क्या ये देश लड़कियों, औरतों के लिए खतरनाक हो चुका है? रोजाना रेप और हिंसा की इतनी घटनाएं होती हैं कि आप हिलकर रह जाते हैं, या आप पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता. अखबार पलटकर रख देते हैं. रिमोट से चैनल बदल देते हैं. किसी सुखद खबर की तरफ मुड़ जाते हैं या फिर सीरियल की हंसती नायिका की ओर. तसल्ली हो जाती है कि सब कुछ अच्छा है. हादसे होते रहते हैं. जींद, पानीपत, फरीदाबाद- रोजाना शहर बदल जाते हैं, पीड़िता की उम्र बदल जाती है पर मामला वही वीभत्स, कुत्सित, रौंगटे खड़े कर देने वाला.



लगातार किसी न किसी अप्रिय घटना से दो-चार हो जाना आम हो रहा है. एनसीआरबी का डेटा कहता है कि देश में हर 14 मिनट में एक औरत यौन उत्पीड़न का शिकार होती है. साल 2016 में कुल मिलाकर रेप के 38,947 मामले देश भर में दर्ज किए गए. कुल 66,544 औरतों को अगवा किया गया. ये वे मामले हैं जिन्हें पुलिसिया रिकॉर्ड में जगह मिलती है. कितने ही मामलों में लोग चुप रह जाते हैं- शर्म या डर से. ये दोनों भाव इतने हावी हैं कि कहना ही क्या. ये इसी से समझा जा सकता है कि पिछले साल दिल्ली के एक रेप्यूटेडेड स्कूल में दसवीं की एक रेप विक्टिम स्टूडेंट को ग्याहरवीं में इसलिए दाखिला नहीं दिया गया क्योंकि इससे स्कूल की इमेज खराब हो सकती थी.



2007 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 13 राज्यों में एक सर्वेक्षण किया. इस सर्वेक्षण में स्कूली बच्चों से बातचीत की गई. इनमें लगभग 12,500 ने माना कि उनका यौन उत्पीड़न हुआ है. लेकिन सिर्फ 25% बच्चों ने इस बारे में किसी को दूसरे को बताने की हिम्मत की थी और केवल 3% ने पुलिस में शिकायत की थी. मतलब 72% चुप ही रहे थे. क्योंकि उन्हें खामोशी ही भली लगी थी.



दुखद यह भी है कि रेप के ज्यादातर मामलों में आरोपी अपना कोई जानने वाला होता है. अनजान लोगों से ज्यादा खतरनाक अपने हो जाते हैं. एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक रेप के 94.6% मामलों में आरोपी पीड़ित का रिश्तेदार था जिसमें भाई, पिता, दादा-नाना, बेटा या कोई परिचित, पड़ोसी शामिल है. यह किसी ट्रॉमा से कम नहीं कि अपना कोई सगा ऐसे मामले में शामिल हो. लेकिन अक्सर पीड़ित का आरोपी को जानना उसके लिए न्याय हासिल करने में रुकावट बन जाता है. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर मृणाल सतीश ने अपनी किताब डिस्क्रीशन, डिस्क्रिमिनेशन एंड रूल ऑफ लॉ : रिफॉर्मिंग रेप सेन्टेंसिंग इन इंडिया में 1984 से 2009 के बीच के 800 रेप केसेज पर स्टडी की. उनका कहना है कि जिन मामलों में आरोपी पीड़ित का परिचित होता है, उनमें से ज्यादातर मामलों में सजा हल्की दी जाती है. अगर रेप पीड़ित महिला शादीशुदा नहीं है और सेक्सुअली एक्टिव है या उसके शरीर पर चोट के निशान नहीं हैं तो भी ऐसा ही होता है.



यूं भी कानून में रेप की परिभाषा बहुत अनोखी है. यह इस पर निर्भर करता है कि मर्द का औरत पर कितना अधिकार है. अगर रेपिस्ट अनजान व्यक्ति है, मतलब औरत या लड़की से उसकी शादी नहीं हुई तो वह ज्यादा बड़ी सजा का पात्र है. उसके साथ लिव इन में रहता है तो कम सजा का. तलाक दे चुका है तो ज्यादा सजा का, तलाक नहीं दिया है और मामला कोर्ट में है तो कम सजा का पात्र है. अगर शादी करके मजे से रह रहा है तो किसी सजा का पात्र नहीं है. मैरिटल रेप तो अपने यहां रेप है ही नहीं. लेकिन कानून बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि रेप, तो रेप ही है. शादीशुदा का हो या बिना शादीशुदा का. औरत हो, बूढ़ी या बच्ची. कितना भी ब्रूटल हो- क्योंकि रेप अपने आप में ही ब्रूटल है.



इस हफ्ते के जींद और पानीपत के मामलों ने 2012 के निर्भया मामले की याद दिला दी है. आदमी के हैवान बनने में क्या कसर बची है. जो लिखा और कहा जा रहा है, वह हमारी समझ में बिल्कुल इजाफा नहीं कर रहा और मानो शब्दों का अपव्यय हो रहा है.  क्योंकि मन में कोई कोहराम नहीं मचता. नन्ही बच्चियों को न्याय दिलाने वाले कानून भी व्यर्थ से लगते हैं.



एनएलएसआईयू के सेंटर फॉर चाइल्ड एंड लॉ ने पिछले दिनों पॉस्को अदालतों के कामकाज पर एक स्टडी की. पॉस्को यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज एक्ट, 2012. इसके तहत अलग अदालतें हैं. इस स्टडी में यह पाया गया कि दिल्ली की छह में से चार अदालतों में बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर भी नहीं है जो एक्ट के तहत जरूरी है. जैसे न तो बच्चों के लिए सेपरेट इन्ट्रेन्स हैं, न वेटिंग रूम, न ऑडियो विजुअल फेसिलिटी और न ही एविडेंस रिकॉर्ड करने के लिए अलग से कमरा. इसके अलावा पॉस्को कानून के तहत दोष सिद्ध होने की दर भी बहुत कम है. 2016 में पॉस्को एक्ट के अंतर्गत 4000 से ज्यादा मामले दिल्ली की अदालतों में लंबित पड़े हुए थे. ऐसे में किसी को भी किसी कानून का डर कैसे हो सकता है. पता है कि मामला पहले तो अदालत तक पहुंचेगा नहीं, पहुंचेगा तो सुनवाई में लंबा समय लग जाएगा, सुनवाई होगी तो दोष साबित करना बहुत मुश्किल होगा.



रेप या यौन हिंसा क्या है? किसी पर हावी होने की प्रवृत्ति. खुद के बड़ा, असरदार होने का अक्षम्य दंभ. औरत को प्रॉपर्टी समझने की भूल. हमारा कानून औरत को संरक्षण देने की बात कहता है. संरक्षण संपत्ति का होता है. किसी व्यक्ति का नहीं. जब हम औरत को सुरक्षा देने की बात कहते हैं तो यह भी याद करते चलते हैं कि वह कमजोर है. दरअसल मर्द किस्म के लोग जितना डराना चाहते हैं, उतना ही खुद भी भीतर से डरे होते हैं. अपने डर को छिपाने के लिए पौरुष का प्रयोग करते चलते हैं. उन्हें हर बार डर लगता है कि जिस पल लड़कियां आजाद होने का फैसला कर लेंगी, उनकी मर्द कहलाने की वैधता समाप्त हो जाएगी.



मध्ययुगीन , भयभीत और छटपटाती हुई स्त्रियों के करुण प्रोफाइल पर जब से आजाद बच्चियों ने अपना फोटो चिपकाया है, तब से हिंसा का शिकार भी ज्यादा हो रही हैं. इसीलिए कानून को सख्त बनाना होगा, त्वरित फैसले करने होंगे. हमें हर पुरानी और नई पीढ़ी के बीच साहस की विरासत संभालनी होगी. औरत को औरत का साथ देना होगा.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)