने दावा किया कि ‘गांधी जी के आशीर्वाद से गोलियां भी पानी में बदल गईं.’ लेकिन इसके बाद असली गोलियां आईं. तीन लोग मारे गए और कई सारे घायल हो गए. गुस्साई भीड़ ने पुलिसवालों पर पथराव किया और पीछे धकेल दिया. पुलिसवालों ने भाग कर थाने में शरण ली. भीड़ ने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया और बाजार से मिट्टी का तेल (केरोसिन) लाकर थाने में आग लगा दी. 23 पुलिस वाले मारे गए. ज्यादातर तो जल कर मरे और जो आग की लपटों से बचा कर किसी तरह बाहर आए, उन्होंने भीड़ ने कत्ल कर दिया.


औपनिवेशिक सत्ता ने तत्काल बदले की कार्रवाई की. पुलिस की भाषा में ‘दंगाई भाग गए थे’ लेकिन ‘चौरी चौरा के अपराध’ में हिस्सा लेने वालों की ठोस पहचान के लिए पुलिस ने सिर्फ इतना देखा कि किस-किस ने असहयोग के प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे. पुलिस ने लिए उन्हें संदिग्ध बनाना के वास्ते इतना काफी था. आस-पास के गांवों में छापे मारे गए, संदिग्धों को छुपी हुई जगहों से ढूंढ निकाला गया, उन्हें घेरा गया और थोड़े ही समय में 225 लोगों को तेज सुनवाई के लिए सेशंस कोर्ट में पेश कर दिया गया. 172 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई, जिनमें से 19 को फांसी दी गई. उन्हें अब चौरी चौरा के ‘शहीद’ के रूप में याद किया जाता है.


चौरी चौरा की इस घटना से कोई भी उतना प्रभावित नहीं हुआ जितना मोहनदास गांधी, जिन्हें तब तक महात्मा का दर्जा हासिल हो चुका था. गांधी ने देश में वर्ष भर में स्वराज लाने की प्रतिज्ञा की थी, अगर देश उनके नेतृत्व को स्वीकार करते हुए अहिंसक प्रतिरोध का कड़ाई से पालन करे, और कांग्रेस तब बड़े पैमाने पर ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ को लॉन्च करने के कगार पर थी. महात्मा गांधी ने तब इसकी जिम्मेदारी सरदार पटेल के कंधों पर रखी थी. आठ फरवरी को गांधी ने कांग्रेस कार्यकारी समिति के सदस्यों एक गुप्त पत्र लिखा. इसमें उन्होंने खुद को ‘गोरखपुर जिले में हुई घटनाओं से बहुत तीव्रता से व्यथित’ बताया. उन्होंने संकेत दिया कि वह  बारडोली सत्याग्रह को स्थगित करने पर भी विचार कर रहे हैं: ‘मैं व्यक्तिगत रूप से कभी भी ऐसे आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सकता जो आधा हिंसक और आधा अहिंसक हो, भले ही इससे तथाकथित स्वराज का नतीजा आने में विलंब क्यों न हो क्योंकि इस रास्ते से वह वास्तविक स्वराज नहीं आएगा, जिसकी मैंने कल्पना की है.’


गांधी की जीवनीकार डी.जी. तेंदुलकर ने लिखा है कि इस समय ‘गांधी कांग्रेस के प्रधान सेनापति थे.’ कुछ लोग उनके खिलाफ और भी सख्त भाषा में बात कहना चाहते थे और उन्हें ‘तानाशाह’ तक बताते. लेकिन गांधी का नजरिया था कि चौरी चौरा में ‘भीड़’ की हिंसा बताती है कि देश अभी स्वराज के लिए तैयार नहीं है. ज्यादातर भारतीयों की अहिंसा कमजोरों की अहिंसा थी, जो उनके इरादों या अहिंसा की वास्तविक समझ से पैदा नहीं हुई थी. उनके लिए अहिंसा का मतलब सिर्फ पूरी तरह निहत्था होना था. गांधी के लिए अहिंसा केवल एक अपनाई या ठुकराई जाने वाली नीति भर नहीं थी, न ही इसका उद्देश्य केवल विरोध करना था, उनके लिए इसका एकमात्र मतलब दुनिया का नीतिवान व्यक्ति होना था. अहिंसा की शपथ लेने वाले स्वयंसेवकों ने जो किया, उससे गांधी के सामने यह सत्य सामने आया कि देश ने अभी अहिंसा को पूरी तरह नहीं अपनाया है, वह लक्ष्य से दूर है और इस असहयोग आंदोलन को जारी रखना देश के भविष्य के लिए शुभ नहीं है. नतीजा यह हुआ कि उन्होंने बारडोली, गुजरात में 11-12 फरवरी को हुई कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक में आंदोलन को स्थगित कर दिया. साथ ही कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें ‘चौरी चौरा में भीड़ के द्वारा पुलिस थाने को जलाने और पुलिसवालों की हत्या के अमानवीय बर्ताव की निंदा करते हुए, मारे गए लोगों के परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त की.’


इसके बाद तो यह होना ही था कि सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित करने की घोषणा के साथ आलोचना की आंधी आए. उनके आलोचकों ने कहा कि भले ही यह फैसला कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की ओर से आया है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा सिर्फ गांधी के कहने पर किया गया है. महात्मा उतने बड़े इंसान नहीं हैं, जितना उन्हें बना दिया गया है. कुछ ने आरोप लगाया कि गांधी अपने विचारों का विरोध नहीं सह पाते और सिर्फ अपनी मर्जी का करते हुए किसी अधिनायक की तरह बर्ताव करते हैं. कुछ अन्य गंभीर आरोपों में यह भी कहा गया कि गांधी ने तत्कालीन परिस्थितियों का मूल्यांकन करने में गलती कर दीः अगर उन्हें पता था कि पूरा देश उनके पीछे खड़ा है तो उन्हें यह भी पता होना चाहिए था कि देश की आजादी का प्याला होठों तक आ चुका था और ब्रिटिश प्रशासन को कुछ जगहों पर तो पूरी तरह लकवा मार चुका था. 1941 में जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखाः ‘चौरी चौरा की घटना के बाद आंदोलन को अचानक स्थगित कर दिए जाने से हर तरफ नाराजगी थी. गांधीजी के अलावा सभी कांग्रेसी नेताओं ने इसे खुल कर जाहिर भी किया. मेरे पिता जो उस समय जेल में थे, इस फैसले से बहुत आहत हुए. युवाओं के बीच तो निसंदेह इसका गुस्सा था.’ कई बार कहा जाता है कि भगत सिंह, जो उस समय 15 बरस के थे, इस फैसले से बेहद व्यथित हुए और महात्मा के विचारों से अलगाव के बाद ही उनके क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत हुई.


गांधी ने जवाहर को लिखा, ‘मैं देख रहा हूं कि कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्तावों के मुद्दे पर आप सभी मुझसे खफा हैं. मुझे आपसे सहानुभूति है और आपके पिता के लिए मेरे दिल में चिंता है.’ मोतीलाल, जवाहरलाल और लाजपत राय समेत कई  लीडरों ने तर्क दिया कि ‘कुछ गांवों’ में ‘किसानों की उपद्रवी भीड़’ के बुरे बर्ताव को राष्ट्रीय आंदोलन के नतीजों से जोड़ कर देखना बेतुका है. मगर गांधी का नजरिया स्पष्ट था और उन्होंने इन तर्कों का दो-टूक जवाब यंग इंडिया के 16 फरवरी के अंक में दिया. तेंदुलकर ने गांधी के इस लंबे वक्तव्य को ‘अब तक लिखे गए असाधारण मानवीय दस्तावेजों में एक’ बताया है. गांधी ने इसमें विस्तार से बताया कि क्यों उन्होंने 12 फरवरी को पांच दिनों का व्रत रखा और क्यों उन्हें लगता है कि प्रायश्चित जरूरी है. साथ ही उन्होंने चेतावनी दी कि गोरखपुर जिले में हुई हिंसा को सामान्य से अलग नहीं माना जाना चाहिएः ‘आखिरकार चौरी चौरा एक गंभीर लक्षण है. मैंने कभी इस बात की कल्पना नहीं की कि जहां दमन होगा वहां किसी प्रकार की हिंसा नहीं होगी, न मानसिक और न शारीरिक.’ आज आधुनिक समय में दैनिक बोलचाल की भाषा में भी हिंसा आ चुकी है, यह खतरे की घंटी हैः ‘चौरी चौरा की त्रासदी उंगली का इशारा है. यह बताता है कि अगर गंभीरता से सावधानी नहीं बरती गई तो भारत किस दिशा में जा सकता है.’


भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में यह तयशुदा मामला है कि गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस लेकर एक भयानक भूल की थी. खुद उनकी प्रतिष्ठा को इससे गहरी ठेस पहुंची थी. इस घटना के कुछ ही हफ्तों के बाद उन्हें देशद्रोह और लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काने के आरोप में जेल में डाल दिया गया. 20मार्च को चले मुकदमे में उन्हें दोषी पाया गया और छह साल कारावास की सजा सुनाई गई. कुछ वर्षों के लिए गांधी लोगों की नजरों से ओझल तक हो गए. भारत की आजादी के 25 बरस पहले की यह घटना और गांधी की हत्या ही वे तर्क नहीं हैं कि देश की आजादी के शिल्पकार ने स्वतंत्रता आंदोलन को संभवतः झटके भी दिए थे. निसंदेह इस बात पर वाद-विवाद हो सकता है कि अगर गांधी ने कांग्रेस पर अपनी इच्छा नहीं लादी होती और सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस नहीं कराया होता तो भारत को 1947 से काफी पहले आजादी मिल चुकी होगी. लेकिन क्या इस मामले को किसी अन्य दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है?


चौरी चौरा के बाद के वर्षों और जेल से रिहाई के पश्चात गांधी ने दुनिया का ध्यान दांडी मार्च से अपनी तरफ आकर्षित किया. दंगाग्रस्त नोआखली में उनकी उपस्थिति से जन्मे प्रभाव और कलकत्ता में उपवास उनकी जिंदगी की सबसे ऐतिहासिक घटनाओं में शुमार किए जाते हैं. चौरी चौरा भले ही धब्बा नहीं है लेकिन उसे लेकर आख्यानों में कई बातें अस्पष्ट हैं. मैं कहना चाहता हूं कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेकर गांधी ने असाधारण साहस का प्रदर्शन किया था और यह ऐसा फैसला था जिसे विश्व की राजनीति में नैतिकता को बचाए रखने के लिए वैश्विक इतिहास के सबसे बड़े कदम में शुमार किया जा सकता है.


गांधी के विचारों में औपनिवेशिक अन्याय की आड़ में उन गलत कृत्यों को जायज नहीं ठहराया जा सकता, जिन्हें वे खुल कर ‘चौरी चौरा का अपराध’ कहते हैं. जो लोग राजनीति में नैतिकता की आकांक्षा रखते हैं, उनके वास्ते साध्य के लिए साधनों का प्रश्न अनिवार्य रूप से उपस्थित होता है. लेकिन गांधी के लिए नैतिकता की अवधारणा इससे ऊंची है, जहां एक देश के हित के लिए कुछ लोगों की जान की बाजी नहीं लगाई जा सकती. उनका सवाल था कि मारे गए पुलिस वालों की विधवाओं के आंसू कौन पोंछेगा? संभवतः यह तर्क दिया जा सकता है कि तमाम अन्य देशों के साथ उपनिवेशवादी मुक्ति के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए जब भारत अपने यहां लोकतंत्र को स्थापित कर सकता है और किसी एक पार्टी या एक अधिनायक से मुक्त रह सकता है, तो इसकी बहुत बड़ी वजह गांधी के अहिंसा वादी सिद्धांत और उनका वह अंदाज है, जिसमें वह इस देश को अपनी यात्रा में साथ लेकर आगे बढ़े. इस प्रकार हमें सोचने की जरूरत है कि यह ‘चौरी चौरा का अपराध’ नहीं बल्कि चौरी चौरा का चमत्कार है. आज देश इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है, गांधी का खुलेआम उपहास किया जाता है.


विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं. 


 


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