संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' सीबीएफसी (सेंसर बोर्ड) के सामने जाने से पहले ही अगर उपद्रवियों को दिखाए जाने के संकेत मिलने लगें तो समझ लीजिए कि वर्तमान समय में रचनात्मक स्वतंत्रता की बात एक नैतिक लफ्फाजी के सिवा कुछ नहीं है. जब फिल्म की रिलीज़ पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से मना कर दिया है, तो फिल्मकार की इस मजबूरी का कोई दूसरा अर्थ कैसे लगाया जा सकता है? फिल्म का विरोध प्रत्यक्ष रूप से तो राजपूत समाज कर रहा है पर इसे भाजपा की अगुवाई में हिन्दुत्ववादी ताकतों का पूरा-पूरा समर्थन हासिल है और यही इस विरोध की ताकत भी है.


रोज़ हिंसा की ख़बरों से लेकर फिल्म के विरोध में उग्र बयानबाजी हो रही है लेकिन केंद्र सरकार कान में तेल डाले बैठी है. मारने-काटने की धमकी देने वाली करणी सेना या अन्य क्षत्रिय गुटों के मुंह पर ताला लगाने की कोई कोशिश नहीं हो रही.


क्यों हो रहा है फिल्म का विरोध?


एक अर्ध-ऐतिहासिक कथा पर बनाई गई फिल्म 'पद्मावती' बनने से पूर्व ही इन तत्वों के निशाने पर थी. जयपुर में फिल्म की शूटिंग बाधित की गई, भंसाली के साथ मार-पीट की गई. फिल्मकार को राजस्थान में शूटिंग बंद कर कोल्हापुर में सेट लगाकर शूटिंग करनी पड़ी. वहां सेट ही जला दिया गया. विरोध का कारण यह आशंका है कि फिल्म में आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी और महारानी पद्मावती के किरदार में 'ड्रीम सीक्वेंस' में ही सही पर प्रेम प्रसंग जरूर दर्शाया गया होगा. संजय लीला भंसाली ने इससे कई बार इनकार किया है. उन्होंने सफाई देने की कोशिश की है कि फिल्म बनाते समय उन्होंने राजपूत समाज के गौरव का ख्याल रखा है, पर विरोधी अड़े हुए हैं क्योंकि उन्हें सॉलिड वोट बैंक बनना है. राजनीतिक मलाई में अपना दीर्घकालीन हिस्सा तय करना है. उन्हें पद्मावती के किरदार के डांस-सीक्वेंस पर भी ऐतराज है. कल को वे कह सकते हैं कि पद्मावती दीपिका पादुकोण जैसी नहीं दिखती थी इसलिए फिल्म ही जला डालो.


भाजपा क्यों दे रही है विरोध को हवा?


किसी कलाकृति के विरोध का सबसे सही तरीका होता है उसकी अनदेखी करना. फिल्म से विरोध है तो देखो ही मत. लेकिन वह विरोध का लोकतान्त्रिक तरीका होता है, हिन्दुत्ववादी ताकतों का यह तरीका नहीं होता. वे तो कलाकृति को जला देने/नष्ट करने से लेकर प्रदर्शन स्थलों (सिनेमाघरों, कला दालानों) में तोड़फोड़, हिंसा कर कलाकारों और दर्शकों को आतंकित करने में विश्वास करते हैं. मकबूल फिदा हुसैन का प्रसंग तो याद ही होगा. फिल्मों के मामले में वे शूटिंग में भी व्यवधान पैदा करते हैं. इन्हीं अलोकतांत्रिक ताकतों ने फिल्म 'वाटर' की बनारस में शूटिंग नहीं होने दी थी.


दरअसल ये ताकतें ऐसा इसलिए कर पाती हैं कि इन्हें राजनीतिक वरदहस्त हासिल होता है. भाजपा तो इन ताकतों के साथ खुलकर खड़ी नज़र आती ही है लेकिन कांग्रेस से लेकर अन्य राजनीतिक दल इनके विरोध में सामने आने की हिम्मत नहीं कर पाते. 'पद्मावती' के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है. प्रमुख भाजपा नेताओं के फिल्म विरोधियों के सुर में सुर मिलाने वाले बयान आ रहे हैं. मकसद साफ़ है, ध्रुवीकरण की राजनीति. भाजपा को पता है कि ऐसे समय में इन तत्वों के पीछे खड़े रहने का मतलब सिर्फ तात्कालिक लाभ (गुजरात विधानसभा चुनाव पर इस मुद्दे का असर हो सकता है) ही नहीं बल्कि भविष्य में भी इस वर्ग को चुम्बक की तरह जोड़े रखना है.


घटिया बयानबाजी


फिल्म के समर्थन में बोलने पर फिल्म की नायिका दीपिका पादुकोण की नाक काटने की धमकी से लेकर, निर्देशक भंसाली के परिवार को विवादों में घसीटने की कोशिशों को निंदनीय ही कहा जाएगा. ऐसे बयान- "जिन फिल्मकारों के घरों की स्त्रियां रोज अपने शौहर बदलती हैं वे क्या जानें जौहर क्या होता है?" या फिर यह कहना कि ‘भंसाली अपनी मां पर फिल्म बनाकर उन्हें क्यों नहीं नचाते’ उनकी नारी विरोधी मानसिकता को ही दर्शाते हैं. अभी किसी शूरवीर ने भंसाली के सर पर 5 करोड़ रुपए का ईनाम रख दिया है.


फिल्म उद्योग है 'पद्मावती' के साथ


इस पूरे विवाद का एक सकारात्मक पहलू दिखा फिल्म उद्योग की एकता में. आम तौर पर फिल्म उद्योग बंटा रहता है पर इस बार समूचा फिल्म उद्योग 'पद्मावती' के पक्ष में खड़ा दिख रहा है. निर्देशकों के संगठन से लेकर फिल्म लेखकों, छायाकारों, कलाकारों और अन्य तकनीशियनों के संगठन भी फिल्म के पक्ष में खड़े हैं. सिने एंड टीवी आर्टिस्ट्स एसोसिएशन (सिंटा) के महासचिव सुशांत सिंह ने मुझे बताया कि फिल्म उद्योग से जुड़ी पांच संस्थाएं केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी और गृह मंत्री राजनाथ सिंह से फिल्म की सलामती के हक में अपील करेंगी. लेकिन ज़रूरी यह है कि पूरे फिल्म उद्योग को आगे बढ़कर केंद्र सरकार और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को मजबूर करना चाहिए कि वह फिल्म के प्रदर्शन में कोई बाधा न आने दे. गड़बड़ी करने या हिंसा फ़ैलाने वाले तत्वों के साथ सख्ती से निबटा जाए. फिल्म उद्योग को यह स्टैंड भी लेना चाहिए कि अगर 1 दिसंबर को 'पद्मावती' नहीं रिलीज़ होने दी गई तो उसके बाद कोई फिल्म प्रदर्शित नहीं होगी.


अतीत में बहुत से ऐसे उदाहरण हैं जब फिल्म उद्योग की फूट का खामियाजा कुछ फिल्मकारों को उठाना पड़ा और उनकी फ़िल्में सिनेमाघरों में चलने नहीं दी गईं. आमिर खान के नर्मदा बचाओ आन्दोलन को समर्थन देने के कारण 'फना' गुजरात में प्रदर्शित नहीं होने दी गई थी. गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि पर बनी 'परजानिया' भी गुजरात में प्रदर्शित नहीं होने दी गई थी. 'माय नेम इज खान' से लेकर कई फिल्मों का प्रदर्शन अलग-अलग तरीकों से बाधित किया जा चुका है.


व्यावसायिक जोखिम के डर से अक्सर फिल्मकार अलग-थलग पड़ जाते हैं. अफसोस इस बात का है कि एकजुटता दिखने के बावजूद इस बार भी वही होता दिख रहा है क्योंकि उनका साथ देने के लिए कोई सरकारी शक्ति आगे नहीं आ रही है. भंसाली ने रिलीज के पहले कुछ पत्रकारों को फिल्म दिखा दी है, जिसका वे गुणगान करने में लग गए हैं. इससे सेंसर बोर्ड नाराज बताया जा रहा है. क्या पता वह फ्रिंज गुटों को भी ‘पद्मावती’ दिखा दें. अगर ऐसा होता है तो भविष्य के लिए यह स्वस्थ मिसाल नहीं होगी.


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