गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों की तुलना हॉकी के मैच से की जा सकती है. 70 मिनट का मैच है. 69 मिनट का मैच पूरा हो चुका है. बीजेपी और कांग्रेस बराबरी पर हैं. अचानक 69वें मिनट में कांग्रेस की तरफ से मणिशंकर अय्यर फाउल कर देते हैं . बीजेपी को पेनल्टी कार्नर मिलता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तय करते हैं कि वह खुद शॉट लेंगे. अब कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी गोल में खड़े हैं. उनके साथ हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकौर भी हैं. मुख्यमंत्री विजय रुपाणी गोललाइन से गेंद को पुश करते हैं. डी पर खड़े अमित शाह गेंद रोकते हैं और मोदी शॉट मारने के लिए हाकी उठाते हैं. तीनों लड़के हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश मोदी की तरफ दौड़ते हैं ताकि गेंद को ब्लॉक किया जा सके ताकि मोदी गोल पर निशाना न साध सकें जहां राहुल गांधी पूरी मुस्तैदी से खड़े हैं. मोदी तेज शॉट लगाते हैं जो सभी को बीट करती हुई सीधे जाल में जा उलझती है. मोदी मैच जीतते हैं. राहुल हार जाते हैं. निचोड़ यही कि कप्तान में अंतिम वक्त में मैच जीतने का हौसला होना चाहिए , खुद आगे बढ़कर हमला करना चाहिए और जोखिम लेने से परहेज नहीं करना चाहिए. यह काम मोदी ने कर दिखाया. निचोड़ यही कि कप्तान को अपनी टीम पर भरोसा होना चाहिए , खिलाड़ियों को अनुशासन में रखना चाहिए और नाजुक मौके पर गलती करने से बचना चाहिए. यह काम राहुल गांधी नहीं कर पाए. इस मैच के बाद दोनों के लिए सबक है. बीजेपी को आखिर मैच जीतने के लिए आखिरी मिनट तक क्यों संघर्ष करना पड़ा? कांग्रेस 69 मिनट तक मैच में रहने के बाद क्यों हार गयी?


राहुल गांधी का कहना है कि बीजेपी को गुजरात चुनावों में झटका लगा है. अब राहुल ने किस संदर्भ में यह बात कही यह तो वही जान सकते हैं लेकिन चुनावी नतीजों की बारीक से समीक्षा की जाए तो साफ है कि बीजेपी को दो मामलों में झटका लगा है. यह दो झटके उसे किसानों और नौजवानों ने दिये हैं. आंकड़े बता रहे हैं कि गुजरात में 52 फीसद वोटर 18 से 40 साल आयु वर्ग के हैं. इस वर्ग ने पिछले विधानसभा चुनावों में बीजेपी के पक्ष में भारी मतदान किया था. तब कांग्रेस को इनमें से 25 फीसद का ही वोट मिला था लेकिन इस बार 18 से 40 साल आयु वर्ग के 38 फीसद वोटरों ने कांग्रेस का हाथ थामा है. प्रधानमंत्री मोदी बार बार याद दिलाते रहे हैं कि देश की 65 साल की आबादी 40 साल से नीचे की है जो देश का भविष्य तय करने में सक्षम है. यह वर्ग ऐसा होता है जो बदलाव के पक्ष में होता है, उसकी प्रतिक्रिया आक्रामक होती है और जो जोशीले अंदाज में निर्णायक वोट देता है. अब अगर यह वर्ग गुजरात में बीजेपी से हटने के संकेत दे रहा है तो बीजेपी को चिंतित होना चाहिए. इसकी दो वजह हो सकती हैं. एक, रोजगार के मौके कम होते जाना और दो, पाटीदार युवकों में आरक्षण का मांग को लेकर मरमिटने की उमंग.


हार्दिक पटेल कह चुके हैं कि वह पाटीदारों को आरक्षण देने के आंदोलन को जारी रखेंगे और गुजरात के बाहर भी इसका विस्तार करेंगे. उधर बीजेपी के पास पाटीदारों के जख्मों पर जुबानी मरहम के आलावा कुछ नहीं है. नये पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन में अभी बहुत समय लगने वाला है और तब तक आरक्षण का आंदोलन बड़ा रुप भी ले सकता है. हालांकि बीजेपी को लग रहा होगा कि हार के बाद हार्दिक पटेल का असर कम होगा और वह नौजवानों को मुद्रा योजना, स्टार्ट अप इंडिया जैसी योजनाओं के तहत मौके देकर उनके असंतोष को काबू में कर लेगी. चुनावी नतीजों के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली में बीजेपी दफ्तर में दिए अपने भाषण में भी बिना नाम लिए पाटीदारों से पुरानी बातों को भूल जाने को कहा था. मोदी और अमित शाह की जोड़ी को यह देखना होगा कि नौकरी नहीं मिलने की हताशा युवा वर्ग को कहीं कांग्रेस के तरफ न धकेल दे. आखिर कोई कब तक हिंदुत्व के दम पर ऐसे बेरोजगारों को काबू में रख सकता है. यह बात राहुल गांधी की पार्टी के लिए भी चिंता की बात होनी चाहिए. आखिर अगले साल कर्नाटक जैसे बड़े राज्य में अगले साल चुनाव हैं जहां की युवा भी गुजरात के युवा जैसी ही पीड़ा के दौर से गुजर रहा है. वैसे तो युवा वर्ग का असंतोष सभी दलों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए लेकिन चूंकि अभी बात गुजरात और दो राष्ट्रीय दलों की हो रही है लिहाजा बीजेपी और कांग्रेस को ही केन्द्र में रखा जा रहा है. गुजरात मे विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान सौराष्ट्र से लेकर सूरत तक घूमते हुए नौजवानों का यही दर्द सामने दिखा था. गांव का बेरोजगार युवा ज्यादा गुस्से में था. लेकिन आमतौर पर बीजेपी का समर्थक शहरी युवा भी मोदी की तारीफ करते करते रोजगार के मौके सूखने की बात कर ही बैठता था.


गुजरात चुनाव का दूसरा नैरेटिव किसानों की समस्या है. नतीजे बता रहे हैं कि कांग्रेस को 81 सीटों में से 71 गांवों से ही मिली. पाटीदार बहुल गावों में तो कुछ जगह किसानों ने उस बीजेपी को वोट नहीं दिया जसे वह 22 सालों से वोट देते आ रहे थे. सौराष्ट्र में यही वजह है कि कांग्रेस बीजेपी पर भारी पड़ी. उत्तर गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भी इसका व्यापक असर देखा गया. दरअसल जिस समय चुनाव हो रहे थे उस समय कपास चुनी जा रही थी. किसानों को इस बार बीस किलोग्राम कपास के 800 से 900 रुपये ही मिल रहे थे जबकि पहले उन्हें 1200 से 1400 रुपये मिल जाते थे. किसानों का कहना था कि इतनी तो उनकी लागत ही है जबकि बीजेपी ने 1500 रुपए एसएसपी का वायदा किया था. किसानों का कहना था कि नर्मदा की मुख्य नहर जरुर अमरेली से लेकर कच्छ तक बनाई गयी लेकिन उनके खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए नहरें , उप नहरें और वितरिकाओं का जाल नहीं बिछाया गया. इनके आमतौर पर किसानों का मलाल था कि मोदीजी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में एसएसपी पर पचास फीसद मुनाफा देने का वायदा घोषणा पत्र में किया था लेकिन चुनाव जीतने के बाद मोदी सरकार इस वायदे को भूल गयी. कुछ गांवों में तो किसानों ने यहां तक बताया कि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर बताया कि वह इस वायदे को पूरा नहीं कर सकती है. किसानों ने वायदाखिलाफी का बदला इस बार बीजेपी को वोट न देकर ले लिया.


सबसे बड़ी चिंता की बात है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत भी किसानों को समय पर खराब हुई फसल का मुआवजा नहीं मिला. उनका कहना था कि बैंक से कर्ज लेते समय तो उसी समय बीमे का प्रीमियम काट लिया जाता है लेकिन बीमा कंपनियां फसल खराब होने पर समय पर सर्वे नहीं करवाती, सर्वे में मुआवजा कम करके आंका जाता है और यह मुआवजा भी देर से मिलता है. यह शिकायत गुजरात के अलावा राजस्थान , यूपी , मध्य प्रदेश आदि राज्यों के किसान भी कर रहे हैं. राजस्थान में तो एक निजी बीमा कंपनी ने किसानों के मुआवजे के तीन सौ करोड़ से ज्यादा दबा लिए थे और राज्य सरकार को उस कंपनी को ब्लैक लिस्ट करने की धमकी तक देनी पड़ी. गुजरात में किसानों के गुस्से को वोट में बदलते देखने के बाद केन्द्र सरकार को अपनी योजना में जरुर तब्दीलियां करनी पड़ेंगी. किसान कह रहा है कि खेती करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है , मुनाफा गायब हो गया है और सिर्फ खर्चा ही निकल पाता है जिससे वह परिवार का जैसे तैसे भरण पोषण कर रहा है और ऐसा नहीं कर पाने पर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहा है. गुजरात चुनाव के बाद केन्द्र सरकार को इस मोर्चे पर कुछ न कुछ करना ही होगा. एमएसपी पर ध्यान देना होगा. मनरेगा के लिए ज्यादा पैसा रखना होगा और किसान को कर्जे में राहत देनी होगी. यह बात उन राज्यों पर भी लागू होती हैं जहां बीजेपी की सरकार नहीं है.


अंत में...गुजारत में पाटीदारों ने उतनी बड़ी संख्या में कांग्रेस को वोट नहीं दिया जैसा कि उम्मीद की जा रही थी. शहरों में तो पाटीदारों ने जैसे पीठ ही दिखा दी. गुजरात के पांच शहरों की पचास सीटों ने बीजेपी को सत्ता दिला दी और इसमें पाटीदार वोटों की प्रमुख भूमिका रही. सूरत में तो हार्दिक पटेल की रैलियां देख कर ऐसा लगता था कि कांग्रेस कम से कम छह सीटों पर बीजेपी को मात देगी लेकिन वहां के पाटीदारों ने कांग्रेस को एक सीट के लिए तरसा दिया. मुझे गुजरात चुनाव के तीन महीने पहले ही राजस्थान के एक बड़े कांग्रेस नेता ने इस बारे में चेता दिया था. यह नेता गुजरात में पूरी तरह सक्रिय रहे थे. उनका कहना था कि गुजरात के पाटीदार राजस्थान के गुर्जरों की तरह हैं. राजस्थान में अनुसूचित जनजाति में आरक्षण की मांग कर रहे गुर्जरों पर वसुधंरा सरकार के समय दो बार पुलिस ने गोली चलाईं. 70 गुर्जरों की जान गयी लेकिन जब वोट देने की बारी आई तो सब ने वसुंधरा की बीजेपी को ही वोट दे दिया. गुजरात चुनावों के नतीजों का अध्ययन करते समय उस बयान की याद आई.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)