प्रशांत किशोर के जेडीयू में आने के बाद से ही पार्टी का एक बड़ा खेमा खुश नहीं चल रहा है. 5 मार्च को मुजफ्फरपुर की सभा में प्रशांत किशोर ने जिस बड़बोलेपन के साथ बात की उसके बाद पार्टी के नेताओं ने खुलकर बोलना शुरू कर दिया है. पिछले साल ही प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार जेडीयू में लेकर आये. फिर तुरंत उन्हें उपाध्यक्ष बनाकर नंबर दो की कुर्सी दे दी गई. नंबर दो बनाये जाने से पार्टी के वो नेता जो खुद को नीतीश का सबसे करीबी कहते फिरते थे असहज हुए और नतीजा हुआ कि पार्टी नीतीश के नीचे के लेवल पर दो गुटों में बंट गई.


प्रशांत किशोर के पार्टी में आने से पहले आरसीपी सिंह नंबर दो की हैसियत रखते थे. पार्टी से लेकर प्रशासन तक में उनकी पूछ होती थी. ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर पार्टी संगठन तक का काम उन्हीं के हवाले था, लेकिन पीके की एंट्री के बाद पटना में जेडीयू का पावर सेंटर बंट गया. एक खेमे का नेतृत्व आरसीपी सिंह कर रहे थे तो दूसरे की बागडोर पीके के हाथ में आ गई. पीके के आने से पहले नीतीश कुमार की कोर टीम में आरसीपी सिंह, ललन सिंह, वशिष्ठ नारायण सिंह, विजेंद्र यादव हुआ करते थे. इन सभी की ट्यूनिंग सेट थी, लेकिन पीके के आने से ये पूरा कोर ग्रुप असहज हो रहा था.


इसका कारण ये था कि इस गुट के लोग राजनीतिक हैं जबकि पीके व्यवसायिक सोच वाले हैं. कोर ग्रुप असहज उस वक्त ज्यादा होने लगा जब ये खबर चलने लगी की नीतीश राज पाठ पीके को सौंप सकते हैं. सोशल मीडिया पर तो प्रशांत को सीएम बनाने के लिए कई एकाउंट खोलकर लोग सक्रिय हो गये.


अब प्रशांत किशोर को लेकर जो नाराजगी सामने आई है उसकी ताजा वजह 5 मार्च का बयान है. मुजफ्फरपुर में पीके ने ये कहकर मुसीबत मोल ले ली कि "वो किसी को पीएम और किसी को सीएम बनवा सकते हैं तो बिहार की जनता को मुखिया और विधायक बनवाने में भी मदद कर सकते हैं " प्रशांत के इस बयान को पार्टी के सीनियर प्रवक्ता नीरज कुमार सिंह ने गंभीरता से लिया. अनुमान ये लगाया गया कि पीके मोदी और नीतीश कुमार को पीएम सीएम बनाने का श्रेय ले रहे हैं. पार्टी का कहना है कि सीएम और पीएम बनाने का काम जनता का है किसी व्यक्ति विशेष का नहीं.


प्रशांत के इस बयान से जेडीयू के नेता असहज थे ही कि उन्होंने एक इंटरव्यू में ये कहकर सनसनी फैला दी कि लालू से गठबंधन तोड़ने के बाद पार्टी को दोबारा चुनाव में जाना चाहिए था. इस बयान का दोतरफा मतलब निकाला जा रहा है. पहला मतलब तो ये है पीके ने नीतीश के उस दिन के फैसले पर सवाल उठाये हैं जबकि पीके उस वक्त पार्टी में नहीं थे. दूसरा मतलब विरोधी पार्टियों के बयान से लगाया जा रहा है. इसमें कहा जा रहा है कि नीतीश जो सोच रहे हैं वो प्रशांत किशोर कह रहे हैं. यानी नीतीश बीजेपी के साथ सहज नहीं हैं और 2017 के फैसले का जिक्र करके बीजेपी पर दबाव बना रहे हैं.


इस दबाव का कारण क्या हो सकता है ये अभी स्पष्ट नहीं कह सकते. पूर्व सीएम जीतन राम मांझी कह रहे हैं कि प्रशांत का ये बयान इस ओर भी इशारा करता है कि बिहार में विधानसभा चुनाव लोकसभा के साथ ही कराया जाए. लेकिन इन बयानों और आंकलनों से अलग जेडीयू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार ने जिन शब्दों का इस्तेमाल प्रशांत किशोर के लिये किया है वो बताता है कि पार्टी में प्रशांत की आयु सीमित हो चुकी है. नीरज कुमार सिंह ने कहा "पीके की राजनीतिक आयु सीमित है. वो जो कह रहे हैं उनकी बात न पार्टी के कार्यकर्ता सुनेंगे न जनता सुनने वाली है. वो लैपटॉप चलाते रहें. सोशल मीडिया करते रहें उनका प्रवचन कोई नहीं सुनने वाला है. लालू को छोड़कर बीजेपी के साथ जाने का फैसला पार्टी का था. उनके ज्ञान की जरूरत पार्टी को नहीं है"


नीतीश कुमार और लालू को साथ लाने में पीके का रोल रहा था. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में पीके ने दोनों को एक कराया. पीके की वजह से नीतीश चुनाव तो जीत गये लेकिन बदनामी का दाग उनके दामन में पीके ने लगवा दिया. दाग था 'करप्ट लालू' से समझौता करने का. नीतीश यही दाग लेकर बिहार में घूम रहे हैं. सूत्र तो यहां तक बताते हैं कि पीके की राजनीतिक रणनीति को कमजोर करने के लिए ही जेडीयू में इतनी बड़ी जिम्मेदारी उन्हें दी गई, क्योंकि पीके आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के लिए काम कर रहे थे. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी उनके करीब थी. ऐसे में डर ये था कि कहीं पीके 2019 के चुनाव के लिए कांग्रेस खेमे में न खड़े न हो जाएं. लिहाजा बड़ी ही रणनीति के तहत उन्हें जेडीयू में शामिल कराया गया और उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई. अब चुनाव से ठीक पहले प्रशांत किशोर को उनकी जगह दिखाई जा रही है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)