हम उदारमना हैं. मतलब बड़े दिल वाले. सब चाहते हैं कि हमारी लड़कियां सुरक्षित रहें. नेता, पुलिस, प्रशासन... सब. लड़कियों की सुरक्षा का मुद्दा इतना बड़ा है कि संसद तक हिल जाती है. जन प्रतिनिधि बहसते हैं कि हमारी लड़कियां कितनी असुरक्षित हैं. उनकी सुरक्षा करना हमारा धर्म, कर्तव्य है. लड़कियां बेचारी निरीह. उन्हें हमें बचाना है. समाज के दरिंदों से-रोडसाइड रोमियोज़ से. कोई पुलिसिया डंडों से यह करना चाहता है तो कोई तीखी टिप्पणियों की मार से. हमारे नेता कितने संवेदनशील हैं, वाह! इस बार सपा सांसद जया बच्चन परेशान हैं कि लड़कियों की सुरक्षा की सरकार को कोई फिक्र नहीं है. सब लोग गाय-गोरू को बचाने में लगे हैं. राज्यसभा में उन्होंने कइयों को इस मामले में धोया भी है.


जाहिर बात है, एक नेता को- वह भी एक महिला नेता को यह चिंता होनी ही चाहिए. लड़कियों की सुरक्षा.. तो आप क्या करेंगे? पुलिस तैनात कर देंगे. शोहदों को पकड़ेंगे... प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर. शरारत होने पर हवालात की सैर कराएंगे. कानून अपना काम करेगा. कानून अपना काम सालों से कर रहा है. मौजूदा सरकार से पहले सपा के राज में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में मां-बेटी के साथ जब बलात्कार हुआ तब भी पुलिस अपना काम कर रही थी.


लड़कियों की रक्षा होनी चाहिए क्योंकि वह गाय-गोरू की तरह ही हैं...लाचार. अपनी हिफाजत खुद नहीं कर सकतीं. पहले पिता, फिर भाई, इसके बाद पति और आखिर में बेटा उनकी रक्षा करता रहता है. लड़कियां... अंगने की चिड़िया... गाने-कविताएं-नाटक-फिल्में सब यही बताती हैं. लड़के छेड़ते हैं- ये जवानी है दीवानी, आह मेरी रानी, रुक जाओ रानी, देख जरा पीछे मुड़ के, चली कहां ऐसे उड़ के. वह गुड़िया थामे घबराई सी नजर आती है.


लेकिन फिल्मी कलाकार शायद यह नहीं समझ सकते कि असली लड़कियां कैसी होती हैं. क्या हमेशा दबी-सहमी घबराई सी रहती हैं? शोहदा टर्न प्रेमी से उन्हें सुरक्षा चाहिए भी होती है या नहीं- वह भी किसी मर्द की? आप किसी लड़की से पूछकर देखिए- वह क्या कहेगी? क्या पुलिस प्रशासन के हरकत में आने से वह खुलकर जी सकेगी? और पुलिस से उन्हें कौन बचाएगा? फिर यह सुरक्षा तो बाहर की दुनिया के लिए होगी. घर के अंदर उसकी रक्षा कौन करेगा- हम सबको मालूम है कि घर भी औरत के लिए उतने ही असुरक्षित हैं.


 

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2016 के डेटा कहते हैं कि पिछले चार सालों में औरतों के खिलाफ अपराधों में 34 परसेंट की बढ़ोतरी हुई है जिसमें पति और रिश्तेदारों की तरह से की जाने वाली क्रुएलिटी सबसे कॉमन अपराध है. प्रॉब्लम एक ही है. हम सिर्फ सुरक्षा देने की बात करते हैं. समाज को सेंसिटिव बनाने की नहीं. यह उनके हक की बात है. हक मिलेगा, तो लड़की अपनी रक्षा आप ही कर लेगी. उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं होगी. हक बराबरी पर लाता है. सुरक्षा देने में एक हेरारकी रहती है. आदमी ऊपर होता है- औरत नीचे. जो नीचे की सीढ़ी पर रहता है, उसे ही रक्षा की जरूत होती है. हेरारकी में दोनों बराबर होंगे तो किसी को किसी की रक्षा करने की जरूरत ही क्यों होगी. पर इसमें बहुत मेहनत करनी होगी. इतनी मेहतन कौन करे?


हकदारी देने के लिए कई सिरों पर काम करना होगा. हमें काम करना होगा ताकि लड़कियों की हत्या गर्भ में न हो जाए. 2011 के सेंसस कहते हैं कि पिछले दस सालों में 80 लाख लड़कियों को पैदा ही नहीं होने दिया गया. हमें काम करना होगा ताकि लड़कियां लड़कों की तरह स्कूल जा सकें. डेटा यह भी कहते हैं कि हमारे यहां 100 में से सिर्फ 65 लड़कियों का ही स्कूलों में दाखिला होता है. फिर सेकेंडरी तक पहुंचते-पहुंचते उनमें से 50 परसेंट लड़कियां घर बैठ जाती हैं. हमें काम करना होगा ताकि देश की 20 से 24 साल की लगभग आधी लड़कियां शादी की लीगल उम्र होने से पहले ही न ब्याह दी जाएं. काम करना होगा ताकि नौकरीपेशा औरतों को आदमियों के मुकाबले 27 परसेंट कम सैलरी न मिले. देश की 90 परसेंट औरतों को इनफॉरमल सेक्टर में काम न करना पड़े. हमें इतना ज्यादा काम करना होगा कि प्रॉपर्टौ और जमीन पर औरतों को भी हक मिले, क्योंकि सिर्फ 13 परसेंट औरतों को ही ये राइट्स मिले हैं.


इन सबके लिए समाज को पुरखों से थमाई कठपुतली की डोर को छोड़ना होगा. देह की सुरक्षा से परे सोचना होगा... लड़कियां सिर्फ देह नहीं, उससे आगे की एंटिटी तलाश चुकी हैं. आपको बस इतना करना है कि उनके पिंजड़े तोड़ने हैं. उन्हें उनका हक देना है.


हक देने का एक मतलब यह भी है कि लड़कियों को अपने जीवन के फैसले आप करने दीजिए. पढ़ने- लिखने के, शादी ब्याह के, बच्चे पैदा करने या न करने के. पैसे कमाने और उसे खर्च करने के. एक बार वह अपने फैसले आप करने लगेगी तो समाज को भी उसे उसका हक देना ही होगा. यह कोई दो-चार साल का काम नहीं, कई सौ सालों का काम है. हां शुरुआत तो करनी ही होगी- इच्छा या अनिच्छा से. समाज को सेंसिटिव बनाना भी आसान काम नहीं है. इसके लिए आपको जेंडर सेंसिटिव वर्कशॉप्स करनी होंगी. लड़कों और लड़कियों की दोस्तियों को बढ़ावा देना होगा. मॉरल पुलिसिंग रोकनी होगी. लड़के और लड़कियों की दोस्ती एक सेहतमंद समाज का आइना होती है.


लड़कियों को सुरक्षा की नहीं, सिर्फ चाक-चौबस्त माहौल की जरूरत होती है. पिछले दिनों जब दिल्ली के कॉलेज हॉस्टलों में नाइट कर्फ्यू के विरोध में लड़कियां सामने आई थीं तो कई नई बातें पता चली थीं. हॉस्टल प्रशासन लड़कियों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहता है इसलिए शाम के बाद लड़कियों के बाहर निकलने पर पाबंदी रहती है. लेकिन सुरक्षा के नाम पर चौकीदारी करना या पुलिस की सहायता लेने से काम नहीं बनता. लड़कियों के ग्रुप का कहना था कि पब्लिक स्पेस और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को दुरुस्त करना होगा. शहरों, कस्बों और गांवों में प्लानिंग ऐसी करनी होगी कि लड़कियां आजादी से बाहर निकल सकें.


सड़कों को पैदलयात्रियों के चलने लायक बनाना होगा. इस बात का ध्यान रखना होगा कि रातों को सभी जगहों पर खूब सारी रोशनी हो. बसों की लास्ट स्टॉप कनेक्टिविटी बढ़ानी होगी. ताकि लड़कियों को न तो प्राइवेट कैब के भरोसे रहना पड़े, और न ही किसी पुरुष साथी की सिक्योरिटी की. तब एक बात पर और बहुत जोर दिया गया था. वह यह है कि कॉलेजों में स्टूडेंट्स, नॉन टीचिंग और सिक्योरिटी स्टाफ के लिए जेंडर बेस्ड वर्कशॉप जरूर आयोजित होनी चाहिए.



हां, सांसद महोदया के पक्ष में रवीना टंडन भी आ गई हैं. लेकिन उन दोनों के लिए यह भी खास है कि उनके बॉलीवुड को भी जरा इस मामले में सेंसिटिव बनना होगा. फिल्मों का असर सबसे ज्यादा होता है. यहां हीरो सिर्फ सीटियां बजाकर और पीछा कर लड़कियों का प्यार बटोर लेता है. कभी लड़की को मस्त-मस्त चीज बताकर कभी जुम्मा से चुम्मा लेकर. फिल्मी गानों की तर्ज पर हर लड़की पर डोरे डालने वाले शोहदे जब तक फिल्मी नायक बनते रहेंगे, सड़कों-गलियों-चौबारों और अपने घरों में भी लड़कियां परेशान होती रहेंगी. इसलिए सुरक्षा नहीं, सेंसिटिविटी और हक की बात कीजिए.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)